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Uttrakhand

रंग मंच की अज़ीम शख्सियत सुवर्ण रावत की नज़र में गढ़वाली, कुमाउनी एवं जौनसारी अकादमी द्वारा आयोजित बाल-उत्सव 2022 (3 जुलाई से 9 जुलाई) का सफर

३ से ९ जुलाई तक प्यारेलाल भवन दिल्ली में गढ़वाली कुमाऊनी जौनसारी अकादमी के तत्वाधान में उत्तराखंड की इन तीनों बोलियों में बच्चों द्वारा लगभग १८ नाटकों का बाखूबी मंचन किया गया. ये निसंदेह एक अद्वितीय प्रयास था दिल्ली सरकार द्वारा ७ से १८ वर्ष के स्कूली छात्रों के हिडन एक्टिंग टैलेंट्स को सतह पर लाने का और उत्तराखंड की बोली भाषाओं के संवर्धन और प्रमोशन की दिशा में एक नए प्रयास की शुरुआत करने का . दरअसल सुस्त पड़ी अकादमियॉं को ऐसे सकारात्मक प्रयास करते रहने चाहिए . भाषा बोली , आर्ट कल्चर , नाटक , थिएटर को बढ़ावा देने से समाज में नयी चेतना, स्फूर्ति का संचार होता है जो की सदैव हमारी मौजूदा और आने वाली पीडियों के लिए बहुत ही उपयोगी साबित होता है. नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से पोस्टग्रेजुएट डॉ. स्वर्ण रावत की नज़र में इन ७ दिनों के बाल थिएटर त्यौहार पर एक नज़र !
सुनील नेगी , अध्यक्ष उत्तराखंड जर्नलिस्ट्स फोरम

3 जुलाई, रविवार
इस उत्सव का उदघाट्न, आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष में वीरांगना ‘तीलू रौतेली’ की सफल प्रस्तुति के साथ 3 जुलाई को हुआ था। लाइट्स, ऑडियो एवं वीडियो प्रोजेक्शन से बने, इसके दृश्यबंधों को दर्शकों ने सराहा। प्रस्तुति का मूल आलेख, परिकल्पना व निर्देशन- सुवर्ण रावत का था। भाषाविद- रमेश चंद्र घिल्डियाल व सहायक निर्देशन में श्रुति मैठाणी थी।

दूसरी प्रस्तुति ख़िलानंद के निर्देशन में ‘मैं च्यल छूँ’ थी। भाषाविद पूर्णचन्द्र कांडपाल व सहायक निर्देशक भुवन गोस्वामी थे। इस प्रस्तुति में लिंग भेद की अनेक घटनाकर्मो को बख़ूबी से उकेरा गया था। वेशविन्यास व मंच सामग्रियों से आँचलिक पुट दिया गया था।

4 जुलाई, सोमवार
आज की नाट्य प्रस्तुति ‘हरुहित मालूशाही’ की लोककथा’ उत्तराखण्ड की एक मशहूर प्रेम कथा थी। शिल्प, तकनीक व प्रस्तुतिकरण पहुलुओं को अगर नज़र अंदाज़ कर दें तो कलाकारों की वेशभूषा, रूप सज्जा एवं मंच सामाग्री भव्यता से भरी लुभावनी थी। ‘घुरुघरवान्ति घुघुति…’, ‘यो डांडा, यो कांठा….देखी छ न्यारा-न्यारा’ के साथ ‘कनी बज मुरली’ गीत की धुन पर विभिन्न क्रियाकलाप- देवी-पूजा, शादी-व्याह के फेरे, माँगल गीत लोक परम्पराओं के साथ नायक-नायिका का रामगंगा पर दुःखद अंत होता है। इसका निर्देशन किया था चंद्रकला नेगी ने, भाषाविद- सुनील नेगी व सहायक थी-ऋतु पन्त।

दूसरी प्रस्तुति, ‘जीतू बगड़वाल’ में कलाकार पार्श्व से ख़ुद ही गा-बजा रहे थे। वाद्य यंत्र-ढोल, दमाऊ, रणसिंघा लिए रैंप के अलावा पूरे मंच का भरपूर स्तेमाल किया गया था। माँगल गीत- ‘खोली क गणेश’ के साथ हल्दी-हाथ/बान-रस्म। ‘ऐगी र ऐगी स्वाणि बांध’ पर नृत्य के बीच छोटे-छोटे दृश्य में मिमियाती बकरी, काले रंग के मुखोटे में दो बैल उभर कर आए थे।आख़िर में बाँसुरी से मंत्र-मुग्ध आछीरियां, जीतू का हरण करती हैं। इसका निर्देशन किया था-हिम्मत नेगी ने। भाषाविद थे-जगदीश नोडियाल व सहायक निर्देशक-निशांत रौथाण।

5 जुलाई, मंगलवार
को पहली नाट्य प्रस्तुति ‘कै जावा भेंट आख़िर’ में बच्चों के साथ निर्देशक, भाषाविद व सहायक निर्देशक क्रमशः लक्ष्मी रावत, मदन डुकलान व पूजा बडोला भी अभिनय करते हुए नज़र आए। नाट्य प्रस्तुति ने जहाँ एक ओर छूटे हुए उत्तराखण्ड, पलायन की पीड़ा व प्रवासी उत्तराखंडी की जटिलता को सफलता से दर्शाया था। वहीं दूसरी ओर भाषा-बोली के प्रति बेरुखेपन के साथ टूटते रिश्तों की संवेदनाओं को भी छुआ था।

दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘फूल जाई’ वेशभूषा व रूपसज्जा से जौनसार का परिवेश अच्छे से झलक रहा था। भाग लेने वाले कलाकारों में स्कूल की मास्टरनी वाले दृश्य में एक ओर पांव से लिपटने वाला नन्हा बच्चा भी था तो थानेदार व मास्टरनी की मदद में भारी बोझ को अपनी पीठ में लादने वाले बड़े बच्चे भी थे। शिल्प एवं तकनीक को यदि छोड़ दें, तो नाट्य प्रस्तुति की समाप्त पर ढोल-नगाड़ों के साथ होने वाले तांदी/नाटी गीत पर जौनसार-बावर के दर्शक (पुरुष एवं महिला) उत्साह से भरे मंच पर चढ़ गए, हाथ में डांगरा/ फरसा लिए राजेन्द्र सिंह तोमर (निर्देशक), रमेश चंद्र जोशी (भाषाविद) व टी.आर. शर्मा (सहायक निर्देशक) ने अगुवाई की। पूरा प्रेक्षागृह ‘महासू देवता’ के जयघोष से गूँज उठा। उत्तराखण्ड के रंगमंच इतिहास में यह देश की राजधानी में शायद पहली जौनसारी नाट्य प्रस्तुति थी।

6 जुलाई, बुधवार
की दोनों नाट्य प्रस्तुतियों में बच्चों की संख्या अब तक के केंद्रों से सबसे ज़्यादा थी।
पहली नाट्य प्रस्तुति ‘बारामासा’ में अलग-अलग ऋतुओं में हल जोतना, गुड़ाई करना आदि क्रिया- कलापों को बख़ूबी मंच पर दर्शाया गया था। गीत ‘दैणा होया…,’ ‘सुफला हो जाया देवा हो…’ , ‘तेरी झुमैला…’ बुब्बू कौथिक…’एवं ‘मेरी स्याली…’ जैसे गीतों पर छोटे-बड़े बच्चों के अलग-अलग दो समूहों पर पारंपरिक वेशभूषा व रूप सज्जा में किए गए नृत्य ने मंच पर छटा बिखेर दी थी। बारात व नंदा देवी कौथिक के दृश्य पारंपरिक परिधान में भव्यता से भरे व मनमोहक थे। नाट्य प्रस्तुति का निर्देशन-भगवत मनराल ने किया। भाषाविद व सहायक निर्देशन का ज़िम्मा क्रमशःनीरज बवाड़ी व रेखा पाटनी ने निभाया।

दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘पहाड़ा की कुंती’ का सशक्त कथानक, नशा मुक्ति पर आधारित था। कुछ बहुत छोटे बच्चे होने पर भी ढोल-दमाऊ, दैवीय-निशान व पूजा-अर्चना की सामाग्री के साथ गीत -‘देव भूमि प्यारो-प्यारो, ये देश हमारो…’ ने समा बांध दिया था। अपने शराबी पति व गाँव के प्रधान से आक्रोशित ‘कुंती’ की लड़ाई, एक आंदोलन में तब्दील हो जाती है और महिलाओं का सैलाब उसके साथ उमड़ पड़ता है। जिसे देख, आख़िर में मातृ शक्ति के सामने, असमाजिक तत्व घुटने टेक देते हैं। नाट्य प्रस्तुति का निर्देशन, नरेन्द्र पांथरी ने किया। साथ में भाषाविद-डॉ. बिहारी लाल जालंधरी व सहायक निर्देशक उमेद सिंह नेगी थे।

7 जुलाई, गुरुवार
नाट्य प्रस्तुति ‘आमक जेवर’ का कथानक गहनों के बॉक्स के इर्द-गिर्द घूमता है। नेपथ्य में बजने वाली बाँसुरी की स्वर लहरी से मंच पर घटित दृश्यों को उभारने में मदद मिली थी। स्वेटर बुनना, बच्चों का खेलना, टॉवर की वजह से मोबाइल नेटवर्क की समस्या के बीच -‘होलो री बल होलो री…, छ गंगा पार…ओ गंगा भगीरथी बागेश्वर जैसे सटीक गीत थे। कथा-पूजा के दौरान देवता का अवतरित होने के साथ बैठी व खड़ी होली की झलक भी देखने को मिली थी।आख़िर में अम्मा के न रहने पर, – ‘जिनके पास जेवर नहीं होते, तो क्या वे सेवा नहीं करते।” संवाद के बाद, कुछ लम्हों ठहराव के उपरांत पूर्व प्रवाह के साथ नाटक का अंत हो गया था। निर्देशक के.एन. पाण्डेय ‘खिमदा’
भाषाविद- रमेश हितैषी सहायक निर्देशक-संगीता सुयाल थी।

आज की दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘मास्टरनी’ थी। जिसमें एक मास्टरनी की संरक्षण व मार्गदर्शन में एक साधारण छात्र प्रगति के रास्ते चलकर, अपने व्यक्तितत्व का विकास करता है। बच्चे के सर पर माँ का साया न रहने पर भी एक शिक्षिका के सकारात्मक प्रोत्साहन से वह एक बड़ा डॉक्टर बन जाता हैं। नाटक में ‘मास्टरनी’ के ज़रिए बच्चों के मनोवैज्ञानिक पहलुओ को अच्छे से उभारा गया था। निर्देशक-विपिन देव, भाषाविद- रघुवर दत्त शर्मा, सहायक निर्देशक-बृजमोहन वेदवाल थे।

  1. जुलाई, शुक्रवार
    आज की पहली नाट्य प्रस्तुति ‘श्रीदेव सुमन’ के संघर्ष की कहानी थी। जिनकी मौत 84 दिन के अनशन के बाद भी रहस्यमयी बनी हुई है- ज़हर या कुछ और? ‘सुमन-लक्ष्मी’ (पति-पत्नी) एवं दो पुलिस आफिसरों के वैचारिक मतभेदों को बड़ी संवेदनशीलता से उकेरा गया था। इसके अलावा, जहाँ एक ओर टेहरी के राजा को ‘जयदेव’ से नवाजती भोली-भाली जनता दिखी तो वहीं दूसरी ओर श्रीदेव सुमन व उनके प्रजामण्डल के साथियों को प्रताड़ित करता मोर सिंह के पुलिस बल का कहर भी नज़र आया। इस नाटक के निर्देशक-संयोगिता ध्यानी
    भाषाविद- रणीराम ‘गढ़वाली’ एवं
    सहायक निर्देशक- दर्शन सिंह रावत थे।

आज की दूसरी नाट्य प्रस्तुति ‘वीर शहीद केसरी चन्द्र’ पर आधारित थी। गाँव के स्कूल व डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून पढ़ाई के दौरान शिक्षक के उत्साहवर्द्धन व ब्रिटिशर्स के साथ हुई मुठभेड़ ही उन्हें देश भक्ति की ओर खींच लाई थी।
घर-परिवार में अपने ‘माँ-बाबा’ को भी ‘केसरी’ की इस देशप्रेम की ज़िद्द के आगे झुकना पड़ा था और केसरी ने अपने आपको सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिंद फौज़ में झोंक दिया था। कलाकारों द्वारा अभिनीत चरित्रों/किरदारों की मंच सामग्री, वेश-भूषा व रूप-सज्जा आकर्षक थी। विशेष रुप से ब्रिटिशर
ऑफिसर का पहनावा, जज की विग एवं केसरी चंद्र की हाथ-पाँव में झूलती बेड़ियां। इस नाटक की
निर्देशक-मंजूषा जोशी, भाषाविद-खजानदत्त शर्मा एवं
सहायक निर्देशक-तारादत्त जोशी थे।

  1. जुलाई, शनिवार
    3 जुलाई, उदघाट्न प्रस्तुति ‘तीलू रौतेली’ के बाद बाल-उत्सव का सम्मापन सिर्फ़ एक नाट्य प्रस्तुति ‘रामी बौराणी’ से हुआ। अन्य 12 केन्द्रों की अपेक्षा इसका प्रस्तुति- अन्तराल कम था। एक फौजी का साधु-संत के भेष में अपनी माँ व पत्नी से मिलना एक सुखद अंत था। इस नाट्य प्रस्तुति के निर्देशक-आशीष शर्मा,भाषाविद- पृथ्वी सिंह केदारखण्डी,सहायक निर्देशक- रमेश ठंगरियाल थे। सम्मापन समारोह के मुख्य अतिथि दिल्ली शिक्षक विश्व विद्यालय के कुलपति प्रो. धनंजय जोशी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (नेशनल एडुकेशन पालिसी) के तहत सभी भाषाओं के प्रचार-प्रसार पर ज़ोर दिया था। जो की दिल्ली के 13 विभिन्न केंद्रों में उत्तराखण्ड की विविध भाषाओं में होने वाले सशक्त रंगमंचीय- कार्यशाला के माध्यम से करना उद्देश्य भी रहा है।
    उत्तराखण्डी भाषा को लेकर देश की राजधानी दिल्ली में मराठी व बंगाली रंगमंच की तर्ज़ पर गढ़वाली व कुमाउनी रंगमंच में, ‘पर्वतीय कला केंद्र’, ‘हाई हिलर्स’ एवं ‘पर्वतीय कला मंच’ जैसी संस्थाएं आज भी सक्रिय हैं। इसके अलावा उत्तराखण्ड परिवेश में रंगमंच करने वालों में ‘कला दर्पण’, ‘प्रज्ञा आर्ट्स’ जैसी संस्थाएं प्रमुख हैं।
    गढ़वाली, कुमाउनी एवं जौनसारी अकादमी के13 केंद्रों में अकादमी के उपाध्यक्ष-एम.एस. रावत, सचिव-जीतराम भट्ट, कार्यक्रम समन्यवक- राकेश शर्मा एवं अकादमी के अन्य सक्रिय सदस्यों द्वारा किया गया यह प्रस्तुतिपरक रंगमंच कार्यशाला का प्रथम प्रयोग सराहनीय है।

अकादमी की ओर से अनेक घोषणाओं के बावजूद प्रेक्षागृह में खान-पान व मोबाइल में बात-चीत का सिलसिला आख़िर तक भी जारी रहा। यह तभी थमेगा, जब हम अनुशासन बनाने में अपनी व्यक्तिगत जिम्मेबारी समझेंगें।
गढ़वाली, कुमाउनी एवं जौनसारी अकादमी का यह ऐतिहासिक प्रयोग, एक खूबसूरत पड़ाव था। जिसकी दस्तक से देश की राजधानी में, एक सृजनात्मक हलचल रही। 20 दिनों की इस चुनौतियों से भरी प्रस्तुति परक कार्यशाला में अपनेपन के जज़्बे व कड़ी मेहनत से बच्चों का विश्वास जीतकर, उन्हें सँवारने-निखारने एवं ‘व्यक्तित्व-विकास’ की कड़ी में बच्चों के घर-परिवार के सदस्यों को उनकी छिपी प्रतिभा का बख़ूबी अहसास करवाना, तारीफ़े क़ाबिल है।
सबने मिलकर इस अभियान को आगे बढ़ाना है। ताकि प्रदर्शन कला/रंगमंच के सशक्त माध्यम से अपनी उत्तराखंडी- कला, साहित्य, संस्कृति की अनूठी पहिचान, राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय फ़लक पर छा जाए।


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