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प्रेस (की) आज़ादी पर – वरिष्ठ पत्रकार उमेश जोशी

भाई जी! सस्नेह प्रातः अभिवादन। आज 4 मई 2024 का दिन शुभ हो, मंगलमय हो। आज का दिन मेरे जीवन में बहुत अहम् है। कैसे? आगे चलकर बताऊंगा। आपका कल का दिन भी बेहतर रहा होगा, ऐसी उम्मीद करता हूँ। आप यह सोच रहे होंगे, बीत गई सो बात गई, फिर बीते कल के बारे में क्यों बात कर रहा हूँ, उसका जिक्र क्यों कर रहा हूँ। दरअसल, कल ‘अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता’ दिवस था; सुबह जल्दी घर से निकलना पड़ा। इस वजह से इस अवसर पर आपको संदेश नहीं भेज पाया। एक पत्रकार होने के नाते ‘प्रेस स्वतंत्रता’ पर और वह भी अंतरराष्ट्रीय हो, तो चंद लाइन लिखना जरूरी था। लेकिन, क्षमा प्रार्थी हूँ, अपरिहार्य स्थिति के कारण नहीं लिख पाया।
जब ‘प्रेस’ और ‘स्वतंत्रता’ दोनों एक साथ दिखते हैं, (सिर्फ लेखन में दिखते हैं वैसे दोनों का कहीं मेल नहीं है) तो क़रीब चार दशक का समय रिवाइंड कर ‘जनसत्ता’ के दिनों को याद करना शुरू करता हूँ। सवा नौ साल की केंद्र सरकार की नौकरी छोड़ कर जनसत्ता ज्वाइन किया था। भाग्यशाली था कि आदरणीय प्रभाष जोशी जैसे क़ाबिल और उदात्त व्यक्तित्व वाले संपादक के साथ काम करने का अवसर मिला। प्रभाष जी ने इंटरव्यू में पूछा भी था कि सरकारी नौकरी छोड़कर प्राइवेट नौकरी में क्यों आ रहे हो, हमारे यहां तो जॉब सिक्योरिटी भी नहीं है। मेरा जवाब था कि मुझे अपना मनपसंद काम करना है और मेरा मन पत्रकारिता में ही रमता है।
जनसत्ता में 21 वर्ष काम किया। प्रभाष जोशी जी संपादक थे तब तक हर पल महसूस किया कि हम वाकई पत्रकारिता कर रहे हैं। 21 वर्षों में मुझे याद नहीं पड़ता कि सेंसरशिप के नाम पर कभी मेरी रिपोर्ट के 21 शब्द भी रोके गए हों। इससे बड़ी प्रेस की स्वतंत्रता और क्या हो सकती है! प्रभाष जी के जाने के बाद अन्य संपादकों के साथ भी काम करना पड़ा। लेकिन दूसरी-तीसरी पंक्ति के पत्रकारों में प्रभाष जी के दिए हुए संस्कार थे इसलिए उन्होंने संपादन के दौरान किसी की भी ख़बर में कभी सेंसरशिप नहीं की। प्रभाष जी के जाने बाद संपादकों के राग-द्वेष और पूर्वग्रह से दुःखी होकर 4 मई 2004 को वीआरएस ले लिया। जनसत्ता छोड़ें आज पूरे 20 साल हो गए हैं। इन 20 वर्षों में प्रेस की स्वतंत्रता खोजने के लिए कई जगह भटकता रहा लेकिन कहीं नहीं दिखाई दी।
एक कहावत है- बुभुक्षित: किं न करोति पापं।
भूखा क्या पाप नही करता? अर्थात भूखा कोई भी पाप कर्म कर सकता है।
मैंने भी तीन क्षेत्रीय चैनलों में काम करने का पाप किया है जहाँ प्रेस स्वतंत्रता का ख़याल लाना भी अपराध समान होता है। क़रीब 10 वर्ष उन चैनलों में काम किया। बाद में समझौत नहीं कर पाया और घर बैठ गया। भूख अंगीकार करना बेहतर समझा।
क्षेत्रीय चैनल मालिकों की स्वार्थ सिद्धि के साधन माने जाते हैं। कोई बिल्डर चैनल शुरू कर देता है तो कोई राजनेता बनने की चाह रखने वाला चैनल चलाने लगता है। कारोबारी अपने काले धन को सफेद करने के लिए ‘चैनल का धंधा’ शुरू कर देते हैं। सबके अपने स्वार्थ हैं और चैनल स्वार्थ सिद्धि का एक कारगर साधन है। वे राजनेताओं से साथ साँठगाँठ कर ही अपना चैनल चला सकते हैं। ऐसे माहौल में कहाँ दिखेगी प्रेस की स्वतंत्रता! इस बारे में सोचना ही बेमानी है।
कल संदेश भेजता तो मुझे झूठी शुभकामनाएँ देनी पड़तीं। परिस्थितियों ने मुझे इस पाप से बचा लिया। आज का दिन आपका शुभ हो और बेहतर दिन के लिए ढेरों हार्दिक शुभकामनाएँ।
(कभी संदर्भ आया तो क्षेत्रीय चैनलों में भोगी पीड़ा भी आपको बताऊंगा। वहाँ ‘पत्रकारिता’ मालिकों की कैसे चेरी बनी होती है, इसकी झलक भी दिखाऊँगा।)

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