नाटक- यात्राओं की यात्रा समीक्षात्मक रिपोर्ट -

पार्थसारथि थपलियाल




यह एक जागरणमंत्र है। जो वैदिक ऋचाओं की तरह, देवभूमि, उत्तराखंड के ऋषिपुत्रों की चेतना से अवतरित हुआ है। अस्कोट-आराकोट अभियान कोई सैर सपाटा नहीं है। यह यात्रा जमीन से जुड़े युवा चेतना के उस विचार का मूर्त रूप है जो युवा शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, शिखर प्रताप और कुंवर प्रसून के मध्य विचार मंथन के बाद यज्ञ फल के रूप में प्राप्त हुआ। उन्होंने 1974 में इस अभियान को जन्म दिया। पहाड़ को पहाड़ की तरह पर्वतभाषा में समझें बिना पहाड़ को नहीं समझना कठिन है। उस कठिन को सरल बनाने वाले चार युवा 25 मई से 8 जुलाई के मध्य 1974 में हिमालय की विकट पगडंडियों, नदियों, घाटियों को पार करते हुए हिमालयी पारिस्थितिकी, पर्यावरण, लोक जीवन, लोक संस्कृति और जन समस्याओं का अध्ययन करते हुए अस्कोट (पिथौरागढ़) से आराकोट (उत्तरकाशी) यात्रा अपने लक्ष्य अभियान के साथ गांव गांव पहुंचे। अगले अभियान से पहले 1982 में “पहाड़” नामक संस्था की स्थापना नैनीताल में की गई। इस पहाड़ शब्द को समझने के लिए एक अन्य दृष्टि की आवश्यकता है। यह अंग्रेज़ी अक्षरों का PAHAR है, संस्था का भाव अंदर छुपा है। (PAHAR- People’s Association for Himalaya Area Research) इस संस्था ने दस वर्षों के अंतराल पर अस्कोट -आराकोट अभियान 1974, 1984, 1994, 2004, 2014 और 2024 में आयोजित किये गये। पहाड़ दिल्ली टीम ने “यात्राओं की यात्रा” का नाट्य मंचन किया। पहाड़ दिल्ली टीम के संयोजक चंदन डांगी ने एक भेंट में बताया – पांगू-अस्कोट से आराकोट तक 1150 किलोमीटर की इस यात्रा में अनेक गांव हैं। यात्रा मार्ग के कुछ गांवों के नाम इस तरह हैं-
पांगू से तवाघाट, धारचूला, जौंलजीबी, बलुवाकोट, अस्कोट/नारायण नगर, वरम, छोरीबगड़, मदकोट, मुनस्यारी, बिरथी, नामिक (डीडीहाट), कीमू, लोहारू, कर्मी, बदियाकोट, समदर, भरण कांडेय, हिमनी घेस, बलाण, वेदनी बुग्याल, वाण, रामणी, झिझी, इराणी, पाणा, कुंवारी पास, करछी, रेणी, जोशीमठ, गोपेश्वर, चौपता होते हुए उखीमठ, त्रिजुगीनारायण, पवाली, घुत्तू, बूढ़ा केदार, कमद, उत्तरकाशी, सिलक्यारा टनल होकर बड़कोट, नौगांव, पुरोला, जरमोला, मोरी, त्यूणी और अंत में आराकोट। इस यात्रा में कुल 45 दिन लगे। यह दूरी पांगू से आराकोट तक 1,150 किलोमीटर की थी। जिस गांव के निकट सांझ ढली वहीं डेरा डाल दिया। 6 यात्राओं का सबसे अच्छा सामाजिक प्रभाव यह पड़ा कि इन गांवों के लोगों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि गांव से प्रस्थान करते सबके गले रुंध जाते हैं। मानों वे कह रहे हों – अभी न जाओ छोड़कर ये दिल अभी भरा नहीं…यही हिमालय है जो सोच से ऊंचा है और दिल से उदार।
पहाड़ टीम ने मंथन कर इस हिमालयी यात्रा में प्राप्त अनुभव को जन-जन तक पहुंचाने का माध्य चुना नाट्य विधा को। मंच तक आने से पहले उच्च कोटि का अभ्यास किया गया।
नई दिल्ली के मंडी हाउस स्थित ‘कमानी’ सभागार में 15 दिसंबर 2025 को ‘पहाड़, दिल्ली टीम’ की नाट्य प्रस्तुति- ‘यात्राओं की यात्रा’ ने हिमालय का दर्द, उत्तराखंड की संस्कृति, सामाजिक रूढ़िवादिता, समस्याओं के दंश भोगते लोग, विकास के नाम पर गड्डे खोदते लोग, कठिनाइयों में भी संस्कृति बचाते लोग, पलायन की पीड़ा, अभावों और प्रभावों में संतुलित होता जीवन, विषयों को उकेरकर एक फीचर फिल्म की तरह मंच पर प्रदर्शित की।।
यह प्रस्तुति एक डॉक्यूड्रामा थी, जिसमें यात्रा के चलते चलते कथा स्वयं बन रही थी। “यात्राओं की यात्रा” नाम स्वयं में आकर्षक है। यह यात्रा उन यात्राओं की यात्रा है जो 1974 में
पांगू-अस्कोट (पिथौरागढ़) से आराकोट (उत्तरकाशी) तक की गई थी। दस वर्षों के अंतराल (1974,1984,1994, 2004,2014 और 2024) में आयोजित इन यात्राओं में नदी संगम की तरह नई पीढ़ियां जुड़ती रहती हैं और प्रवाह परंपरा बनी रही। इस यात्रा का एक गहन उद्देश्य है- हिमालय के शिखरों, पर्वतों, घाटियों, नदियों, जंगलों, बीहड़ों, बुग्यालों, गांवों के साथ मायके (मैत) जैसे संबंधों को बनाये रखना, कभी विकास देखकर खुश होना, कभी दुर्दशा देखकर रोना, घसियारियों का जंगलों में घास काटते हुए लोकगीत (रूप में वैदिक ऋचाओं को) गाना, खेतों, खलिहानों से बातें करना, कभी हुड़क्या बोलों पर थिरकना, कभी गांवों में मंडाण में पंडौ नाचना, न्योली और खुदेड़ गीतों में स्मृतियों को तलाशना, कितना कुछ मिल जाता है इस यात्रा में।
“यात्राओं की यात्रा” नाटक की परिकल्पना को रंगमंच पर अवतरित करना गहन अनुभव, सांस्कृतिक ज्ञान और कल्पनाशीलता का प्रतिफल है। नाटक के पटकथा लेखक डॉ. कमल कर्नाटक निश्चय ही अस्कोट से आराकोट अभियान की 45 दिवसीय यात्रा को जीवंत स्वरूप देने के लिए उन तालियों के हकदार हैं, जो कमानी सभागार में 15 दिसंबर को सुनाई दी। इतनी लंबी 6 दशकीय यात्रा अनुभव को सार रूप लिखना, उसमें असंख्य विषयों में से चंद विषयों का चयन करना, एक भाषण के विषय को लोक जीवन के कथोपकथन की शब्दावली देना, व्यास कथा को समास रूप में ढालना, नीरसता को सरसता में बदलने के लिए चुटकीले संवाद, कभी कुमाऊनी में, कभी गढ़वाली में प्रस्तुत करने की कल्पना करना और ग्रामीण विकास, उत्तराखंड की संस्कृति तथा हिमालय की पीड़ा को जनभावना से समझना “पूत के पांव पालने में” जैसे लगा। नाटक का निर्देशन बहुत ही कुशलता से किया गया। रंगमंच की अनुभवी डॉ. ममता कर्नाटक का निर्देशन और डॉ. कमल कर्नाटक का सह-निर्देशन ने नाटक के एकालोप की अनदेखी करते हुए दर्शकों की रुचि का ध्यान रखा। खचाखच भरा कमानी सभागार इस बात का साक्षी बना, स्वर उभरे – “अस्कोट-आराकोट अभियान जारी रहेगा! जारी रहेगा”, जो कि नाटक की टैग लाइन भी थी। नाटक की सफलता-असफलता का श्रेय आमतौर पर निर्देशक को ही जाता है। वाद, संवाद, कथोपकथन, हास-परिहास, दैहिक भाषा, वेश-भूषा, उपयुक्त गीत संगीत, ध्वनि प्रभाव ने सभी को प्रभावित किया। सफलता का हस्ताक्षर दर्शकों ने अपनी तालियों के माध्यम से सभागार में दे दिये। हर एक दर्शक ने उनके सम्मान में खड़े होकर तालियां बजाईं। यह प्रसन्नता की बात थी कि 1974 में इस यात्रा अभियान के विचारकों में से एक शेखर पाठक दर्शक दीर्घा में अपने उन साथियों का स्मरण कर रहे थे, जिनके प्रयास आज खुल खिला रहे थे।
“यात्राओं की यात्रा” नाटक ने जिन विषयों को समेटा उनमें कुछ विषय दर्शकों के लिए चिंतन प्रस्तुत हैं। विकास के नाम पर हिमालय के साथ दुर्व्यवहार, चिपको आंदोलन की याद, सड़कें चौड़ी करने के लिए जंगलों पर प्रहार, वनाग्नि (बड़ांग) के पीछे की सोच, हिमालय का पर्यावरण और पारिस्थितिकी में बदलाव से प्रकृति का कुपित होना, हाइडल परियोजनाओं से, अनियंत्रित टूरिज्म से, धूर्त मानसिकता की व्यावसायिकता से, दारू और भ्रष्टाचार से उत्तराखंड अपनी सांस्कृतिक पहचान खो रहा है। लोग दारू तो एक ही गिलास से पी लेते हैं, लेकिन सहभोज में हमप्याला को निवाला से दूर कर देते हैं। महिलाओं के लिए मंदिर प्रवेश में अड़चनें, लेकिन बकरा बलि को स्वीकृति क्या संस्कृति है। दूसरी ओर आधुनिकता के दौर में भी गांवों में “अतिथि देवों भव” की भावना अक्षुण्ण है। अस्कोट-आराकोट अभियान के यात्रियों के साथ मार्ग के ग्रामीणों का आदर और अपनत्व का भाव उत्तराखंड वासियों की अनमोल संपत्ति का प्रदर्शन है। गाजे बाजे के साथ समारोह पूर्वक यात्रियों का स्वागत, भोजन व्यवस्था सब व्यवहार विदाई के समय आंखों को नम कर देता है, जैसे डोली उठती बेटी के विवाह के समय होता है। यात्रा में दिखाई देता है -हिमालयी बुग्याल प्रदूषित हो रहे हैं, चार धाम यात्रा एक तमाशा बन गई है। पलायन का इतना दुष्प्रभाव पड़ा है कि गांवों में बूढ़े बुजुर्ग चलते फिरते स्मारक हैं, इन स्मारकों की स्थिति जर्जर हो गई है लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। पलायन की पीड़ा ने गांवों की रौनकें खत्म कर दी हैं। लोग नरभक्षी जंगली जानवरों और भ्रष्ट व्यवस्था से त्रस्त है। गांव की भी अपनी आत्मा होती है उस दर्द को बेदर्द ज़माना किस संवेदना से समझता है यह समझाने की व्यवस्था कौन करेगा। गांवों के खंडहर तिबारियां रास्तों की ओर निहार रही हैं, दिखाई कोई नहीं देता। कानों को बार बार भ्रम होता है। सुनसान पड़े गांव हमारी उस सामाजिक स्थिति को रो रो कर बता रहे हैं। सड़कें गांवों की रौनकें नीचे मैदानों की ओर ले गई हैं। सड़कें जाने के लिए बनी हैं, आने के लिए नहीं। ऐसे दर्द इन यात्राओं की पोटली में कसमसा रहे हैं।
प्रशासन समस्याओं का जिक्र तो बड़ी संवेदना के साथ करता है, फ़िक्र करना भूल जाता है। फ़िक्र होती तो 2013 की प्रलयंकारी विभीषिका से बहे पुल की जगह नयापुरा बन चुका होता। स्व. सुंदर लाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, गौरा देवी, धूम सिंह नेगी, कुंवर प्रसून, शिखर प्रताप, धर्मानंद उनियाल ‘पथिक’, शमशेर बिष्ट, शेखर पाठक जैसे लोगों की शिखरों से निकली आवाजें घाटियों ने अनसुनी कर दी, अन्यथा पहाड़ों की सिसकियां ढोल की तरह दूर दूर तक सुनाई देती। ये यात्रा प्रकृति का रुदन है, क्रंदन है। पहाड़ में बाढ़ की विभीषिकाएं, जल स्रोतों का सूखना, कभी अतिवृष्टि कभी अनावृष्टि, होना स्वाभाविक है। देवभूमि के देवता धूप-दीप, नैवेद्य लिए बिना ही सो रहे हैं। कोई तो है जो दस साल में जगा जाता है- अस्कोट-आराकोट अभियान- जारी रहेगा! जारी रहेगा! नाटक पूरा होते होते हर जुबान पर था –
अस्कोट-आराकोट अभियान- जारी रहेगा! जारी रहेगा! तालियों की गड़गड़ाहट.. बहुत सुंदर.. बहुत खूब। बहुत खूब।।
“यात्राओं की यात्रा” नाटक में 55 से अधिक कलाकारों ने विभिन्न भूमिकाओं का प्रदर्शन किया। हारमोनियम (हरीश रावत), हुड़का (भुवन रावत), तालवाद्य (सुंदरलाल आर्य) और बांसुरी (रवींद्र गुसाईं) ने अपने अपने विभाग बेहतर ढंग से संभाले। गायक कलाकारों ने सुरीले कंठों से सब का दिल जीत लिया। नृत्य प्रस्तुति में युवा कलाकारों की कोरियोग्राफी मनमोहक थी। हंसी गुसाईं की रूप सज्जा, दीपिका पांडेय और अंजु पुरोहित की परिधान परिकल्पना, मीता मिश्रा का प्रकाश प्रभाव की दर्शकों ने सराहना की। सभी कलाकारों की भूमिका सराहनीय रही।
चंदन डांगी का नाट्य संयोजन, पटकथा लेखक डॉ. कमल कर्नाटक की परिकल्पना एवं नाट्य निर्देशिका ममता कर्नाटक का निर्देशन, प्रोडक्शन मैनेजर अखिलेश भट्ट का समन्वय, पुष्पा तिवारी बग्गा का संगीत निर्देशन, दर्शकों को खूब भाये।
पहाड़ टीम अपनी अस्कोट-आराकोट यात्रा को छुटपुट कमियों के साथ नाटक के रूप में प्रदर्शित करने में मंच पर उत्साहित थी। उत्साहित होना स्वाभाविक है
अस्कोट-आराकोट अभियान- जारी रहेगा!…




