उत्तराखंडी सिनेमा और नेपाल का शुक्रिया

विपिन बनियाल
-नेपाल इन दिनों सुर्खियों में है। भारत के साथ उसके संबंधों पर बहस छिड़ी है। रोटी-बेटी के संबंध उत्तराखंड भी अपने हिसाब से तौल रहा है। इन स्थितियों के बीच 42 वर्ष पुराने उत्तराखंडी सिनेमा का जिक्र भी है। नेपाली फिल्म इंडस्ट्री से जुडे़ उन दिग्गज फिल्मकारों का योगदान भी है, जो साथ ना खडे़ होते तो उत्तराखंडी सिनेमा की शुरूआत करना मुश्किल हो जाता।
यकीनन, पाराशर गौड़ वो भगीरथ हैं, जिन्होंने जग्वाल के रूप में उत्तराखंडी सिनेमा की गंगा को स्क्रीन पर उतारा है। मगर तुलसी घिमिरे, रणजीत गजमेर और प्रकाश घिमिरे साथ में न होते, तो जग्वाल की प्रतीक्षा को पूरा होने में न जाने कितना और वक्त लगता। दरअसल, पाराशर गौड़ की आंखों में वर्षों से पहली उत्तराखंडी गढ़वाली फिल्म का सपना पल रहा था। फिल्म की कहानी, उसका शीर्षक उन्होंने काफी पहले से सोचा हुआ था-जग्वाल। जग्वाल गढ़वाली शब्द है, जिसका हिंदी में अर्थ प्रतीक्षा है।
अब के मुंबई और तब के बंबई में पाराशर गौड़ जग्वाल के निर्माण को लेकर खूब भटके। हर किसी से मिले। रंगमंच से निकले पाराशर गौड़ खुद में एक बेहतरीन अभिनेता थे। फिल्म के लिए उन्होंने बजट भी जुटा लिया था, लेकिन फिल्म निर्माण से जुडे़ तकनीकी पक्ष के लिए उन्हें बेहतर टीम की दरकार थी। इसी बीच, उनकी तुलसी घिमिरे, रणजीत गजमेर और प्रकाश घिमिरे से मुलाकात हो गई। ये तीनों ही दिग्गज नेपाली फिल्म इंडस्ट्री में नाम कमा चुके थे। बंबई इसलिए आए थे, कि और यहां आकर उड़ने के लिए शायर और बड़ा फलक उपलब्ध हो जाए। इनमें तुलसी घिमिरे डायरेक्शन और एडिटिंग के मास्टर थे। रणजीत गजमेर गजब के म्यूजिक डायरेक्टर थे, जबकि प्रकाश घिमिरे का कैमरा वर्क कमाल का था। पाराशर गौड़ की इनसे मुलाकात दोस्ती में बदली, तो फिर ये सब जग्वाल की टीम का हिस्सा हो गए।
हिमालयी लोक समाज में जिस तरह की समानताएं होती हैं, उसको ध्यान में रखते हुए पाराशर गौड़ को यकीन था कि नेपाली मूल के ये दिग्गज अपनी भूमिकाओं को प्रभावी ढंग से निभा जाएंगे। हुआ भी ऐसा ही। मई 1983 को जब जग्वाल बनकर रिलीज हुई, तो पर्वतीय समाज में भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। दर्शक भाव-विभोर हो गए। जग्वाल सुपर-डुपर हिट हो गई। तुलसी घिमिरे ने कलाकारों से जबरदस्त काम लिया। रणजीत गजमेर ने उत्तराखंडी लोक धुनों पर आधारित बेहतरीन संगीत दिया। उत्तराखंडी सिनेमा के लिए यह किसी तोहफे से कम नहीं रहा कि पहली उत्तराखंडी फिल्म में पाश्र्व गायन अनुराधा पौंडवाल और उदित नारायण ने किया। दोनों तब नवोदित कलाकार थे, लेकिन रणजीत गजमेर ने उनसे फिल्म के लिहाज से शानदार काम लिया। सीमित संसाधनों के बावजूद जो अच्छा हो सकता था, प्रकाश घिमिरे ने वो फिल्म के लिए करके दिखाया। कनाडा में रह रहे पाराशर गौड़ मानते हैं कि जग्वाल के सफर में नेपाल के सहयोगियों का असाधारण योगदान रहा। उनके साथ आ जाने से बहुत सारी चीजें आसान हो गईं थीं।
वैसे, फिल्म निर्माण के क्षेत्र में नेपाल के सहयोग की चर्चा करते हुए एक और उत्तराखंडी फिल्म का ंिजक्र जरूरी है। इस फिल्म का नाम है-प्यारू रूमाल यानी प्यारा रूमाल। यह फिल्म वर्ष 1985 में रिलीज हुई। दरअसल, पहले यह फिल्म नेपाल में कुसुमो रूमाल नाम से रिलीज हुई। इसके बाद, इसे गढ़वाली में डब किया गया। इसके कुछ दृश्यों को दोबारा शूट किया गया, ताकि यह फिल्म उत्तराखंड के परिवेश में ढली हुई दिखे। किसी दूसरी भाषा में बनी फिल्म की उत्तराखंडी गढ़वाली बोली में डबिंग का यह पहला उदाहरण रहा। इस फिल्म को गढ़वाली में डब कराकर रिलीज करने का जिम्मा निर्माता शिवनारायण सिंह रावत ने उठाया। इस फिल्म में प्रमुख भूमिकाओं में नेपाली सुपरस्टार भुवन केसी, उदित नारायण और तृप्ति दिखाई दिए। स्टोरी, डायरेक्शन और एडिटिंग का काम उन्हीं तुलसी घिमिरे के कंधों पर रहा, जिन्होंने जग्वाल में योगदान किया था। इसी तरह, म्यूजिक डायरेक्शन की भूमिका में जग्वाल वाले रणजीत गजमेर ही रहे।
फिल्म निर्माता और अभिनेता शिवनारायण सिंह रावत के पास इस फिल्म से जुडे़ कई दिलचस्प किस्से हैं। रावत जग्वाल फिल्म के निर्माण में पाराशर गौड़ के सहयोगी रहे थे। उन्होंने फिल्म में डाॅक्टर का किरदार भी निभाया था। बकौल, शिवनारायण सिंह रावत-जग्वाल जिस वक्त तैयार हो रही थी, उसी वक्त तुलसी घिमिरे और रणजीत गजमेर ने कुसुमो रूमाल फिल्म को फ्रेम कर लिया था। उनसे बातचीत का क्रम आगे बढ़ा, तो यह तय हो गया था कि पहले इसे नेपाली में बनाया जाएगा। फिर इसे डब करके और कुछ दृश्य दोबारा से शूट करके उत्तराखंडी गढ़वाली बोली में तैयार कर लिया जाएगा। गढ़वाली के लिए इसका नाम प्यारू रूमाल भी उसी वक्त तय कर लिया गया था। रावत मानते हैं कि इस फिल्म ने भी उत्तराखंडी सिनेमा को ताकत प्रदान की।
दरअसल, उत्तराखंडी सिनेमा के मुकाबले नेपाली सिनेमा की जडे़ं काफी गहरी रही हैं। जहां उत्तराखंडी सिनेमा की शुरूआत वर्ष 1983 में जग्वाल से हुई, वहीं इससे 32 वर्ष पहले ही सत्य हरिश्चंद्र के रूप में नेपाली फिल्म दर्शकों को नसीब हो चुकी थी। हालंाकि यह फिल्म भारत में ही रिलीज हुई थी। नेपाल में बनकर वहीं रिलीज होने वाली पहली फिल्म आमा थी। यह फिल्म वर्ष 1964 में सामने आई। इस लिहाज से देखा जाए, तो नेपाली फिल्म इंडस्ट्री उत्तराखंड के मुकाबले कहंीं आगे रही है। जाहिर तौर पर नेपाली सिनेमा में स्थायित्व और परिपक्वता कहीं अधिक रही है। ऐसे में उत्तराखंडी सिनेमा के शुरूआती दौर में नेपाल का जो योगदान मिला, उसने पूरे उत्तराखंड के पूरे सिनेमा जगत को गति और दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन 42 वर्षों के सफर में उत्तराखंडी सिनेमा कई उतार-चढ़ाव के साथ आगे बढ़ा है। हालांकि उसका सुनहरा दौैर आना शेष है। यह सुखद है कि उत्तराखंडी सिनेमा के साथ नए अध्याय जुड़ रहे हैं। वर्ष 1983 में पहली उत्तराखंडी गढ़वाली फिल्म जग्वाल आई। इसके चार वर्ष बाद 1987 में पहली उत्तराखंडी कुमाऊंनी फिल्म मेघा आ आई। एक कमी लंबे समय से उत्तराखंडी जौनसारी भाषा में कोई फिल्म न होने के संबंध में थी। यह कमी भी वर्ष 2024 में मेरे गांव की बाट के रूप में पूरी हो गई। उत्तराखंडी सिनेमा के गुलदस्ते में अब गढ़वाली, कुमाऊंनी के साथ ही जौनसारी बोली-भाषा की फिल्म भी है।
उत्तराखंडी फिल्में अब खूब बनने लगी हैं। उत्तराखंड में आंचलिक भाषाओं को सरकार के स्तर पर सब्सिडी दिए जाने के बाद फिल्म निर्माण की गति तेज हुई है। गैर उत्तराखंडी भाषाओं की शूटिंग भी उत्तराखंड में काफी हो रही है। कहा जा सकता है कि फिल्मों लायक एक बेहतर माहौल बनता जा रहा है। इसी बिंदु पर रूककर विचार करने का वक्त है कि हम कैसे एक सार्थक प्रयास के साथ उत्तराखंडी सिनेमा को सही दिशा में आगे ले जाएं। नेपाली फिल्म इंडस्ट्री के अनुभव का उत्तराखंड को इस मोड़ पर भी लाभ मिले, तो यह सोने पे सुहागा जैसा होगा।