

बिहार चुनाव का नतीजा EVM में बंद हो चुका है, अब परिणाम का इंतजार है। परिणाम जो भी हो लेकिन ये निश्चित है कि इस बार बिहार चुनाव का परिणाम कई मायनो में इतिहास रचने वाला है, साथ ही यह देश के राजनीतिक भविष्य पर भी दूरगामी असर डालने वाला होगा।
बिहार चुनाव 2025 : 20 साल बाद भी नीतीश कुमार या बदलाव की बयार !
परिवर्तन की धरती बिहार राजनीति की वह उर्वर भूमि है जिसने देश को हमेशा राजनीति के नए आयाम दिए और आंदोलनो की जमीन तैयार की है। जहां देश को युगांतरकारी नेता दिए तो वहीं षडयंत्रों, दुष्चक्रों, जातीय समीकरणों, राजनीति और अपराध के गठजोड़ की प्रयोगशाला भी तैयार की। बिहार की धरती पर जब भी राजनीतिक- सामाजिक चेतना उबाल लेती है तो देश भर की निगाहें यहां के घटनाक्रम और बदलावों पर होती है। 2025 बिहार विधानसभा चुनाव का राजनीतिक रोमांच रोज नए शिखर छू रहा है। राजनीतिक बिसात बिछ चुकी है, योद्धा तैयार हैं, बिगुल बज चुके हैं, रणभूमि सज चुकी है और अपने रहनुमा चुनने के लिए बिहार की जनता एक बार फिर तैयार है। अपनी राजनीति के लिए हमेशा चर्चा में रहने वाला बिहार पिछले कुछ दशकों से विकास की दौड़ में देश के बाकी राज्यों से पिछड़ता दिखाई दिया है। शिक्षा, पलायन,रोजगार, पेपर लीक और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे यहां जनता के सपनों और आकांक्षाओं पर निरंतर कुठाराघात कर रहे हैं, फिर भी इस राज्य के लोग अपनी उम्मीदों को पाने के लिए हर रोज संघर्ष करते हैं और नाउम्मीदी के बीच भी एक उम्मीद को बचा कर रखते हैं, कि बिहार की यह तस्वीर एक दिन जरूर बदलेगी।
सामाजिक न्याय का नया अध्याय
पिछले 3 दशकों में बिहार में बदला तो बहुत कुछ लेकिन आम आदमी का जीवन स्तर फिर भी बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। तथाकथित “जंगल राज” से “कानून का राज” तक की यात्रा हुई। जिस यात्रा को नीतीश कुमार ने 2005 में शुरू किया था, और 20 साल से नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही बिहार की यात्रा जारी है। लेकिन यात्रा का जो उन्वान था वह अब अवसान की तरफ रुख कर चुका है। 20 साल के नीतिश शासन के बाद क्या इस यात्रा को पूरी तरह सफल या फिर असफल कहा जा सकता है? लेकिन इसकी समीक्षा से पहले 2025 में बिहार की बात के केंद्र में सबसे पहले नीतीश कुमार को लाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नीतीश कुमार लगातार 20 साल से बिहार राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। एक तरह से नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के लिए अपरिहार्य बने हुए हैं। भले ही जदयू कभी भी अकेले दम पर सरकार न बना पाई हो और पिछले 20 वर्षों में राज्य में गठबंधन की ही सरकार हो लेकिन हर गठबंधन में नीतीश कुमार ही सर्वमान्य मुख्यमंत्री बने रहे और सभी दलों की यह मजबूरी रही कि नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा जाए। हर चुनाव उन्हीं के चेहरे पर लड़ा भी गया। “सुशासन बाबू” से लेकर “पलटी मार” तक का उनका राजनीतिक सफर उबड़ खाबड़ रास्तों से गुजर कर भी 1अणे मार्ग पर स्थिर रूप से बना हुआ है। नीतीश ने षडयंत्रों का भी सामना किया, पार्टी को भी चलाया और राज्य में कई प्रयोग धर्मी परिवर्तन भी किये। अपनी साफ छवि और राजनीतिक शालीनता के कारण वह एक हद तक जनता के प्रिय भी बने रहे। भले ही बिहार आज भी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा हो लेकिन नीतीश कुमार को उनके श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता। लड़कियों की शिक्षा में उनके प्रयोग सफल रहे। साइकिल और पोशाक योजना से स्कूल जाती लड़कियों की तस्वीरों ने नई उम्मीद को जन्म दिया। आधी आबादी के लिए नीतीश हमेशा उनके हमदर्द और अभिभावक बने रहे। महिलाओं को नौकरी में आरक्षण देने की बात हो, स्थानीय निकायों और पंचायती राज में 50% आरक्षण हो,चाहे महिलाओं की मांग पर राजस्व की परवाह किए बगैर दृढ़संकल्प के साथ शराब बंदी लागू करना हो या फिर महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए जीविका दीदी जैसी योजना लाना हो नीतीश कुमार के फैसले प्रदेश के लिए उनके विजन का प्रतीक बने। यही वजह है 20 साल से महिलाओं के बीच नीतीश कुमार की जो पैठ या विश्वसनीयता है, ऐसी शायद ही किसी और नेता की होगी। पिछड़ों की राजनीति में भी नीतीश कुमार ने नए आयाम स्थापित किए। ओबीसी से निकलकर ईबीसी यानी अति पिछड़ा को सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में आगे ले जाना नीतीश कुमार की ही राजनीति थी, जिसने लालू यादव के बाद अति पिछड़ा और पसमांदा मुसलमान को राजनीतिक फलक में सामने लाने का काम किया। यही वजह है कि आज बिहार में ईबीसी इतना बड़ा फैक्टर बन गया है कि जन सुराज जैसी नई नवेली पार्टी ने भी सबसे अधिक सीटें ईबीसी को दी, तो महागठबंधन को भी मुकेश सहनी जो ईबीसी के मल्लाह जाति से आते हैं, उन्हें अपने उपमुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित करना पड़ा। कोई माने या ना माने यह नीतीश कुमार की ही ईबीसी राजनीति का लगाया पेड़ है जो आज फल दे रहा है, हालांकि इसकी शुरुआत कर्पूरी ठाकुर के समय में ही हो गई थी । बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने पहली बार बिहार में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू कर एक उदाहरण कायम किया था। जिसे बाद में आने वाले नेताओं ने आगे बढ़ाने का काम किया और आज हर दल को ईबीसी को उसका देय देना पड़ रहा है। ईबीसी के नेता भी अब अपने हक के लिए जिद पर अड़ने की हिम्मत दिखा रहे हैं, यही वजह है कि जब जाति जनगणना की बात हुई तो नीतीश कुमार ने बिना दबाव में आए बिहार में जाति जनगणना करवाई और जो नतीजे निकले उसने इस बात को और पुष्ट किया कि सत्ता और संसाधनों की मलाई वह खा रहे हैं जिनकी अनुपातिक आबादी सबसे कम है और पिछड़े जो संख्या में सबसे अधिक है वह अब भी हाशिए पर हैं। इन आंकड़ों ने इन जातियों को अपने हक की लड़ाई के लिए और भी उद्वेलित कर दिया है और यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि इस बार 2025 का चुनाव ईबीसी और पिछड़ा वर्ग की सत्ता प्रतिष्ठा स्थापित करने का भी संघर्ष होगा। जिस मल्लाह जाति से निकले मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का उम्मीदवार घोषित करना पड़ा है, बिहार में वो मल्लाह, केवट, निषाद जैसी जातियां लगभग 9.6% हैं, जो एक बहुत बड़ा वोट बैंक है। यह ईबीसी जातियां यह समझ रही हैं कि अब सत्ता पर उन्हें भी अधिकार मिलना चाहिए और वह अपने दम पर वहां तक पहुंच सके हैं। अपनी अस्मिता की पहचान, अपने राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक हितों के लिए अब वह लड़ाई लड़ रहे हैं। बिहार में जाति जनगणना 2023 के आंकड़े बहुत कुछ कहते हैं। बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी सबसे बड़ा समूह है, जिसकी आबादी 36% है। यादव 14.26% के साथ ओबीसी में सबसे बड़ा उप समूह है। अनुसूचित जाति (एससी) की आबादी 26% है मुसलमान की आबादी 17.7% है और अनारक्षित उच्च जातियां जिनमें में ब्राह्मण 3.65 प्रतिशत, राजपूत 3.45%, भूमिहार 2.86 प्रतिशत और कायस्थ 0.6 0% हैं।
बिहार में क्षेत्रीय दलों का जलवा कायम
2025 के लोकसभा चुनाव में सीधा मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच है। हिंदी पट्टी के राज्यों में अभी भी क्षेत्रीय दलों ने इतना वर्चस्व कायम किया हुआ है कि भाजपा के लिए क्षेत्रीय दलों की मदद लिए बिना चल पाना मुमकिन नहीं है,यही वजह है कि पिछले 20 साल से बीजेपी, जेडीयू और नीतीश कुमार की बैसाखी पर निर्भर है। इस बार भी एनडीए में बीजेपी के साथ जेडीयू, लोजपा (आर ), हम और आरएलएसपी जैसे दल हैं,तो महा गठबंधन में राजद, कांग्रेस, वीआईपी,आई पी व वामदल शामिल हैं। 2020 के चुनाव में भी दोनों गठबंधनों के बीच नजदीकी मुकाबला था। एनडीए 125 सीटों के साथ सरकार बनाने में सफल रहा तो महागठबंधन 110 सीट पाकर मात्र 15 सीटों से पिछड़ गया था। मुकाबला इतना नजदीक का था कि इन 15 सीटों पर महज 12,000 वोटो से महागठबंधन पीछे रह गया, हालांकि सबसे अधिक 75 सीटें और 23.1% वोट शेयर आरजेडी के पाले में गया था। इस बार भी मुकाबला दिलचस्प रहने की उम्मीद है।
बिहार की राजनीति में क्या है पी के फैक्टर
इस बार प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज ने चुनाव को कहीं-कहीं त्रिकोणीय बना दिया है। प्रशांत किशोर ने जन सुराज को बिहार में जात-पात की राजनीति से अलग दिखाने की कोशिश की है। पार्टी में गैर राजनीतिक लोगों को भरपूर जगह दी गई है, पार्टी में पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग को जोड़ा गया और टिकट भी दिया गया। चुनाव से कुछ समय पूर्व पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर ने एनडीए के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगाकर सनसनी फैलाने की भी कोशिश की और बिहार में शिक्षा, भ्रष्टाचार और पलायन को राजनीतिक मुद्दा बनाने का प्रयास किया । भले ही चुनाव से ऐन पहले उनके कुछ उम्मीदवार बीजेपी के दबाव में आ गए और अपनी उम्मीदवारी पीछे ले ली। चुनाव नजदीक आते ही पी के की धार भी कुछ कम होने लगी। जनता के बीच उनकी पार्टी के उद्देश्य और उनके क्रियाकलापों को लेकर संशय पैदा हुआ है और इस तरह के सवाल उठने लगे हैं कि क्या वे एनडीए को फायदा तो नहीं पहुंचा रहे ? पर इतना जरूर है कि उन्होंने बिहार के कुछ ज्वलंत सवालों को 2025 चुनाव के केंद्र में ला खड़ा किया है। इस चुनाव में उनकी पार्टी जन स्वराज ने भी दस्तक दे दी है और तीसरे विकल्प के रूप में खुद को पेश भी किया है। कहीं-कहीं मुकाबले को त्रिकोणीय भी बना दिया है।
एनडीए का पशोपेश !
एनडीए ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे को लेकर रणनीति बनाकर मतभेदों को कुशलता से शांत किया। चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के बागी तेवरों के बावजूद संतुलन साधने में कामयाब रहे और “हम सब एक हैं” की तर्ज पर सीटों का बंटवारा कर लिया लेकिन मुख्यमंत्री के सवाल पर एनडीए में कोई स्पष्ट राय नहीं है और न हीं हर बार की तरह नीतीश कुमार के नाम पर मुख्यमंत्री के लिए मोहर लगाई गई। बीजेपी अंदरूनी राजनीतिक खेल में जेडीयू को पटकने में लगी है। 2020 में भी चिराग पासवान के द्वारा वोट काटे जाने से जदयू को भारी सीटों का नुकसान हुआ और गठबंधन में जदयू की बड़े भाई की भूमिका पर भी सवाल खड़े होने लगे । सवाल नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर भी उठाए गए, सार्वजनिक मंचों पर उनके स्वास्थ्य को लेकर शंका उठी और उन्हें बीमार बताने की परोक्ष रूप से कोशिश भी हुई। पार्टी में गुटबाजी बढ़ी। जदयू के पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि पिछड़ों की पार्टी, जदयू का नियंत्रण अब अगड़ी जातियों के नेताओं के हाथ में चला गया है, जहां सारे फैसले संजय झा, ललन सिंह और विजय चौधरी ले रहे हैं। नीतीश कुमार का पार्टी पर नियंत्रण कमजोर होता दिखा, हालांकि उन्होंने बाद में मुखर होकर अपना विरोध जताया। लेकिन बीजेपी की चाल उल्टी पड़ सकती है, चुनाव के दौरान जदयू और नीतीश कुमार के लिए खासतौर पर महिलाओं के बीच हमदर्दी की एक लहर देखी गई।
आरजेडी और कांग्रेस के बीच खींचतान
उधर महागठबंधन में चुनाव से कुछ महीने पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में वोटर अधिकारी यात्रा के जरिए बिहार के मतदाताओं को अपने पाले में लाने की कोशिश की गई और महागठबंधन के पक्ष में हवा बनती दिखाई दी, लेकिन बाद में टिकट बंटवारे को लेकर राजद के अहंकार और अड़ियल रवैये ने खेल बिगाड़ दिया और गठबंधन में एकता की कमी दिखाई दी। पार्टी में समय पर टिकटो का बंटवारा न हो सका और राहुल गांधी भी प्रचार के मैदान में जल्दी नहीं उतरे। कृष्णा अल्लावरु भी यहां परिस्थितियों के शिकार होकर अक्षम दिखाई पड़े और उन्हें उनके पद से हटा दिया गया। हालांकि बाद में कुनबा बिखरता देख चीजों को संभाला गया और अशोक गहलोत को बिहार भेज कर सब कुछ ठीक करने की कोशिश की गई। जिसमें तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया। अब एक बार फिर महागठबंधन की गाड़ी पटरी पर आने लगी है और अब दोनों गठबंधनों के बीच मुकाबला चरम पर है। इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों के बीच दो राष्ट्रीय दल इस बार अपने लिए कुछ ज्यादा ही पाने की फिराक में हैं। बीजेपी जो इतने वर्षों में नीतीश कुमार के चेहरे पर राजनीति करती रही वह इस बार स्वतंत्र रूप से सबसे बड़े दल के रूप में सत्ता पाने को लेकर आतुर दिखाई पड़ती है। जिसके लिए उसने पिछले 5 वर्षों में पूरा होमवर्क किया है । जिसमें पिछड़ों को जदयू से तोड़ने की कोशिश व अगड़ो को अपने साथ जोड़ने की कोशिश भरपूर नज़र आती है। जेडीयू भले ही कमजोर हुई हो लेकिन पिछड़ा वर्ग खास तौर पर ईबीसी और महिलाओं में नीतीश कुमार का जादू अब भी बरकरार है। यदि चुनाव बाद भाजपा कोई चाल चलती है तो नीतीश कुमार भी कोई नया खेल दिखा सकते हैं। संभावनाएं हर तरफ हैं! यही वजह है कि बीजेपी हर कदम फूंक फूंक कर रखना चाहेगी। कांग्रेस भी अब राष्ट्रीय दल के रूप में बिहार में एक बार फिर अपनी जड़े पसार रही है। राहुल गांधी ने कांग्रेस को रिवाइव करने का पुरजोर प्रयास किया है, जो जमीन पर दिख रहा है। यहां कांग्रेस और राजद के बीच एक खींचतान भी नजर आती है। जहां राजद स्वयं को कांग्रेस के ऊपर रखकर निर्णायक भूमिका में रहने की कोशिश करती रही है तो कांग्रेस ने भी राष्ट्रीय दल के रूप में इस दबाव को स्वीकार नही किया क्योंकि बिहार चुनाव एक तरह से कांग्रेस के लिए भी अपनी ताकत बढ़ाने का मौका है। केंद्र में विपक्षी गठबंधन की कुल जमा सीटों में कांग्रेस की हिस्सेदारी 43 % की है। ऐसे में कांग्रेस का राजद के दबाव में ना आना यही दिखाता है कि कांग्रेस अब अपनी प्रतिष्ठा पाने के लिए समझौता करने के मूड में नहीं है। यही वजह है की आलोचना और गठबंधन में दरार की खबरों के बीच भी कांग्रेस ने अपनी हैसियत और सम्मान को दृढ़ रखा और संतुलित समझौता कर चुनाव में कदम रखा है।
अगर चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन आरजेडी से कहीं बेहतर रहा जहां कांग्रेस ने 9 सीटों पर लड़कर तीन सीटें हासिल की, जिसमें पप्पू यादव को भी मिला लिया जाए तो यह चार सीट हैं । इस तरह केवल 9.1 % वोट शेयर के बावजूद भी कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 33% रहा तो वहीं राजद 23 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल चार सीट ही जीत पाई और 22.5% वोट शेयर पाकर भी उसका स्ट्राइक रेट केवल 16.5% ही रहा। यहां आरजेडी को यह समझना होगा कि कांग्रेस बड़ा राष्ट्रीय दल है और वोटर अधिकार यात्रा के दौरान मिला जन समर्थन राहुल गांधी की ही वजह से था।
क्या दूरगामी होगा 2025 विधानसभा चुनाव का परिणाम ?
बिहार विधानसभा 2025 के परिणाम भारतीय राजनीति में दूरगामी प्रभाव डालने वाले होंगे। हिंदी पट्टी के राज्यों में जातीय समीकरण और आर्थिक पिछड़ेपन की चुनावी राजनीतिक बिसात बिछती रही है, अगर महागठबंधन इस चुनाव में एनडीए के विजय रथ को रोकने में कामयाब होता है तो संदेश साफ रहेगा की जाति के ऊपर विकास और ज्वलंत मुद्दे,जैसे रोजगार, पलायन, शिक्षा स्वास्थ्य और विकास को लेकर बिहार की जनता सजग है और उसने धर्म और जात के ध्रुवीकरण को चुनौती देने का काम किया है और अगर एनडीए विजय प्राप्त करता है तो यह बात एक बार फिर से स्थापित हो जाएगी कि नीतीश कुमार की छवि की प्रासंगिकता आज भी अपरिहार्य है। और, भाजपा का धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण और सवर्ण वोटरों के साथ जाति वर्चस्व की राजनीति आज भी बिहार जैसे पिछड़े राज्यों का पीछा नहीं छोड़ रही है। इस सबके बावजूद इस चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका भी एक महत्वपूर्ण कारक होगी । निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव की कसौटी पर मतदाताओं के द्वारा मतदान अधिकार के प्रयोग के साथ नए वोटर लिस्ट की विश्वसनीयता पर भी ये आधारित होगा।




