Uttrakhand

जी हाँ! मैं उत्तराखंड हूं 25 साल का युवा हो चुका हूं कभी कभी मेरे पुरखे घोर उपेक्षित लेकिन आत्मनिर्भर थे।

 

JAGESHWAR JOSHI, PRIMUNENT WRITER, CARTOONIST

जी हाँ! मैं उत्तराखंड हूं 25 साल का युवा हो चुका हूं कभी कभी मेरे पुरखे घोर उपेक्षित लेकिन आत्मनिर्भर थे। किसी की इमदाद की आवश्यकता नहीं थी..शत-शत नमन उन महान पुरखों को जिन्होंने पाहड़ काटे खेत बनाए।किसी ने तब उन पर पाहड़ तोड़ने के आरोप भी नहीं लगाए. हाड़ तोड़ मेहनत थी खूब घी दूध दही कोदा झँगोरा अन्नधन उपजता अनाज मोटा था स्वाद भरपूर था। सर उठा के कह सकता हूं मैं कभी किसी का गुलाम नहीं रहा और कभी भूखा नहीं सोया मेरे साथ सरकार नहीं प्रकृति थी। दुनिया की होड़ में शामिल नहीं था. मोटा अनाज कर मोटा कपड़ा पहनकर मैं खुश था.. मेरी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं थी.. मैं यह भी नहीं जनता था प्रतिस्पर्धा दुखों की जड़ होती है. यह भी नहीं जानता था विकास का अर्थ संसाधनों का दोहन है। कभी पूरा पहाड़ एक ही नारे से गुंजायमान था.। कोदा झँगोरा खाएंगे उत्तराखंड बनाएंगे न जातिवाद था पर वर्गवाद न था सब बराबर के गरीब थे अतीत में न मुगल यहाँ घुस पाए न अंग्रेज हमे लूट पाए.. हा देश आजाद हुआ गोरे गए काले अंग्रेज आए योजनाएं वे बनाते जिन्हें यह भी पता था कि पाहड़ में खाट कैसे बिछती लोटा कैसे टिकता है लागू बेगाने करते
आज मेरे पास अपना राज्य है न कोदा है न झँगोरा मंज़र बदल गया बंजर खेतों बस सूखी नहरे हम पर हंस रही हैं। खेतों से ढ़ोर-डंगर गायब सौल-सूँगर गूणी बंदर का राज है बदलाव हुए हैं पहले धकाधक बीड़ी सूतते अब पचापच खैनी थूकते है तब जंगल जलते कम ही जलते थे आज धू धू कर जल रहे हैं पहले तीज त्योहारों में खूब स्वाले पकोड़े बाड़ी डुबके बनाते आज चाउ मिन पिजय घर घर दस्तक दे रहे हैं घी दूध अन्न पाणी सब परदेश से आता है सरकारी राशन और खुद भी बाजारू हो चुका हूं. अब मेरे सपनों मे हिमालय नहीं बिग बाजार हैं हर तरफ धंधा धाणि चौपट पर नेतागिरी बढ़ गई है राजनीतिक रूप से हमने बहुत सारे लक्ष्य प्राप्त कर लिए लेकिन आर्थिक क्षेत्र में हमारी औकात ज़ीरो बटे सन्नाटा है.। मैंने कभी सपना देखा था अपना राज्य बनेगा तो खूब सारी नौकरियां पैदा होगी बाहरी भागेंगे हम सब नए राज में नौकर होंगे। आज हमारे पास नौकरी भी नहीं हर तरफ हाकम और हाकिम की भरमार है। पेपर लीक हो रहे हैं नये नेता बादलों की तरह फट के पैदा हो रहे हैं। नई नई नसले अंकुरित हो रही हैं मालिक बनने का तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था..पाहड़ के बाजार खंगाल कर देख लो हम मालिक नहीं बाजारू बेरोजगार जरूर हैं। आज खेत है हरियाली नहीं है मरघट भी खाली है अब कोई नहीं फुकता पित्रों ने लगणा भी किस पर है पित्रात्माओं ने भी लगणा किस पर है देवता भी कूच कर गए उनकी भी ब्रांडिंग हो रही है हरिद्वार भी दौड़ के आ रहे हैं पहले लोग आस्था से आते थे भक्ति से आते थे आज एंजॉय करने आ रहे हैं मैंने पहले बहुत कुछ पाया बहुत ही संसाधन है चौड़ी सड़क हैं पर्यटकों का रेला अपसंस्कृति का मुजरा चालू है इन सड़कों से क्या यही विकास है तो विनाश किसे कहते हैं कभी मेरा हिमालय प्राकृतिक संपन्नता का एक प्रतीक था आज ये उपभकतावादी संस्कृति का प्रोडक्ट हो गया है. पाहड़ की खुशी पहाड़ की तलहटी में है और बदहाली पहाड़ में है लेकिन नकारात्मक बातें करने से बढ़िया आओ हम इस महान दिन को याद रखें जब हमें अपना उत्तराखंड मिला था जिस तरह से पहाड़ खाली हो रहे हैं क्या यह कल ये पहाड़ किसी और का होगा। हम पर्यटक हो बेगाने हो जाएंगे.. पाहड़ के हालात व्यक्त करता पुराना आलेख
पहाडों में अब मौसमी गीत ही गीत हैं। बसंत बरसात और प्यारा जाड़ा तो है। जाड़ा अब उतना गुलाबी नहीं जैसे हुआ करता था।यदा कदा रिमझिम बरखा होती तो है. ज्यादा तो फट के ही बरसती है।कल-कल,छल-छल छोये खो से गये हैं। रितुराज बसन्त की रंगीन मिजाजी में वो रस नहीं है , फूल तो खिलते हैं।बस बेबसी लाचारी लिये। झरने भी झरते हैं। हवाएं भी चलती हैं। कुल मिला कर तासीर वो नहीं है जो हुआ करती थी। समय भी अलसाया और करवटे बदल रहा है। देर से सो रहा है और जाग रहा है। सब कुछ अव्यवस्थित । फिजा से नज़रें मिलि तो देखा फ्यूली के फूल मंद-2 मुस्करा रहे थे, नजरें उठाईे तो बुरांश ठहठहा कर हंस रहे थे बेमौसम । आश्चर्य!! अभी तो जनवरी भी नहीं है। मुझे उलझन में देख काफल पक्को और कारी कोयल मतवारी ने मेरी तन्द्रा तोडी ‘‘दादा, छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी…तुम बदल रहे हो हम भी बदल रहे हैं दुनिया बदल रही है। हीसरे किनगोडे.आडू-बेडू और भी न जाने क्या-2 पतली गली से निकल भागे है. देशी-विदेशी बाहुबलियों ने लंगर डाल सब को लील लिया है। अक्कड़-बक्कड़ का राज है। अब तो बस पलायन के गीत बाकी है वो भी परदेश में या पहाडों की तलहटी में बसे शहरों के पांच बीस्वा के मकानो मे या शीलन भरे पहाड़ी कस्बों में लिखे जा रहे हैं। लिख्वारो को भी तो कुछ करना धरना है। पहाडो मे कोई न तो पलायन के गीत हैं न हीं आवाह्न के गीत। कोई किसी को नहीं बुला रहा। हर तरफ मायूसी है।
सुने थे कभी सामने वाले जंगल से ठंडी हवा के झौके के साथ एक पर्वतीय बाला का लम्बे आलाप वाला गीत जिसमें विवशता तो थी पर सूकून भी …अब तो बस वहां से गर्म हवा का झोंका ही आता है-जंगल कट चुका है। सुना है वह सुरबाला अपने गबरू के साथ दिल्ली के विनोद नगर में रहती है। वहां तो एसे लम्बे आलाप वाले गीत के लिए स्पेस नहीं है..न ही हिम्मत। गुएर (ग्वाला) बंसीधर की मुरली की धुन पूरे जंगल घाटी को गुंजायमान करती तो कहते राहगीर भी चित्र लिखित हो जाते चाखुले पोथले नाच उठाते खग मृग नाच उठते पुस्तके ले लीलाधर बकरियों को चुगाता पाहड न तो कभी बेबस थे न ही किसी को बुलाते थे।मजबूर तो हम थे जो हमें यहां आना पडा था।
मेरे सामने वाले पर्वत ने मुझसे कहा मैंने कभी तुमसे कुछ मांगा? बदले में क्या नहीं दिया मैनें! ताजी हवा, ठंडा पानी और ठेर सारा सुख-चैन। मेरे ठीक सामने सूरजमुखी के फूल मेरी ओर देख जोर-2 से हंस रहे थे। शायद इस वजह से कि मैं इन सौगातों का अर्थ नही समझतां।
सुरेश बकरियों को पास के छोटे से बाजार के निकट जंगल में छोड,गप्पें हांकता,ताश की गड्डीयों को फंेटता अर सुड़-2 चाय के प्याल उड़ाता… लेकिन उसे बकरियों की सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं! उसे था सरकारी मुआवजे का भरोसा और मरी बकरी की कीमत का। उसे अपने साथ ताश पीटते फारेस्टगार्ड साहब पर पूरा भरोसा है। फारेस्टगार्ड साहब का नाम भी भरोसा है-भरोसानन्द। जिन्दा बकरी विकना तो रिस्की हे।
क्या वक्त था- नारायणी गांव के सिपाही गबरसिंह का काला सन्दूक पास के बस-अड्डे मे उतरता तो सारे इलाके में हलचल! मित्रमंडली दौड पड़ती थी उस ओर! …खूब बड़ा मरदाना था वो भारी बूटों वाला था। आस-पडोस,दोस्त-रिस्तेदार यहां तक कि खिद्मदगार भी गला तर कर लेते थे। वो दौर बीता अर समझ आयी तो उसने एक सरकारी शेर उन पर दे छोड़ा- बहुत लुट गये,अब न लुटेंगें हम- बस एक ही नारा पैसे दो अर बोतल लो।कीमत परिस्थितियों पर निर्भर। सुना है कि गब्बर सूबेदार हो गया है। अर ये भी सुना हे कि वे पहाड नहीं आते। इस स्टेटस के लोग पहाड़ नहीं चढते। ऐसा कोई प्रोटोकाल तो नहीं है!? बल्कि अब तो हवलदार क्या सिपाही भी यदा-कदा ढूढने से ही मिल पाते हें। आज तो यहां अगरू-बगरू या तंगहाल तानों के शिकार मोटी तनख्वाह वाले गरीब अध्यापक। जो सुगम-दुर्गम के सरकारी गीत नया गाते है अर नित गाते हैं। हां अपनी किस्मत के लिए सरकार को कोस-2 कर कई बोतलें पानी पी जाते हैं।चाय की दुकानें तो उनके विश्लेषकों के भरोसे हैं। इस मुद्दे पर भट्टी सा बुझा अलसाया चाय वाला भी बीस पच्चीस चाय बेच कर अपने को धन्य समझता हे। एक दिन यह भी दिखा पंच-परधान के कन्धे पर एक सरकारी बैग सज रहा था।पीछे एक हाकिम किस्म का आदमी तन के चल रहा था। इस तरह के आदमजात गावों में यदा-कदा ही दिखायी देते हैं। जिसे देख कर उछीन्डा गांव की मैडम जी की तो जान ही निकल गयी थी। पता चला कि वह इस इलाके का पंचायतमंत्री हैं। मैडम की जान पर जान आ गई बोली,‘‘कोई आता तो क्या कर लेता स्कूल में तो बच्चे ही नहीं हैं।’’ क्या जमाना था जब गांव मे रौनक ही रौनक थी। पहले तो रौले-खौलों में स्कूलें खुलीं। फिर लोग पढे-लिखे। सड़को का जाल बिछा. इन्हीं रास्ते से वे न जाने किस जहां में खो गये।

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