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Politics

पत्रकारिता का मरण और पेटकारिता का जन्म

SHYAM SINGH RAWAT

बात तब की है जब देश में पत्रकारिता जिंदा थी। जनता पार्टी की खिचड़ी सरकार के पतन और फिर इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने, तब 1986 में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने कई ऐसे लेख प्रकाशित किए जिनमें आरोप लगाये गए थे कि धीरजलाल हीराचंद अंबानी (जिन्हें लोग धीरूभाई के नाम से जानते हैं) की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कई अन्य गलत बातों के अलावा अपने शेयरों की कीमतों में हेराफेरी की, सरकारी करों की चोरी की और पॉलिएस्टर फीडस्टॉक के उत्पादन के लिए अपने लाइसेंस सम्बंधी नियम-कानूनों का उल्लंघन किया लेकिन फिर भी इस गड़बड़झाले पर सरकारी अधिकारी मौन रहे या उन्होंने अंबानी की ज़रूरतों के अनुकूल निर्णय लिये।

इसके बावजूद भी राजनीतिक बदलाव और चालाकी भरी तिकड़मबाजी के बूते धीरूभाई प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के करीब पहुँच गए।

उधर, इंडियन एक्सप्रेस की देखा-देखी अन्य अखबारों ने भी रिलायंस की हरकतों के बारे में तथ्य प्रकाशित करना शुरू कर दिया था। अब राजीव गाँधी कोई ऐसे राजनेता तो थे नहीं जो ‘अपने लोगों’ का धंधा चमकाने के लिए काम करें और यह कहें कि हमारे खून में ही व्यापार है, सो उनके नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने जाँच और कार्रवाई की, जिससे रिलायंस के मुनाफ़े में कमी आई। अपने व्यापारिक हितों की रक्षा तथा उत्तरोत्तर ऊँचा उठते रहने की धीरूभाई अंबानी की कोशिशों को धक्का लगा।

धीरूभाई की जीवनी—द पॉलिएस्टर प्रिंस के लेखक पत्रकार हैमिश मैकडोनाल्ड के अनुसार धीरूभाई अंबानी ने इंडियन एक्सप्रेस का मुकाबला करने के लिए प्रिंट मीडिया के व्यवसाय में उतरने की तैयारी की। इसके लिए उन्होंने कई अखबारों पर दाँव लगाए। पहले उन्होंने ‘द पैट्रियट’ में हिस्सेदारी हासिल की, जिसने एक्सप्रेस अभियानों के जवाब में धीरूभाई के मुख्य व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी और इंडियन एक्सप्रेस के प्रकाशक के करीबी दोस्त नुस्ली वाडिया पर तीखे हमले किए। नुस्ली वाडिया की माँ डिना वाडिया देश के सबसे बड़े कॉरपोरेट घराने टाटा परिवार की बहुत करीबी मित्र थीं।

धीरूभाई के इशारे पर उनके दामाद ने उपयोगी व्यापार और आर्थिक शोध ब्यूरो के होते हुए भी वित्तीय संकट में फँसे मुंबई से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘कॉमर्स’ को 1988 के अंत में इस योजना के तहत खरीदा कि जल्दी ही इसे मुख्यधारा के दैनिक में बदल दिया जाएगा।

फिर साप्ताहिक कॉमर्स का नाम बदलकर ‘ऑब्जर्वर ऑफ बिजनेस एंड पॉलिटिक्स’ कर उसे संपादक प्रेम शंकर झा के मार्गदर्शन में सौंप दिया गया। इसका प्रकाशन दिसंबर 1989 में शुरू हुआ लेकिन झा अपने उच्चस्तरीय संपर्कों के बावजूद भी धीरूभाई की ज़रूरतों को पूरा नहीं करते थे। इसी वजह से धीरूभाई को उनकी निष्ठा पर संदेह था। कुछ ही महीनों में झा ने अख़बार छोड़ दिया।

इसी दौरान हुए लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गाँधी की जगह रिलायंस विरोधी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार आई। उनके मीडिया सलाहकार के तौर पर धीरूभाई का ‘ऑब्जर्वर ऑफ बिजनेस एंड पॉलिटिक्स’ छोड़कर आए प्रेम शंकर झा को बना दिया गया। अब स्वाभाविक रूप से धीरूभाई के लिए यह बड़ी समस्या थी।

उधर ऑब्जर्वर ऑफ बिजनेस एंड पॉलिटिक्स में झा की जगह धीरूभाई द पेट्रियट के एडिटर-इन-चीफ आरके. मिश्रा को ले आए जिन पर वे वाकई भरोसा कर सकते थे।

वीपी. सिंह की सरकार असफल रही और एक साल के भीतर भंग कर दी गई। ऑब्जर्वर को न तो पाठक मिले और न ही लोगों का भरोसा। नतीजतन 10 साल बाद इसे औपचारिक तौर पर बंद कर दिया गया। धीरूभाई ने अखबार के सहारे रिलायंस के बारे में लोगों को विचार बेचने की जो आस लगाई थी, वह अधूरी रह गई।

सत्ता के साथ गठजोड़ करने के उनके प्रयासों से 1990 में ‘ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन’ (ओआरएफ) का जन्म हुआ जो धीरूभाई अंबानी के पुत्रों के बीच हुए बँटवारे के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र मुकेश अंबानी के हिस्से में आया और वर्तमान समय में संभवत: देश में सरकार का प्रशंसक सबसे बड़ा थिंक टैंक है। अपनी वेबसाइट पर ओआरएफ ने बताया है कि संस्था ने “1990 में व्यवहारिकता से प्रेरित विचार के तौर पर अपने सफर की शुरुआत की” लेकिन यह नहीं बताया कि इसका जन्म एक मरे हुए अखबार से हुआ है।

इसी दौर में जब मृणाल पांडे को बिरला समूह ने अपने अखबार ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ का संपादक नियुक्त किया तो उन्होंने 2000 में बाकायदा संपादकीय लिखकर कहा कि पत्रकारिता समाज-सेवा नहीं बल्कि एक धंधा है और हर व्यवसाई अपनी उन्नति चाहता है। यह प्रकारांतर से भारत में पत्रकारिता की मृत्यु की घोषणा थी।

और, साथ ही यह देश में सामाजिक सरोकारों के प्रति निष्ठावान पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को एक तरह से पूंजीपतियों के आगे घुटने टेक देने का न्यौता भी था कि उनकी दावतों का मज़ा लूटो। समय के साथ चलो और भाड़ में जाए जनता, अपना काम बनता।

भारत में मीडिया को अपने उच्च स्तरीय कॉरपोरेट हित-लाभ हेतु इस्तेमाल करने की शुरुआत करने वाले धीरजलाल हीराचंद अंबानी के सुपुत्र आज अपने पिता के ‘आदर्श’ पर चल रहे हैं।♦️

(ये विचार श्याम सिंह एकदा_जंबूद्वीपे के व्यग्तिगत विचार हैं यु के नेशन न्यूज़ हम्मेर्स नहीं है )

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