दिनेश जुयाल का असमय मर जाना मेरे लिए अपने खेत की किसी खड़ी फ़सल के ढह जाने जैसा है.
RAJIV NAYAN BAHUGUNA
दिनेश जुयाल का असमय मर जाना मेरे लिए अपने खेत की किसी खड़ी फ़सल के ढह जाने जैसा है.
कोई चालीस साल पुराने संबंध खत्म नहीं हुए बल्कि उन्हें एक लहर बहा ले गई, किसी और लोक मे
कोई सताइस साल पहले मिझे अचानक यूरप जाना पड़ा.
पासपोर्ट दफ्तर तब बरेली मे था, और कल्पना नहीं की जा सकती तब हाथों हाथ पासपोर्ट बनवाना कितना दुरूह था.
मैंने बरेली मे सबसे पहले उतर कर और पासपोर्ट दफ्तर से धक्के खा कर कलेक्टर या कमीशनर, शायद माहेश्वरि साहब के बंगले के गेट पर सुबह सुबह दस्तक दी.
उनके भृत्य ने मुझे कहला भेजा कि 11 बजे दफ्तर मिलिए.
चूंकि साहब से मैं थोड़ा बहुत पूर्व परिचित था, अतः अपमानित महसूस किया, और 11 बजे उनकी बजाय दूसरे माहेश्वरी, अमर उजाला के अधिष्ठाता राजुल माहेश्वरी के दफ्तर दस्तक दी.
उहोने कहा, मैं आपके साथ अपना एक आदमी भेजता हूँ.
जब तक आपका पासपोर्ट न बना, वह आपके साथ रहेंगे.
अमुक आदमी को देख मैं चौँका, अरे दिनेश जी, आप यहाँ?
वह तब अमर उजाला के बरेली एडीशन मे चीफ सब के नाते काम करते थे, लेकिन सारा जिम्मा उन्ही पर था.
वह किसी जिन्न की तरह मेरे काम मे जुट गये, और तीसरे दिन पासपोर्ट मेरे हाथ मे था.
दर असल 1985 के आसपास कभी, जब मैंने नवभारत टाइम्स पटना मे एक सब एडिटर के नाते ज्वाइन किया, तब मेरे एक हमउम्र मेरी टेबल पर आ खड़े हुए. बहुगुणा जी, मैं दिनेश जुयाल. आपका गढ़वाली हम वतन.
हम दोनों देर तक एक दूसरे के गले चिपके रहे.
वह तब रांची के किसी स्थानीय दैनिक मे काम करते थे, और मुझसे मिलने चले आये थे.
हमारी तब से उनकी मृत्यु पर्यन्त ब मुश्किल चार मुलाक़ातें थीं, लेकिन सोशल मिडिया के ज़रिये हम एक दूसरे से ता उम्र जुड़े रहे. उनकी मृत्यु पर्यन्त.
अलविदा मेरे हम वतन, हम इरादा और हम विचार.
दिनेश, मैं तुम्हें अपनी फ्रेंड लिस्ट से नहीं हटाने जा रहा हूँ.