पहाड़ को किताबों से समझें
देवेश आदमी
पहाड़ों की समझ केवल वहां की मिट्टी, पेड़-पौधों और पहाड़ी हवाओं में छिपी कहानियों से ही नहीं होती, बल्कि उनके इतिहास, संस्कृति और संघर्ष को जानने के लिए किताबें पढ़नी पड़ती हैं। पहाड़ कुछ वर्षों के सोशलमिडिया में नही हैं पहाड़ ताम्रपत्रों में लिखा हुआ कालखंड हैं पहाड़ वेदों पुरानों में एक अध्याय हैं पहाड़ हजारों वर्षों से गंगा में बह रहा हैं यहाँ के संगम में पहाड़ विशाल शिलालेखों की तरह चमक रहा हैं। आधुनिक समय में सोशल मीडिया और इंटरनेट ने हमें काफी कुछ दिया है, लेकिन जब बात आती है पहाड़ों को गहराई से समझने की, तो किताबों के बिना यह मुमकिन नहीं।
अगर आप उत्तराखण्ड से हो और अपनी जड़ों की तलाश कर रहे हैं या पहाड़ की खोज में हैं, तो आपको खुद पहाड़ में जाना होगा, उसके जंगलों में चलना होगा और वहां के साहित्यकारों को पढ़ना होगा। वहाँ के सामाजिक व्यक्तियों का संघर्ष पढ़ना होगा। किताबें, जो इन संघर्षों और कहानियों को अपने भीतर समेटे हुए हैं, वही असली पहाड़ की आवाज हैं।
उत्तराखंड के महान इतिहास और संस्कृति को समझने के लिए डॉ शेखर पाठक का साहित्य पढ़ें। उनकी किताबें हमें यह बताती हैं कि उत्तराखंड केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, बल्कि यह जीवन के संघर्ष, प्रकृति से प्रेम और आदमियों की कभी न हार मानने वाली आत्मा का प्रतीक है। अगर आपको उत्तराखंड क्यों जरूरी है, यह समझना है, तो शेर सिंह पांगती (शेर दा) के लेख पढ़ें। ये आपको इस पहाड़ी जीवन की अहमियत समझाने में मदद करेंगे। आप को अपने भीतर झांकने पर मजबूर करेंगी।
पहाड़ का असली साहित्य उस संघर्ष को दिखाता है जो यहाँ की भूमि, लोग और प्रकृति के बीच चलता आया है। कन्हैया लाल डंडरियाल की कविताएँ और गद्य इस पहाड़ की व्यथा को गहराई से उजागर करते हैं। वहीं, अगर एक शब्द में आप उत्तराखंड की आत्मा को जानना चाहते हैं, तो नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत सुनें। उनकी आवाज में पहाड़ की धड़कन है, वहाँ की प्रकृति की गूंज है। रुमुक से लेकर खुद तक की यात्रा आप नेगी जी के साथ करें।
पहाड़ों के संघर्ष को और अधिक करीब से जानने के लिए गौरा देवी को पढ़ना होगा। उन्होंने जिस बहादुरी और जज्बे से पर्यावरण को बचाने के लिए चिपको आंदोलन में भाग लिया, वह पहाड़ों के संघर्ष की मिसाल है। इसी तरह, चंद्र सिंह गढ़वाली और तीलू रौतेली जैसी हस्तियां हमारे इतिहास की गाथाएँ हैं, जिन्हें जाने बिना पहाड़ की परंपरा और गौरव को समझना संभव नहीं है। पौड़ी से लेकर लाहौर तक की गाथा बीर चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ चल कर सुनना होगा।
सोशल मीडिया पर इनकी कहानियां नहीं मिलेंगी। इसके लिए आपको किताबों की गहरी दुनिया में डूबना होगा। भानू प्रसाद सुखौती और विसन सिंह हरियाला जैसे लेखकों के लेखन से पहाड़ का ज्ञान मिलता है। मोहन दा जोशी को एकाग्रता से समझना होगा। पहाड़ का असली स्वरुप उस तप में है जो इन लेखकों ने अपने लेखन में उकेरा है।
पहाड़ को समझने के लिए गणेश गरीब, केलवा नंद और आनंद सिंह गुसाई जैसे पहाड़ प्रेमियों के जीवन को पढ़ना भी जरूरी है। जिन्होंने हमारे लिए अपना त्याग कर दिया। इन्होंने अपने संघर्षों से पहाड़ के जीवन को परिभाषित किया है। पहाड़ को न सिर्फ देखना, बल्कि उसकी आत्मा को महसूस करना, उसकी संस्कृति, उसकी मिट्टी, उसके लोग—सब कुछ किताबों में छिपा है।
हेमवती नंदन बहुगुणा की कहानी, चंद्र कुंवाए वर्तवाल की कविताएँ, श्रीदेव सुमन की क्रांति, और करणावती की धारदार कटार सब पहाड़ की जीवंतता के उदाहरण हैं। पहाड़ को समझने के लिए उसकी मिट्टी को घोलकर पीना पड़ता है, उसकी कहानियों को अपने भीतर बसा लेना पड़ता है। यही ज्ञान आपको पहाड़ को तृणभर समझने में मदद करेगा।
आज भी यह पहाड़ किताबों में जीवित है, जैसे कि टिहरी का दफन होना, या लोहारी और बिहारी गाँवों का डूबना। इन कहानियों को समझे बिना, उत्तराखंड के अस्तित्व को समझना मुमकिन नहीं है। इंद्र सिंह नेगी, राज कुमारी चौहान, और लीला चौहान जैसी हस्तियों को जानना पहाड़ की आत्मा को जानने के बराबर है। इनका जीवन, इनके संघर्ष और इनकी साहित्यिक धरोहर हमें उत्तराखंड के जौनसार को समझने में मदद करती है।
उत्तराखंड का साहित्य, उसकी संस्कृति, उसकी मिट्टी, हवा और पानी में बसा है। जैसे राही की वाणी में, जीत सिंह के गानों में, या कbuत्री देवी और बी. मोहन नेगी की रेखांकी रचनाओं में। मुकुंदी लाल की कलम और भगत दर्शन की सोच में भी इस पहाड़ की अनकही कहानियाँ बसी हैं।
विनसर प्रकाशन से छपने वाले साहित्य, धाद और समय साक्ष्य जैसे मंचों पर लिखे गए लेखों में भी उत्तराखंड की जीवंतता को महसूस किया जा सकता है। यह वही उत्तराखंड है जो दु गड्डा प्रेस में लिखा गया था, जो बीना बेंजवाल जैसी लेखिकाओं द्वारा रचा जा रहा है, और मुरली दीवान जैसे साहित्यकार उसे जिंदा रखे हुए हैं। मदन डुक्लान जैसे मंचीय कवियों द्वारा पुकारा जा रहा जगदम्बा चमोला के मुंगरेट में छिपा हुआ हैं। पहाड़ बीना बेंजवाल की आत्मा में छिपा हैं जिसे रमाकांत के कलम से शिल्प किया जा रहा हैं पहाड़ किशना बगोट के लतीफों में समाया द्वंध युद्ध हैं पहाड़ तोता राम घाटी में आज भी अपनों की बाट देख रहा हैं पहाड़ यहाँ के छोलियार के झगोले में वैसे ही घूम रहा हैं जैसे जिया रानी के घागरे में विद्यमान हैं महाड़ मसकबीन में हैं भोकुर मे भी हैं पहाड़ संघर्षों से तपा हुआ हैं। पहाड़ राम गंगा से काली नदी तक की सीमा नही अपितु गौमुख से गंगा सागर तक का जीवन हैं।
यह वही उत्तराखंड है आज जिसे प्रीतम भरतवाण अपनी आवाज दे रहे हैं। अनुरागी ने ‘ढोल सागर’ में लिख दिया था। मंचों पर चिन्मय शायर बयां कर चुके हैं। लोकेश नवानी धाद लगाकर पुकार रहे हैं यह वही धरती है जिसे हीरा सिंह राणा ने अपनी गीतों से और मोलू भरदारी ने अपने खून से सींचा है, पहाड़ गोपाल बाबू गोस्वामी की रचनाओं ने बांचा है। पहाड़ ग्रामजगत से कृषिजागत के सेवन से फलिभूत हैं।
इन सब की आवाज गाथा किताबों गीतों में पहाड़ की आत्मा, उसके संघर्ष और उसकी महक समाई हुई है। पहाड़ को समझना हो, तो किताबों की ओर लौटना ही होगा। पहाड़ आभाषीय दुनिया में बिंदु से भी छोटा हैं जब कि पहाड़ एक सिंध से पुराना और जवान हैं। पहाड़ किताबों में हैं अखबारों या पोर्टल में नही पहाड़ पोस्टर बैनर या रेडियो tv में नही हैं पहाड़ ताम्रपत्र पर लिखा एक कभी न खत्म होने वाला अनेछिक संघर्ष हैं।
निसंदेह, पहाड़ों की महक है- इन किताबों के पन्नों में।