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‘जल का समाजशास्त्र’ पहाड़ के संस्कार के अनुरूप गंगा के आस-पास लेखक के पदचाप!

नरेंद्र कठैत , वरिष्ठ साहित्यकार और सुविख्यात लेखक

अग्रज श्री उद्धव देवली की शुभांजलि प्रकाशन, कानपुर से छपी 368 पेज की इस पुस्तक का नाम है- ‘जल का समाजशास्त्र’! सरसरी तौर पर यदि देखा जाय- तो गंगा के प्रवाह के समानान्तर कुछ कालखण्डों में-निज अनुभवों से बुनी यह लेखक की आत्म कथा है।

यथार्थत: साहित्य के वृहद कैनवास में आत्म कथा या जीवन गाथा एक अलग विधा है। अक्षर पर्व के सितम्बर 2014 के अंक में ललित सुरजन ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि- ‘किसी व्यक्ति की जीवन गाथा का महत्व तभी है जब एक विराट फलक पर उसके उकेरने के लिए थोड़ी सी जगह मिल गई हो या मिलने की सम्भावना हो। आकाश की निःसीमता में सूर्य तो एक ही होता है, लेकिन एक छोटे से तारे की टिमटिमाहट के बिना आकाश का काम नहीं चलता। अगर आत्मकथा में वह क्षीण चमक भी न हो तो निरर्थक है।’

लेकिन पुस्तक ‘जल का समाजशास्त्र’ में आत्म कथा मात्र एक वाह्य खाका है। वस्तुतः पुस्तक में गंगा और उसकी अस्मिता से जुड़े प्रश्न ही नहीं बल्कि पहाड़ की बदलती आबो-हवा,मान मर्यादा ,जल-जंगल-जमीन एवं संस्कृति के बदलते तौर तरीकों को बड़ी बेबाकी से सामने रखा गया है।

आपने देखा -‘नदियों के किनारे अथवा संगम स्थल पर यदि दाह संस्कार हुआ होता है तो उस स्थान पर जली हुई लकड़ियां, राख का ढेर, कोयला, मृतक के कपड़े, शव पर लपेटी गई चादरें इत्यादि, प्लास्टिक के डिब्बे, कटे हुए बाल, दाढ़ी व सिर के बाल को साफ करने की ब्लेडें व दाह संस्कार में प्रयुक्त पत्थर के काले के काले पड़े ढ़ेरों को, लोग वहाँ आश्चर्य चकित करने वाली गंदगी को छोड़कर चले जाते हैं। कुल मिलाकर ऐसी स्थिति में आप संगम की क्या कल्पना करते हैं।’

आगे लिखते हैं कि ऐसी स्थिति में वे- ‘यदा कदा कर्णप्रयाग बस अड्डे से जाते हुये यात्रियों को मोटर से उतरकर पिण्डर नदी तथा अलकनंदा में जाने का रास्ता लो से पूछते हुये सुनता रहता था लेकिन उन्हें बजाया जाता कि नदी के किनारो में बहुत गंदगी है तथा जाने का रास्ता भी ठीक नहीं है, कहीं और से जल ले लो। इधर-उधर भटक कर जब यात्रियों को जल नहीं मिलता तो वे बसों में बैठकर प्यासे ही चले जाते थे। कर्णप्रयाग का पुराना बस अड्डा पिण्डर नदी से पाँच मीटर की दूरी पर स्थित है परन्तु नदी में जाने के समस्त मार्ग, नदी किनारे निर्मित भवन स्वामियों द्वारा बंद कर दिये गये हैं। स्टेशन पर क्षेत्रीय जनता, पर्यटकों व श्री बद्रीनाथ-श्री केदारनाथ आने जाने वाले तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु पानी की टंकी या अन्य साधन तक तक उपलब्ध नहीं थे। एक मात्र गोल पानी की टंकी जो बस स्टेशन के उपर स्थित है और वर्तमान में भी चल रही है वही नाममात्र को उस समय पेयजल की बस अड्डे के पास व्यवस्था थी। वह भी गर्मियों में प्रायः खाली ही रहती थी। उस समय ठंडे पेय की बोतलें भी प्रचलन में नहीं थी । और न ही प्रशीतक के साधन थे। … दिनांक 28 मई 1991 को वह दिना आ गया जब प्रातः 8 बजे पूजा अर्चना के बाद तत्कालीन नोटिफाइड एरिया कमेटी के अध्यक्ष स्व. श्री डी.के. नैनवाल जी के कर कमलों द्वारा ‘प्याऊ’ का शुभारम्भ किया गया।’

उधर – ‘असहय गर्मी चल रही थी, सूर्यदेव पूरे यौवन पर थे। एक दिन में 60-70 टिन के करस्तर जल की खपत होने लगी। जो नेपाली मजदूर नदी से पानी लाता था वह काम अधिक होने के कारण अधिक मजदूरी मांगने लगा। तथा जो कार्यकर्ता पानी पिलाने हेतु नियुक्त था उसके दायें हाथ में पानी देते देते दर्द होने लगा। यह कार्य वर्षाऋतु तक चलता रहा इस प्रकार हमने अपने सीमित संसाधनों से वर्ष 1991 से वर्ष 1994 तक चार वर्ष कर्णप्रयाग बस अड्डे में पीपल के वृक्ष की छांव में इन पवित्र नदियों का अमृत स्वरुप शीतल जल, प्याऊ के रुप में प्रत्येक वर्ष यात्रा काल में जन साधारण को पिलाकर अपने को धन्य समाझा।’

एक अर्थ पूर्ण कटाक्ष के साथ आप लिखते हैं -‘केवल आरती ही गंगा सेवक का कार्य नहीं है। आरती तथा गंगा को लोग अपने लिए प्रणाम करते हैं लेकिन दूसरों के लिये यह लोक काम नहीं करते। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप लोग आरती से अधिक सफाई में ध्यान देंगे तथा हमारा यह कार्य सफल माना जायेगा व गंगा सेवक नाम की सार्थकता होगी। … मैंने सबसे अनुरोध किया कि यदि स्वेच्छा से आप गंगा को प्रदूषण मुक्ति व पर्यावरण को बचाने में सहयोग करने हैं तो प्रत्येक रविवार को प्रातः 09 बजे से 01 बजे तक श्रमदान द्वारा गंगा सफाई के कार्यक्रम में आप सस्नेह आमंत्रित हैं साथ ही कुछ पोस्टर छापकर शहर में भी वितरीत होने है। मित्रो ! हमारा कार्य जनकल्याण हेतु सेवा भाव से संबधित है। हमें गंगा माता तथा जल संरक्षण हेतु सेवा करनी है अतः हमारा नाम भी गंगा सेवक है।…. हमें कोई आर्थिक लाभ या अन्य भौतिक लाभ होने वाला भी नहीं हैं। हमको गंगा के किनारों की सफाई करनी है।.’

जैसा कि आपके शब्द हैं! -‘दिनांक 14.01.2004 को निर्णय लिया जो कि आज तक कई गंगा सेवकों के श्रमदान द्वारा विभिन्न गतिविधियों से चलाया जा रहा है। हमारा यह प्रयत्न सफलतापूर्वक 09 वर्ष चलने के बाद भी वांछित सफलता प्राप्त नहीं कर पाया है। … संगम व उसके आसपास लगातार अवैध खनन का कार्य चलता रहता है जिसमें कार्यरत मजदूर वहाँ गंदगी फैलाते रहते हैं। मुख्य संगम स्थान पर भी लोग मल- मूत्र कर देते है। संगम व तटों पर दाह संस्कार के बाद की बची हुई गंदगी को छोड़कर चले जाते हैं जिस कारण वीभत्स गंदगी का साम्राज्य बन जाता है। नदियों के किनारे निडर होकर भवन स्वामी मल विसर्तन के गडडे बना रहे हैं। गंदी नालियाँ घरों से नदी में डाली जा रही है।’

ऐसा नहीं कि पूर्व में गंगा की साफ-सफाई के लिए प्रयत्न नहीं हुआ है। आपने थोड़ा पीछे का उद्धरण देते हुए लिखा- ‘136 वर्ष पहले 1883 में मासिक पत्रिका ब्राहमण के जून अंक में दिग्गज साहित्यकार और पत्रकार आदरणीय प्रताप नारायण मिश्र जी ने गंगा के प्रदूषण मा मामला उठाया था।….14 जून 1886 श्री राजीव गाँधी जी ने गंगा सफाई कार्य योजना का शुभारम्भ वाराणसी से किया। फरवरी 1991 में गंगा कार्य योजना के अंतर्गत यमुना कार्य योजना का कार्य भी प्रारंभ किया गया। …नमामि गंगे परियोजना का जुलाई 2014 में शुभारंम्भ किया।’ यह लम्बी कार्य योजना नहीं बल्कि गंगा की अकथ व्यथा है। आज भी गंगा को देखकर लगता है कि कोई उसे ऐंठता, नीचे मैदान की ओर खदेड़ता ले जा रहा है। सवाल यही है कि आखिर निदान क्या है?

इस समस्या के निवारण हेतु आपने लिखा है कि- ‘गंगा तथा अन्य नदियों के दोनो ओर, नदी के केन्द्र से 150-150 मी. के अन्दर किसी भी प्रकार का निर्माण अवैध घोषित किया जाना तथा जो निर्माण पूर्व में हुए हैं तथा जिनके पास वैध स्थान है उनको मुआवजा देकर अन्य स्थानों में शिफ्ट किया जाना चाहिए तथा इस क्षेत्र में कूड़ा कचरा या प्रदूषण की गतिविधि निषिद्ध की जाय।’ विचारणीय कार्य योजना है।

एक ओर गंगा का प्रदूषण दूसरी ओर आपने पहाड़ में विकास की लाभ हानि को भी करीब से देखा है। आपने लिखा- ‘देश को स्वतंत्रता मिलने के इक्कतीस वर्षो के बाद सन् 1978 में हमारे क्षेत्र को सड़क यातायात से जोड़ दिया गया। अब हमें पैदल मार्ग से चलने की आवश्यकता नहीं रही। शहरों से गाँवों में आवागमन बढ़ने लगा। सिल्वर, स्टील के बर्तनों, सोना-चाँदी के कारोबार करने वाले फेरीवाले गाँवो में जडे़ जमाने लगे। सीदे-सादे गाँव वालों के बहुमूल्य काँसे, ताँबे, पीतल के बत्रन तथा पुरानी धरोहरों के नक्कासी किये हुये बर्तनों को कौड़ी के दामों में ले गये। उन्होंने लोगों के नक्कासीदार हुक्के भी नहीं छोड़े। दे गये- सिल्वर व स्टील के सस्ते चमकदार पाॅलिश किये हुये बर्तनों को। ऐसे ही सोने-चाँदी के कारोबारियों ने किया। नकली आभूषण देकर शुद्ध सोना-चाँदी के आभूषणों को ठग कर ले गये। गाँव की बहुमूल्य उल्पादित वस्तुयें ये लोग थोड़े सिक्कों को देकर ले जाने लगे। गाँव में उत्पादित वस्तुयें गाँव में मिलनी दुर्लभ हो गयी।’ ये एक क्षेत्र विशेष की नहीं बल्कि समग्र पहाड़ की यही स्थिति है।

साथ ही-‘प्राचीन विद्याओं-औषधि व ज्योतिष से संबंधित… कई अन्य प्राचीन विद्याओं की पुस्तकें तथा धार्मिक पुस्तकें जो कि हस्तलिखित थी व घरों की बहुत बड़ी धरोहर थी इस नई संस्कृति के आगमन पर रिश्तेदारों को आरसे(मिठाईयों) की पैकिंग में प्रयोग हो गयी। अज्ञानता के कारण यह सब हो गया। सोचा कि इस विकास के युग में इनकी क्या आवश्यकता रह गयी है? और विकास के नाम पर हमारी प्राचीन संस्कृति भी समाप्त होने लगी।’

जल स्रोतो से बेरूखी भी आपने करीब से देखी – ‘अभी तक जो ग्रामवासी जल स्रोतों से अपने सिर में पारंपरिक तरीके से शुद्ध स्रोत का जल ढोकर ला रहे थे उनको घर के निकट नल के आने से बड़ी राहत मिलने लगी लेकिन बिना सिंचाई के कृषि बागवानी समाप्ति की ओर जाने लगी। अब विचार आने लगा कि क्यों न हम अपने मकान में ही पानी का संबंध ले लें। कौन स्टेंड पोस्ट पर जायेगा? और लोगों ने पानी के नल अपने- अपने मकानों के अंदर अथवा आंगन में स्थापित करा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पानी की निकासी सही न होने के कारण कुछ ही समय में जमीन धंसने लगी व घर के आँगन बैठने लगे। मकान की दीवारों पर दरारें पड़ने लगी। मकान की नींव में जल भरने लगा। ये भवन जो प्राचीन शैली के निर्मित थे उनकी तकनीक ऐसी नहीं थी कि यह सब सह पाते। नतीजा सामने आने जले। मकान खराब होने लगे। यदि कभी नलों की टूट-फूट हो गयी तो इसको ठीक करने का उत्तरदायित्व संबंधित सरकारी विभाग का ही होने के कारण उन पर ही निर्भरता हो गयी।’

सड़के बनी तो गाँवों की तस्वीरें बदली। जैसा कि आपने लिखा भी कि – ‘मोटर यातायात सुलभ होने के कारण गाँव-गाँव में छोटी-बड़ी दुकानें खुलने लगी। अब श्रम से रुपया बड़ा दिखने लगा। बाहरी क्षेत्रों से देनिक आवश्यकता की सभी वस्तुयें प्राप्त होने लगी। हद तो तब हो जब अन्य क्षेत्रों से कई-कई दिनों की बासी साग- सब्जी का लोग प्रयोग करने लगे और वह भी मनमानी दरों का चुका कर।… एक समय ऐसा भी था जब प्रत्येक परिवार बडे़-बुजुर्गाे के लिये तंबाकू का भी उत्पादन अपने बगीचे की एक क्यारी में किया करता था। मैंने स्वयं देखा है कि लोग तंबाकू को कूटकर उसमें सीरा मिलाकर टिन के कनस्तरों में रखकर वर्ष पर्यंत प्रयोग में लाते थे। गांव के विशम्भर काका जी खेती-बाड़ी में हमारी मदद करते थे। एक दिन वे चोक पर बैठकर हुक्के से तंबाकू पी रहे थे। मैंने पूछा कका जी क्या यह तंबाकू अभी भी स्वयं पैदा किया जा रहा है? वे बोले- यहाँ खाने की वस्तुयें पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तू तंबाकू की बात कर रहा है? यह तो दुकान से खरीदी हुयी तंबाकू की पिंडी है जिसे मैं पी रहा हूँ। अब वह समय नहीं रहा। उस तंबाकू का स्वाद ही अलग था।’

‘विकास’ तीन अक्षर का यह शब्द पहाड़ में बड़ा फूला-फला है। लेकिन क्या वास्तव में पहाड़ का भी भला हुआ है? आपने एक जगह लिखा है कि- ‘सभी कहते हैं कि विकास हुआ है और हो रहा है। विद्यालय खुल रहे हैं, अस्पताल खुल रहे हैं, सड़कें बन रही हैं, विधुत की लाइनें बन रही हैं, नलों से पानी को गाँव में पहुँचाया जा रहा है,राशन की दुकानें खुल रही हैं, दैनिक प्रयोग की वस्तुओं तथा सब्जी-भाजी की दुकानें खुल रही हैं, बैंक भी खुलने लगे हैं लेकिन एक बुनियादी व्यवस्था को बिगाड़कर ऐसे विकास की सीढियों को चढ़ना क्या ठीक हैं?’

इतना गहरे उतरकर वही लिख सकता है जिसने पहाड़ को गहराई से समझा है। एक जगह आपके मार्मिक शब्दों को पकड़ा है। आपने लिखा हैै कि-‘ चूँकी मैं नौकरी पर था फलस्वरुप मैं भी घर छोड़कर परिवार को जनवरी 1981 में अपने पैत्रिक गाँव देवल से हृदय में पत्थर रखकर, घर में ताला डालकर अपने साथ ले आया।’ लेकिन तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी आपने गंगा और उसकी धारा नहीं छोड़ी। यह भावना गंगा के प्रति आपके अगाध स्नेह को ही दर्शाती है।

सवाल यह नहीं कि- पुस्तक पर कोई चर्चा हुई है या नहीं हुई है? लेकिन यह बात बिल्कुल सही है कि – गंगा के आस-पास लेखक और उनके मित्रों की पदचापों की छाप निरर्थक नहीं रही हैं। साथ ही कटु सत्य भी यही है कि अगर जल -जंगल – जमीन और संस्कृति के संरक्षण की बात करनी है तो – टूटते, बदलते परिवेश को भी समझना जरूरी है। इस दृष्टि से भी पुस्तक ‘जल का समाजशास्त्र ‘ पठनीय है, संग्रहणीय है!

लेखक और प्रकाशक – दोनों को बधाई है!

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