न्यायालयों पर बीस साल से भी पुराने मामलों का बोझ क्यों है ?
भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश सी.वाई.चंद्रचूड़ को एक खुला पत्र
प्रो. नीलम महाजन सिंह
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड जी नमस्कार। आप नवंबर 2024 में सेवानिवृत्ति हो रहे हैं। आप द्वारा भारतीय जन-मानस की न्याय द्वारा सेवा करने के लिए हृदयातमक धन्यवाद। अभी सर्वोच्च न्यायालय में ही 80,000 मामलों की रिकॉर्ड लंबितता है। पिछले महीने आप ने 1973 के ‘केशवानंद भारती फैसले’ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित संविधान के मूल ढांचे को ‘उत्तरी सितारा’ (North Star) के रूप में वर्णित किया था, जो कि “संविधान के व्याख्याताओं व कार्यान्वयनकर्ताओं को मार्गदर्शन देता है; जब भी रास्ते में जटिल समस्याएं आती हैं”। माननीय चंद्रचूड जी, क्यों 76 वर्षों की आज़ादी के उपरांत भी, आज नागरिकों को न्याय, समयानुसार प्राप्त नहीं होता? ‘सत्यमेव जयते’ में कितनी बार ‘असत्य विजयी’ हो जाता है। भारत की राष्ट्रपति, महामहिम द्रौपदी मुर्मू ने आप सभी जजों से अश्रुपूर्ण आग्रह किया था कि आम जन को जल्द से जल्द न्याय मिले। डॉ. चंद्रचूड आप अपने शानदार प्रोफेशनल पारी के बाद, नवंबर 2024 में सेवानिवृत्त हो जाएंगें। आपकी न्यायिक सेवा के लिए, हम देशवासी आप के प्रति कृतज्ञ हैं। हमारी आप से विनती है कि आप सेवानिवृत्त होने से पहले, कुछ ऐसे न्यायिक आदेश पारित कर दें, जो कि भारत के ‘अन्त्योदय’, प्रत्येक जनमानस के लिए न्याय प्राप्त करने में सहायक हों। चूंकि न्यायपालिका को भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में नामित किया गया है, इसलिए भारत की न्यायपालिका ने देश के राजनीतिक व आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।भारतीय न्यायपालिका संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ, प्रहरी के रूप में कार्यरत है। सभी लोगों, भारतीयों व गैर-भारतीयों को समान रूप से, राज्य शक्ति के दुरुपयोग और मनमानी से बचाती है। भारतीय न्यायपालिका एक सामान्य कानून प्रणाली की देख-रख करती है, जिसमें देश के कानून को, मानदंडों और विधानों द्वारा परिभाषित किया जाता है। अच्छे सार्वजनिक प्रशासन को बढ़ावा देने में आप ने कानूनी प्रणाली में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। यदि कोई विवाद उभरता है, तो इसे आप अदालत में निपटाते हैं। भारतीय न्यायपालिका ने सक्रिय रुख अपनाया है, यह सुनिश्चित करते हुए कि मौलिक मानवाधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार रक्षा की जाए। हालाँकि, हाल के वर्षों में, कई अक्षमताओं ने न्यायपालिका की कार्य क्षमता को बाधित किया है। हमारे द्वारा किए गए शोध के एक सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 73% व्यक्तियों का मानना है कि पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है। डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ जी, आप ने नागपुर में कहा, “लंबित मुकदमों या फैसलों पर वकीलों की टिप्पणी करना चिंताजनक बात है”। आप अपने सख़्त फैसलों व टिप्पणियों को लेकर अक्सर चर्चा में रहते हैं। मीडिया ने भी आपको बहुत सराहा है। सीजेआई चंद्रचूड आप ने इस बार वकीलों की हरक़त पर टिप्पणी करते हुए उसे चिंताजनक करार दिया है।”न्यायपालिका तारीफ के साथ ही, आलोचना भी स्वीकार कर सकती है, लेकिन पेंडिंग केस या फैसलों पर वकीलों की टिप्पणी करना चिंताजनक है। ‘बार’ के पदाधिकारियों व सदस्यों को न्यायिक निर्णयों पर प्रतिक्रिया देते वक्त यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी ‘अदालत के अधिकारी हैं’, आम आदमी नहीं (officers of the court) हैं”। आपने कहा कि एक संस्था के रूप में ‘बार’ को न्यायिक स्वतंत्रता, संवैधानिक मूल्यों व अदालत की प्रतिष्ठा की रक्षा करनी चाहिए। अदालत व संविधान के प्रति निष्ठा रखें, बार मेंबर्स ! न्यायापालिका बार-बार अपनी स्वतंत्रता व गैर-पक्षपातपूर्णता, कार्यपालिका और निहित राजनीतिक हित से शक्ति के पृथक्करण के लिए आगे आई है। डा. चंद्रचूड, आप ने कहा, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता व बार की स्वतंत्रता के बीच गहरा संबंध है। एक संस्था के रूप में बार की स्वतंत्रता न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संवैधानिक मूल्यों और अदालत की गरिमा को बनाए रखने की आवश्यक है। भारतीय न्यायपालिका लोकतान्त्रिक ढांचे की रीढ़ है”। हालाँकि, न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हालाँकि कानूनों की भरमार है, लेकिन न्याय का पर्याप्त प्रसार नहीं है। हालाँकि, व्यक्तियों को न्याय प्रदान करने के लिए कानूनों को बरकरार रखा जाता है, लेकिन उनके परिणाम ज़रूरी नहीं कि न्यायपूर्ण हों। यद्यपि न्यायिक प्रणाली की प्रक्रिया की कमी, संरचनात्मक अकुशलताएं व मनमानी, देश में नकारात्मक सामाजिक, आर्थिक प्रभाव ला रही है, लेकिन मामला प्रबंधन प्रणाली की स्थापना, नीचे से ऊपर के दृष्टिकोण का पालन करना, अदालत के बुनियादी ढांचे में सुधार, छोटे अपराधों का गैर-अपराधीकरण, ‘अभियोजन समझौतों’ की शुरूआत, न्यायाधीशों की गुणवत्तापूर्ण नियुक्तियां करना और ‘मध्यस्थता, मिडिएशन और अतिरिक्त निपटान व्यवस्था’ को बढ़ावा देने जैसे प्रभावी नीति समाधान, उपरोक्त सभी बाधाओं को दूर करने में महत्वपूर्ण साबित हुए हैं। मान्यवर, साथ ही एक अधिक मज़बत, विश्वसनीय व कुशल न्यायपालिका की स्थापना, आप कर सकते हैं – जो निस्संदेह देश की रीढ़ है। जब कोई नागरिक आप के पास, न्याय की उम्मीद में न्यायालय आता है, तो उसे लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है या राज्य की शक्ति का दुरुपयोग हो रहा है या फिर उस पर झूठे मुक़दमे चल रहे हैं, लेकिन मुकदमेबाज़ी की लंबी अवधि के कारण पूरी प्रक्रिया वर्षों तक उलझी रहती है। फिल्म ‘दामिनी’ में अभिनेता सनी देओल का यह संवाद “तारीख पे तारीख तो मिली, न्याय नहीं मिला” (माई लॉर्ड, मुझे तारीख पर तारीख मिलती रही, लेकिन न्याय नहीं मिला)। डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, इसे आप भी उद्धृत कर रहे हैं। सबसे पहले यह कहा जा सकता है कि बार-बार स्थगन, माननीय न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी, पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश (वर्तमान में हेग में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश) द्वारा ‘रामरामेश्वरी देवी बनाम निर्मला देवी (2011) 8 एससीसी 249’ के मामले में पारित निर्णय का उल्लंघन है, जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि, “जिला न्यायालयों द्वारा स्थगन की मांग करने वाले वादी पर लागत (cost) लगाए बिना कोई स्थगन नहीं दिया जाना चाहिए।” दूसरी ओर, न्यायालयों द्वारा फ़र्जी, मनगढ़ंत आधारों पर लगातार स्थगन दिए जा रहे हैं। इससे न्यायपालिका की जीवंतता खत्म हो रही है व आम आदमी के मन में विश्वास भी खत्म हो रहा है। न्यायालयों पर बीस साल से भी पुराने मामलों का बोझ क्यों है? क्योंकि वे “तारीख-पे-तारीख” देते हैं! निराशापूर्ण, वादी भी थक जाते हैं व न्याय पाने की उम्मीद छोड़ देते हैं। क्या यह बात ठीक है डा. चंद्रचूड? यह देखना आम बात है कि जिला न्यायालयों के न्यायाधीश व मजिस्ट्रेट, बिना पलक झपकाए स्थगन दे देते हैं, जिससे मुकदमों में देरी होती है। अधिकांश अधिवक्ता ‘मुंशी या न्यायालय के प्रधान लिपिक’ से सुनवाई की अगली तारीख ले लेते हैं। यह पूरे भारत में दीवानी व फौजदारी मामलों के लिए आम बात है। ये कुछ ऐसे कारक हैं जिनकी जांच की जानी चाहिए। न्यायिक प्रक्रिया न केवल ‘डरावनी है बल्कि वादी के अनुकूल भी नहीं है’। वादी को वकील पर निर्भर रहना पड़ता है, जो ठीक है, लेकिन वकीलों को ‘न्यायालय के अधिकारी’ की तरह व्यवहार करना चाहिए। न्यायाधीशों के सामने तथ्यात्मक विवरण रखना ताकि वे ‘न्याय के सच्चे वितरण’ तक पहुंच सकें। अपने ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि, “बिना लागत व जुर्माना लगाए न्यायाधीशों द्वारा कोई स्थगन नहीं दिया जाना चाहिए”। यह लागत पहले से मांगे गए स्थगन से बढ़ती रहनी चाहिए। इससे न केवल अदालतों का समय बर्बाद हो रहा है बल्कि मामले लंबित भी हो रहे हैं। दरअसल, न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विद्या भूषण गुप्ता (सीएम संख्या 15288/ 2010) के फैसले की पुुष्टी की, जिन्होंने एक तुच्छ अपील दायर करने वाले वादी पर पचहत्तर हजार रुपये का जुर्माना लगाया था। न्यायमूर्ति विद्या भूषण गुप्ता ने कहा, “इस वादी का उद्देश्य मुक़दमे के दौरान बाधा उत्पन्न करना है। भ्रामक व झूठी जानकारी के कारण मुकदमा 18 साल से लंबित है।” अदालतों द्वारा स्थगन की तुच्छता के कारण अनिवार्य निषेधाज्ञा लागू हो रही है। यह बात सर्वविदित है कि तुच्छ मुकदमेबाजी न्याय के चक्र को अवरुद्ध कर देती है, जिससे न्यायालयों के लिए वास्तविक वादियों को सरल और त्वरित न्याय प्रदान करना कठिन हो जाता है। उन वादियों को एक कड़ा संदेश भेजे जाने की आवश्यकता है, जो ट्रायल कोर्ट के प्रत्येक आदेश को चुनौती देने की आदत में हैं, भले ही वह ठोस तर्क पर आधारित हो व उन वादियों को भी जो एक के बाद एक तुच्छ आवेदन दाखिल करते रहते हैं,” जस्टिस विद्या भूषण गुप्ता ने अपने ऑर्डर में अंकित किया। जस्टिस चंद्रचूड इस पत्र का मूल उद्देश्य भारतीय न्यायिक प्रणाली को प्रभावित करने वाली अंतर्निहित समस्याओं की जांच करना और इन समस्याओं के मूल कारणों का पता लगाना है। भ्रष्टाचार, पारदर्शिता की कमी, प्रौद्योगिकी का कम उपयोग, कानूनी साक्षरता की कमी, न्यायाधीशों की घटती आपूर्ति, न्यायपालिका व आम जनता के बीच बातचीत की कमी, लंबित मामलों का बैकलॉग, अभियुक्तों के विचाराधीन मामले व अंतर्निहित अक्षमताओं के लिए अधिक सूक्ष्म व्याख्यान प्रदान करने के लिए अधिक गहराई से चर्चा की गई है। हमारी रिपोर्ट में दो मानदंडों – सामाजिक व आर्थिक – पर विफल न्यायपालिका के प्रभाव को और विस्तृत किया गया है। दोनों मानदंडों के संदर्भ में तर्क का समर्थन करने के लिए पर्याप्त उदाहरण दिए गए हैं। अध्ययन नीतिगत सिफारिशें प्रस्तावित करता है, जिन्हें भारतीय न्यायिक प्रणाली में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए लागू किया जा सकता है ताकि पहले बताई गई बाधाओं को दूर किया जा सके और इन परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप होने वाले सामाजिक व आर्थिक परिणामों को संबोधित किया जा सके। शोध के निष्कर्ष में, भारतीय कानूनी प्रणाली व ब्रिटिश कानूनी प्रणाली के बीच एक तुलनात्मक केस स्टडी प्रदर्शित है, जिनके कानूनों से भारतीय कानूनी प्रणाली प्रभावित हुई व उन्हीं पर आधारित है। सारांशार्थ डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड जी, आप ये ऑर्डर दे कि कोई भी सिविल केस दो वर्षों में निर्धारित हो, तारीख पे तारीख पर जुर्माना लगाया जाए, तथा आम पारिवारिक मामलों को एक वर्ष में, मध्यस्थता द्वारा समाप्त किया जाए। जस्टिस चंद्रचूड, आप बिना बताये डिस्ट्रिक्ट कोर्ट का मूल्यांकन करें, आप को पता लगा जाएगा कि नागरिकों की क्या स्थिति है। न्यायाधीशों को सभी सुविधाएं प्राप्त हैं, वे जनमानस का ही तो धन है! मात्र भाषण नहीं, जस्टिस डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड; कुछ ऐसा लिखित आदेश पारित कीजिए, जिसे न्यायिक इतिहास के पन्नों में अंकित किया जाए। आप को भावी जीवन के लिए सभी भारतवासियों की शुभकामनाएँ।
(These views in the above letter/ article are personal views of प्रो. नीलम महाजन सिंह
वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, दूरदर्शन समाचार व्यक्तित्व, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स संरक्षण व परोपकारक)
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