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जब मेरा नाम सुनकर नारायण दत्त तिवारीजी ठिठक गए

चैट बॉक्स का स्क्रीन शॉट डालने से भी कोई फ़ायदा नहीं.
क्योंकि नैतिकता वश उससे सेकिंड पार्टी का नाम और चित्र हटाना ही पड़ता है, और तब छिद्रानवेशी चुटकी लेते हैं कि यह स्क्रीन शॉट ख़ुद बनाया गया है.

शंकालु, बेचैन और विश्वास विहीन आत्माओं को केवल ब्लाकिंग की खाई अथवा मृत्यु ही विश्राम दे सकती है.
मुस्तकिल यह कि कल रात मुझे पंजाब प्रान्त से फेसबुक मित्र का मेसेज आया कि उनके पास सड़क पर डामर बिछाने वाली उत्कृष्ट मशीन है और यह कार्य वह औरों से कम लागत पर करते हैं.

यदि मैं उन्हें उत्तराखण्ड में यह कार्य दिलवा दूँ, तो मेरे भ्रमण आदि का पूरा ख़र्च वह उठाएंगे.

मैंने सुबह उन्हें फ़ोन पर बताया कि अपने भ्रमण का ख़र्च उठाने वाली विभूति को मैं सदैव ढूंढता रहता हूँ. उनके द्वारा दान पाने का मैं उचित पात्र हूँ . लेकिन उनके कार्य सम्पादन के लिए मैं सर्वथा अनुचित पात्र हूँ.

प्रथम तो यह कि सड़क पर डामर अर्थात अलकतरा बिछाने वाले को मैं एक ज़ेब कतरा मानता हूँ.

मैं बगैर डामर वाली कच्ची सड़क का हिमायती हूँ.

लेकिन डामरीकरण तो होगा ही. अतः यदि मेरी चलती, तो उनके इस आकर्षक ऑफर का लाभ मैं अवश्य उठाता यदि मेरी चलती.

मैंने उन्हें बीस साल पुराना एक वाक़्या सुनाया.

विकास पुरुष कहे जाने वाले नारायण दत्त तिवारी तब राज्य के मुख्यमंत्री थे, और बिहार से मेरे एक पुराने परिचित ठेकेदार इसी तरह का प्रस्ताव लिए मेरे पास आ गये.

मैंने उन्हें वस्तु स्थिति बता दी कि तिवारी जी से मैं अवश्य सैकड़ों बार मिल चुका हूँ, लेकिन वह मुझे पहचानते तक नहीं हैं.

मेरे पिता की वह अवश्य सामने पड़ने पर अभ्यर्थना करते हैं, पर नाना कारणों से मन ही मन खुंदक खाते हैं.

मित्र मुझे फिर भी ले गये.

मैंने चार दिन पहले ही अपना एक लेख किसी से अनुवाद करा कर पायनियर में छपवा दिया था.

उसमें वर्णन था कि मूर्ख व्यक्ति ही तिवारी जी को विकास पुरुष मान सकता है.

उनका विकास सीमेंट, सरिया और लोहा लक्कड़ का जंजाल है.

वह पहाड़ विरोधी हैं, क्योंकि वह जब भी चुनाव हारे, उन्हें पहाड़ी लोगों ने ही हराया.

इसी लिए वह तराई में कारखाने खुलवाते हैं, और पहाड़ में थाने. ब्ला ब्ला ब्ला….

अपना यह लेख मैं ख़ुद ही तिवारी जी को दे भी आया, जिसे कुछ देर पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे लौटा दिया और कहा, इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहिये.

ब हर हाल. ठेकेदार मित्र मुझे लेकर पंडित जी पर पहुंचे.
भीड़ छंटने पर उन्होंने मेरे पिता के हवाले से मेरा परिचय दिया, तो तिवारी जी प्रेम से मेरा हाथ पकड़ भीतर की ओर ले चले.
इसी बीच दुर्योग के मारे मित्र ने कह दिया, सर, राजीव नयन बहुगुणा जी हमारे पुराने मित्र हैं, जब यह पटना में काम करते थे.

मेरा नाम सुन तिवारी ठिठक गये. उन्होंने आधा मिनट कुछ सोचा. शायद मेरा अशुभ नाम याद आ गया.

उन्होंने मुझे एक धक्का दिया, और भीतर बढ़ चले.
मैंने अभी अलकतरा मित्र से पूछा, क्या इसके बावजूद वह मुझसे सिफारिश कराना चाहेंगे?

( राजीव नयन बहुगुणा वरिष्ठ पत्रकार हैं , ये उनके निजी विचार हैं , लेख में )

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