लगी थी आग जब लाक्षा भवन में – कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?
वरिष्ठ पत्रकार , राजीव नयन बहुगुणा
अपनी गंगोत्री, रवाई, जौनसार और जौनपुर यात्रा के अंतिम चरण में मैं अभी प्रसिद्ध लाखा मंडल मंदिर के परिसर में बैठा हूँ.
यात्रा के विविध पक्षो का वर्णन मैं लोक रंजन, भाषा शिक्षण, अंध भक्त प्रताड़न तथा विषय वस्तु उद्घाटन को ध्यान में रख करता रहूंगा.
मैं अंध भक्तों पर तांत्रिक झक्कड़ बाबा की पद्धति अपनाता हूँ, जो झाड़ू, पत्थर, डंडा, जलती लकड़ी तथा चमरौँधा मार कर भूत उतारते थे .
लाखा मंडल की मेरी प्रथम स्मृति चालीस बयालिस साल पहले की है, जब भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री प्रफुल्ल नटवर भगवती यहाँ पधारे थे. उन्हें ngo किंग अवधेश कौशल ने बुलवाया था, जो उत्तराखण्ड में ngo की महामारी फैलाने वाले संभवतः पहले व्यक्ति थे.
मेरे पिता भी न्यायमूर्ति के सघन दोस्त थे, उन्हें भगवती का स्वागत बड़कोट में करना था, जबकि मुझे और लोक कवि घनश्याम सैलानी को यहाँ भेज दिया गया, जहां न्यायमूर्ति को हेलीकोप्टर से उतर कर जन सभा को सम्बोधित करना था. वह जन सभा सम्बोधित करने वाले संभवतः पहले और अंतिम न्यायमूर्ति थे.
उनके हेली से उतरते ही किसी लोकल नेता ने उन्हें सूचित किया , कि सुन्दर लाल बहुगुणा जी के बेटे भी यहाँ मौज़ूद हैं.
भाषा की समस्या के कारण वह बात को पूरा नहीं समझ पाये और उस ओर लपक गये, जहां एक समूह के साथ मैं खड़ा था.
मुझ समेत सब लोग न्यायमूर्ति के रास्ता भटकने पर दंग रह गये.
पास आने पर उन्होंने पूछा, व्हेर ही इज? तब तक मंत्री ब्रह्म दत्त भी पास आ गये थे, और उन्होंने अंग्रेज़ी में न्यायमूर्ति को वस्तु स्थिति समझाई.
मैंने झुक कर गढ़वाली में उनकी अभ्यर्थना की – जौ जस करी भगवती. सबकी दुःख बीमारी हरे माता. तेरु ध्यान जागला. तेरी जात रंचूला.
तब न्यायमूर्ति ने मेरी गाल पर एक स्नेह भरी चपत लगाई, और मेरी उंगली पकड़ अपनी कार की ओर ले गये.
मेरी दूसरी स्मृति कोई बीस साल पहले की है, जब स्थानीय मंत्री / विधायक मा प्रीतम singh मुझे यहाँ मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यक्रम वास्ते लाये. मैं तब चैनल आजतक के लिए काम करता था.
अकूत सौंदर्य वती रमनियों का महासागर देख तिवारी ओतप्रोत हो गये, और पायलट द्वारा बार चेतवानी देने पर भी वहां से हिले नहीं. वह शाम घिर आने पर भी काला चश्मा डाटे रहे. काले चश्मे से यह पता नहीं चलता, कि मनुष्य किसको ताड़ रहा है, और कितनी देर से ताड़ रहा है.
मुझे सूचना है कि इस मंदिर में दलितों का आबाध प्रवेश नहीं है.
मैं स्वयं भी ऐसे मंदिरो के भीतर नहीं जाता. तब देवता स्वयं मेरे पास बाहर आकर कहते हैं, क्या करूँ, इन लोगों ने मुझे भीतर ग्वाड़ रखा है.
मैं अहाते से ही देवता और दलित ढोल वादकों को प्रणाम कर लौट आया.
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं )