आयो घोष बड़ो ब्योपारी….
राजीव नयन बहुगुणा
नागतिब्बा शीर्ष के कंधे पर स्थित ऐन्दी नामक जगह पर कल रात मैं उस्ताद शूटर पिता – पुत्र नारायण सिंह राणा तथा जसपाल राणा के वन उपवन में था. उन्होंने वहाँ स्वयं तथा मेहमानों के वास्ते वहां अधिसंख्य टेंट कॉलोनी बसाई है, ताकि धरती पर सीमेंट कंकरीट कम से कम दबाव पड़े.
मेरा यहाँ अक्सर आवागमन रहता है, क्योंकि पानी से लेकर सब्ज़ी, दाल, चावल, आटा, मसाले आदि सभी कुछ स्थानीय है. उनका दोहन किया जाता है, शोषण नहीं किया जाता.
ग्वाले और कसाई में यही फ़र्क़ है कि ग्वाला गाय का दोहन करता है, और कसाई हाड़ मास सब निकाल लेता है.
लेकिन इस बार मैं सड़क के किनारे हमारे पहाड़ की एक अनमोल पादप किन्गोड़ा के ढेर देख सन्न रह गया.
पता चला कि बड़ा व्यापारी, सम्भवत रामदेव इस औषधिय पादप को मज़दूर लगा कर लूट ले जा रहा है.
दूर दूर नेपाली मज़दूर किन्गोड़ा को को जड़ से उखाड़ने पर जुटे हैं, और सड़कों के किनारे तो जेसीबी मशीन लगा कर किन्गोड़ा के लिए धरती की खाल खींची जा रही है.
जब जब रामदेव की दवाओं तथा अन्य उत्पादों में मिलावट की खबरें आती हैं, तब तब मुझे यह संतोष मिलता है कि वह कम से कम हमारी औषधिय वनस्पतियों से वंचित है.
जब वह अन्य चीज़ों में मिलावट कर रहा है तो किन्गोड़ा से बनने वाली दवा भी रंग डाल कर क्यों नहीं बनाता?
जो उसकी दवा खाता है, वही भुगते, न कि हम उत्तराखण्ड वासी.
रामदेव ने हम उत्तराखण्ड वासियों को नाना विध सताया है.
हमारे प्रदेश की पारम्परिक वैद्यकी को अपने प्रचण्ड बहुराष्ट्रीय तंत्र के द्वारा नष्ट किया. और अब हमारी दुर्लभ जड़ी बूटीयां खोद रहा है.
प्रश्न यह है कि क्या स्थानीय लोगों को किन्गोड़ा से बनने वाली दवा में दक्ष कर यही उनका उत्पादन नहीं किया जा सकता?
जैसा नारायण सिंह राणा अखरोट और सेब उगा कर कर रहे हैं.
स्थानीय कास्तकार प्रकृति का दोहन करेगा, शोषण नहीं.