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Uttrakhand

पहाड़ के सरोकारों पर बनी एक अर्थपूर्ण फिल्म-मेरु गौं

“मेरु गौं”
प्रो. सम्पूर्ण सिंह रावत (श्रीनगर) की कलम से।

पृथक उतराखण्ड राज्य को अस्तित्व में आए दो दशकों से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी और आत्मनिर्भर राज्य बनाने के जिन उद्देश्यों को लेकर पहाड़वासियों ने लम्बा संघर्ष किया था उन उद्देश्यों की प्राप्ति से हम अभी बहुत दूर हैं!राज्य के अधिकांश भागों से मूलभूत जरूरी सुविधाओं के अभाव के कारण जन पलायन जारी है ! परिणामत: खेती और खेती से जुड़ी आजीविका/रोजगार दम तोड़ रहे हैं!अनेक गांव जन शून्यता की कगार पर हैं और ‘भुतहा गांवों’ की संख्या में इजा़फा हुआ है! ऐसे संकट से निबटने के लिए व्यापक चिन्तन के साथ साथ हर स्तर पर गम्भीर और साझे प्रयासों की आवश्यकता है ! पलायन की समस्या को कम करने और उसे आधुनिक दौर में सुसंगत बनाने में जन संचार माध्यमों में ऑचलिक सिनेमा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है! किन्तु आँचलिक फिल्मों को अर्थपूर्ण, उद्देश्यपरक और प्रभावी ढंग से निर्मित और प्रस्तुत करने की आवश्यकता है!

गंगोत्री फिल्मस् के बैनर तले, राकेश गौड़ के द्वारा निर्मित व अनुज जोशी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मेरु गौं’ इस दिशा में एक सराहनीय और साहसिक कदम है! यह फिल्म न केवल लोक सरोकारों और खासकर पलायन के विमर्श और पीड़ा को परदे पर अत्यन्त रोचक और प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है, बल्कि राज्य से हो रहे पलायन से जुडे़ बेहद अहम और अनसुलझे प्रश्नों को उठाती है और उनसे उपजी सामाजिक-आर्थिक विषमताओं और समस्याओं के प्रति आगाह भी करती है ! यह फिल्म जहॉ एक ओर अपसंस्कृति के चंगुल से बचने, अपने रस्मों- रिवाज और भाषा को बचाने का आग्रह करती है, तो वहीं परिसीमन से घटती राजनैतिक हैसियत की ओर भी ध्यान खींचती है! अच्छी पटकथा ,सशक्त संवादों और बेहतर अभिनय के बल पर फिल्म के अनेक दृश्य मार्मिक और हृदयस्पर्शी बन पड़े हैं जिनसे दर्शक भावुक और अभिभूत हुए बिना नही रह पाते हैं! ‘मेरु गौं’ प्रारम्भ से अन्त तक अपनी तयशुदा दिशा की ओर बढ़ती दिखती है! बाक्स ऑफिस की चिन्ता और मोह में अपने मूल उद्देश्यों से कहीं भटकती नही! यह फिल्म इस तिलिस्म को भी तोड़ती दिखती है कि ज्यादातर गढ़वाली फिल्में रोमॉटिक और गीत संगीत के चर्चित मसालेदार फार्मूले के बलबूते कामयाब हो सकती हैं! देहरादून, कोटद्वार और ऋषिकेश में प्रारम्भिक प्रदर्शन के बाद दर्शकों से मिल रही की जबरदस्त प्रतिक्रियाओं ने यह साबित कर दिया है कि अथक परिश्रम और प्रतिबद्धता के बल पर पहाड़ के मूलभूत और ज्वलन्त मुद्दों पर बेहतरीन और कामयाब फिल्में बनाई जा सकती हैं!
राकेश गौड़,अनुज जोशी और उनकी समस्त यूनिट साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने गढ़वाली फिल्मों के सीमित बाजार और दर्शकों के बावजू़द लगभग बीस बरस के लम्बे अँतराल के बाद इस फिल्म से आँचलिक फिल्मकारों के हौसलों को एक नई उड़ान देने का प्रयास किया है!
मेरु गौं कहानी, पटकथा, संवाद अभिनय और अन्य तकनीकि पहलुओं की दृष्टि से एक बेहतरीन फिल्म है जो पहाड़वासियों को झझोड़ती है, भिगोती है..और उन पर गहरी छाप छोड़ती है !
मेरा मानना है कि नीतिकारों, संस्कृतिकर्मियों, प्रबुद्धजनों और आमजन द्वारा ऐसे अर्थपूर्ण और मौलिक बिषयों पर आँचलिक फिल्मों केे निर्माण और प्रचलन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जो प्रवासियों और नई पीढी़ को अपनी जड़ों…अपने गांवों से लगाव से और सम्मानपूर्वक जुड़ने को लालायित करें!

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