इन कारणों से अनूठे हैं प्रो. दाताराम पुरोहित ….जिन्हे चुना गया है प्रतिठित संगीत नाटक अकादमी पुरूस्कार हेतु

चरण सिंह केदारखण्डी

आदरणीय गुरुजी प्रो.दाताराम पुरोहित को प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुना गया है। उन्होंने उत्तराखंड की लोक संस्कृति और नाट्य शिल्प को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर जो सम्मान और स्वीकार्यता दिलाई है, वह अनुकरणीय और अप्रतिम है।
साहित्य, समाज और संस्कृति की विद्वता के साथ -साथ उनके व्यक्तित्व की सरलता अनायास ही आपको उनका मित्र और परिचित बना लेती है, उनके साथ कुछ समय बिताने वाला आदमी उनके लिए कभी अजनबी नहीं रह सकता…

मेरी दृष्टि में निम्नलिखित कारणों से गुरुजी का योगदान अप्रतिम और अनुकरणीय है–

1.प्रो.पुरोहित ने 1980 के दशक में लोक संस्कृति के संरक्षण के गुरु-गंभीर प्रयास उस समय प्रारम्भ किये जब आज की तरह संस्कृति बाज़ार की चौंधियाहट और रोजगार का जरिया नहीं थी । गले में ढोल डालकर हिमालय का सांस्कृतिक नाद-निर्झर उन्होंने उस समय छोड़ा जब ढोल का स्पर्श कथित बड़ी जातियों को दूषित कर देता था… उनका संस्कृति प्रेम बाज़ार के दबाव और रोजगार या प्रसिद्धि पाने के लोभ से प्रेरित नहीं था /है।
आजकल बहुत सारे लोग लोकसंस्कृति का तमाशा इसलिए कर रहे हैं कि इस क्षेत्र में पैसा और प्रसिद्धि दोनों सुलभ हो गए हैं… रातोंरात ‘वायरल’ होने का लोभ है, इसके विपरीत पुरोहित जी ने शुरुआती दौर में समाज और विरादरी के ताने सुने, सहकर्मियों का उपहास झेला और लगभग फाकाकशी के जीवन में आज से 30 -35 साल पहले गाँव- गाँव पैदल घूमकर लोकसंस्कृति के संरक्षण और दस्तावेजीकरण का काम किया। चमोली, टिहरी, रुद्रप्रयाग और पौड़ी के कई गुमनाम संस्कृतिकर्मियों को सम्मान और पहचान दिलाई। जहाँ तक मेरी जानकारी है श्री प्रीतम भरतवाण को पहली बार जर्मनी जाने का अवसर पुरोहित जी ने ही दिया।

इसके अलावा उन्होंने युवाओं को बताया कि गढ़वाल विश्वविद्यालय में गढ़वाली में बात करना महापातक/कार्डिनल सिन नहीं है !
उन्होंने नंदा तत्व को न केवल अध्ययन किया बल्कि आत्मसात किया है। उनके रंग कर्म पर देवताओं के आशीर्वाद की झलक दिखती है…

  1. दूसरा बड़ा कारण यह है कि संघर्ष से योद्धा की तरह ऊपर उठे ज्यादातर पहाड़ी लोगों की तरह उनके जीवन का एक बड़ा अफ़सोस यह नहीं है कि वे अपने लोगों और अपने घर गाँव के लिए कुछ नहीं कर सके। प्रो. पुरोहित का पूरा जीवन स्थानीय जनमानस के साथ बीता है, लोक के जीवन मे जो सरलता और तरलता है, जो गंवई ठसक है उन्होंने हमेशा अपने आप को उससे जोड़े रखा… वे कभी ‘ब्रैंड’ नहीं बने।

3.सन 2000 की नंदा देवी राजजात को इस सांस्कृतिक यात्रा का वो पड़ाव कहा जा सकता है जब धार्मिक और सांस्कृतिक प्रसार की दृष्टि से राजजात वास्तव में “लोक जात” बनी। नेगी दा के जिस अल्बम ने हिमालय की सांस्कृतिक बेटी नंदा को घर -घर में चर्चा का विषय बनाया, उसका संकलन प्रो. पुरोहित ने ही किया था।

4.जोशीमठ क्षेत्र में सलूड डुंगरा गाँव के रम्माण उत्सव, केदारघाटी के गाँव-गाँव मे आयोजित होने वाले चक्रव्यूह और कमलव्यूह, केदारघाटी की पंडवानी, चमोली जिले के अनेक गांवों में आयोजित होने वाला मुखौटा नृत्य, जागर और ढोल शास्त्र पर उनके कार्य को सही अर्थों में अभी पहचाना जाना बाकी है।

5.चौरास स्थित लोक कला निष्पादन पीठ की संकल्पना को साकार करने के लिए उन्होंने जो सांस्कृतिक युद्ध किया उस पर अलग से नाटक लिखा जा सकता है …विद्याधर श्रीकला, शैलनट और पिछले डेढ़ दशक में लोक कला निष्पादन पीठ जैसी संस्थाओं के द्वारा गुरुजी ने अपनी विरासत में सांस्कृतिक ऊर्जा , प्रतिभा और संभावना से भरे हुए लोगों को तैयार किया है इसलिए उनकी खुशबू दीर्घजीवी होने वाली है…

लोक और लोकसंस्कृति उनके आचरण में दिखती है , हिमालय का बेलौस हास्य उनके व्यक्तित्व का ट्रेडमार्क है, वे flaneur हैं, उन्हें घूम घूमकर ज़िन्दगी से मुलाक़ात करना अच्छा लगता है।

उत्तराखंड में संस्कृति के दो प्रमुख केंद्रों में श्रीनगर और गोपेश्वर शामिल हैं। प्रो. पुरोहित का सम्मान इन दो नगरों का सम्मान भी है, जहाँ उनके शुभ संकल्पों को असीम आकाश मिला…जहाँ उन्होंने हिमालय के लोगों से अपनी रुमानियत की अनलिखी कविताएं लिखीं…

क्वीली का घाम मशहूर है, धन्य है ये धरती जिसे इस किवदंती पुरुष की मातृभूमि होने का गौरव हासिल है।

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