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Uttrakhand

२०१३ से भी भयंकर प्राकृतिक आपदा के मुहाने पर खड़ा है उत्तराखंड कह दिया भूगर्भ शास्त्रियों ने पहले ही, सुधर जाओ वरना प्रकृति खुद ही सुधार देगी, लिखते हैं पत्रकार वेद भदोला

सुधर जाओ, वरना प्रकृति खुद ही सुधार देगी!

चारधाम यात्रा अपने शबाब पर है। कोविड काल के बाद यात्रा के लिए मारामारी है। तीर्थयात्रियों का हुजूम चारधाम यात्रा के लिए उमड़ पड़ा है। इस बात की भी चर्चाएं हैं कि सरकार द्वारा यात्रा के लिए तय नियम एवं शर्तों का पालन हो रहा है या नहीं। लेकिन, सबसे अधिक चर्चाएं केदारनाथ धाम में यात्रियों की संख्या को लेकर है। इसके अलावा केदारनाथ जैसी संवेदनशील जगह पर मानवीय दखल को लेकर भी चर्चाएं हैं। केदारनाथ में कूड़े के निस्तारण पर भी चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं।

केदारनाथ की पहली तस्वीर 1882 में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग (जीएसआई) ने खींची थी। उस समय यात्रा के साधन सीमित थे, लिहाजा उच्च हिमालयी इलाकों में इंसानी दखल कम से कम थी। तब यात्री गौरीकुंड से सुबह-सुबह निकलते और केदारनाथ के दर्शन कर शाम तक वापस आ जाते।

अब केदारनाथ की दूसरी तस्वीर को देखिए। ये ताजा तस्वीर क्या कुछ कहती है। पहली तस्वीर के मुकाबले दूसरी तस्वीर केदारनाथ जैसे विकट इलाके में मानवीय दखल को दर्शाती है।अब जब यात्रा के लिए सभी साधन सुलभ हैं, तब केदारनाथ में रहने के लिए बेतरतीब निर्माण कार्य जारी हैं। वर्ष 2013 में आई आपदा के बाद केदारनाथ के सौंदर्यीकरण के नाम पर चारों तरफ कंक्रीट का जाल बिछा दिया गया है।

अब तीसरी तस्वीर पर गौर करें। भूगर्भशास्त्रियों और वैज्ञानिकों की तमाम चेतावनियों के बावजूद केदारनाथ में भारी-भरकम निर्माण कार्य सतत जारी है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि 2013 की आपदा में मंदाकिनी और उसकी सहायक नदियों द्वारा लाए गए बोल्डरों को यथास्थान ही रहने दिया जाए और उनका निर्माण कार्यों में उपयोग न किया जाए। लेकिन साल-दर-साल बढ़ते श्रद्धालुओं की संख्या के दबाव में केदारनाथ धाम में वैज्ञानिकों की चेतावनियों को नजरअंदाज किया जा रहा है।

इसके अलावा यात्रियों को धाम पहुंचाने के लिए चक्कर लगाते हेलीकॉप्टरों की धड़धड़ाहट से पूरी केदारघाटी गूंज रही है। आपदा के बाद केदारनाथ के पारिस्थितिक तंत्र को और असंतुलित करने और प्रकृति की नींद में खलल पैदा करने का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही मिले।

नदियों के रास्ते में लापरवाही से पुस्ते डालकर बना दी गई बसावटें, रास्तों पर जगह-जगह फेंकी गई प्लास्टिक की बोतलों और कचरे के अंबार और फिल्मी गानों की तर्ज कानफाड़ू गाने आखिर क्या इशारा करते हैं। यही कि हमें खुद को सुधारने की जरूरत है। नहीं सुधरेंगे तो देर-सबेर प्रकृति खुद ही यह इंतजाम भी कर देगी।

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