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Uttrakhand

हाई ब्रीड पेपर लीक सीड
और हमारे क्वालीफाईड बच्चों की तस्वीर!

डॉ. नरेंद्र कठैत , वरिष्ठ साहित्यकार , लेखक , भाषाविद

दिनभर की दौड़ धूप के बाद चौथे पहर आंख लगी। तभी देखा कि – कांधे छिलती भीड़ के बीच व्यंग्य श्री हरिशंकर परसाई। कुशलक्षेम पूछी और उनकी काया फुटपाथ की ओर साधिकार खींच ली। उसी हो हल्ले में उनसे पूछा – ‘आजकल विशेष क्या कर रहे हैं हरि जी?’
कहने लगे- ‘ 22 साल से बंजर पड़े एक खेत से पलायन के निशान हटाए हैं- सोच रहा हूं कि…। ‘ इसी बीच उनकी नजर कुछ दूर फुटपाथ पर ही बैठे एक व्यक्ति पर पड़ी। और उन्होंने तुरन्त ही टूटी बात जोड़ी – ‘लगता है मतलब की चीज मिल गई। ‘

पास जाकर देखा – उस व्यक्ति ने एक अखबार में कुछ वस्तुएं रखी हुई हैं। जैसे कि गाजर,मूली, धनिए, लहसुन के बीज, मक्खी, मच्छर,खटमट, कोकरोच मारने की दवाइयां और साथ ही कुछ ना-मालूम सी नीली,पीली, हरी शीशीयां और ट्यूब भी थी। इन्हीं में से एक शीशी हरिशंकर जी ने उठा ली। कलम श्री ने उस शीशी पर खुदा नाम पढ़ा- और अचरज से दृष्टि मेरी ओर गढ़ा दी।

मैंने साधिकार पूछा – ‘ क्या लिखा है परसाई जी?’

परसाई जी ने उत्तर दिया – ‘लिखा है पेपर लीक सीड”!! फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर पूछते हैं -‘ ये नाम तो पहली बार सुन रहा हूं जी! भाई क्या खासियत है इस बीज की?’

घनी मूंछों के नीचे से बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए उसने जवाब दिया- “बीज नहीं जनाब सीड कहिए! हाई ब्रीड सीड! ! हाई ब्रीड सीड है – तो कुछ तो अलग बात होगी ही।”

परसाई जी ने प्रतिप्रश्न किया- ‘लाला जी! तनिक खुलकर समझाओ भी?’

-‘हाई ब्रीड है जी! एक बार ख़रीदो और छुट्टी।’

-‘और जुताई, गुड़ाई, खाद पानी?’

-‘खरीदना ही जुताई, गुड़ाई, खाद पानी समझो जी।’

मैंने कहा -” परसाई जी! कहीं पढ़ा था कि मिश्र में हेरोडोटास के समय तक एक वक्त ऐसा भी था जब खेतों में जुताई नहीं की जाती थी। नील नदी की बाढ़ उतरते ही बीज बिखेर दिए जाते थे -और उसके बाद सुअरों को खोलकर दौड़ाया जाता था। ताकि इनके पैरों के दवाब से बीज नीचे धंस जाए -और चिड़िया आदि न चुगे।”

परसाई जी मेरे कथन पर हंसे। और हंसते हंसते ही बहुत कुछ कह गये- भाई कठैत! हमारे देश के सुअर अभी इतने हाई ब्रीड बुद्धि के नहीं हैं जितने तब मिश्र में थे। रही बात पेड़ पौधों और परिंदौ की- तो उन तक पहुंच बनाने के लिए मोहन कुमार डहेरिया की वागर्थ के जनवरी 2000 के अंक में छपी कविता की पंक्तियां आप भी सुन लें। लिखा है-

“कौन लिख सका है पेड़ों की यात्राओं का इतिहास ।
मनुष्य की समझ से बाहर है आज भी परिंदौ का मजाक।”

कहने का तात्पर्य यह है कि हम मिश्र की आबोहवा की तुलना अपने देश से क्यों करें? जबकि हम अभी उन्हें ही नहीं समझ सकें हैं जो सदियों से हमारे आसपास ही मिश्री घोल रहे हैं।

  • “आपका कथन सही है। लेकिन हमारी भी तो पौराणिक संस्कृति रही है । पुराणों से हमें बुद्धि विवेक की शक्ति मिली है। लिखा भी है कि कोई भी वस्तु खरीदने से पहले उसे परख लेना भी जरूरी है। लोगों ने तो मोरपंखी की पौध भी देवदार कहकर बेची हैं। अग्रज श्री! धोखे की गुंजाइश नजर और नीयत दोनों में रहती है। “

सुलगती बीड़ी को दो अंगुलियों के बीच दाबकर बड़े गर्व से उसने जवाब दिया – “बाबू साहेब! हमारे पुरखों ने एक बात कही है कि जुबान की भी कीमत होती है। आपके आगे जुबां झाड़कर कह रहे हैं- हाई ब्रीड है। लेकिन आप हैं कि मान ही नहीं रहे हैं। अब आप ही कहें आपको कैसे समझाएं?”

-‘लाले! क्या तुम्हारे कहने भर से ही हाई ब्रीड सीड समझ लें ? बताइए कौन सी तकनीक की यह ब्रीड है। दिखाइए कहां कम्पनी की सील है? बेच रहे हो लेकिन रेट लिस्ट भी नहीं टंगी है।’

इसी बीच परसाई जी को कहते सुना- “ठीक है! ठीक है!! भाई मान लिया हाई ब्रीड है। लेकिन यह भी तो बता दीजिए यह हाई ब्रीड सीड किस अनुसंधान से निकली है? क्योंकि इस शीशी में किसी भी अनुसंधान संस्थान या वैज्ञानिक का नाम भी तो नहीं है।”

बेचने वाले का सधा ज़वाब था-” देखो जी! हमने तो इतना ही जाना-सुना कि ये ‘पेपर लीक ब्रीड सीड’ हाकिमी की उपज है।’

-हाकिम कौन है?

-‘अभी ये समझो इस बोतल के अन्दर मौन है।’ इतना सुनते ही हम हंस दिए। उसने हमारी ओर गौर से देखा – और गंभीर होकर फिर बोल पड़ा-‘ आप क्या जुमला समझें हैं।’

परसाई जी हंसते हंसते ही उसकी ओर फिर प्रश्न ठोक दिए- “लाला! जुमलों की बात छोड़ो! वो तो सदियों से ज़ुबान पर चढ़ रहे हैं। पर ये बताओ इनके तने कितने लम्बे होते हैं?’

-‘आपने तने देखने हैं या फल चखने हैं?’

-‘भाई आसपास पड़ोसी भी तो हैं। ‘

-फिक्र न करें! हाई ब्रीड हैं- इसलिए कुछ सोचकर ही इनके तने इतने ही लम्बे रखें गये हैं- जितने से वे अपनी गर्दन सम्भाल सकें।’

  • “और जड़ें कितनी लम्बी होती हैं? ‘

-” झूठ क्यों कहूं जी कि मैंने देखी हैं। वैसे लोग खोज तो रहे हैं- लेकिन मालूम नहीं आखिर कहां तक धंसी हुई हैं। खैर सुना है जी! जैसे सबने वैसे हमने भी – कि इनकी जड़ नहीं बल्कि शाखाएं हरिद्वार, सहारनपुर तक फैली हैं। “

-“हैं!! भाई ये तो गजब बात सुन रहे हैं! अच्छा ये बताओ -ये हाई ब्रीड पेपर लीक सीड किस विधि से लगानी हैं ? ‘

-‘यही बात विशेष रूप से समझने की है- कि हाई ब्रीड पेपर लीक सीड लगानी कैसे है? ‘

मैंने जिज्ञासा प्रकट की-‘ यही तो हम पूछ रहे हैं?’

  • ‘देखो जी! वैसे तो इस मामले में ज्यादा जांचपूछ न करें। न मालूम कहां पूंछ छोड़कर आपको जांच छोड़नी पड़े। इसलिए पहली चीज यह है कि आप सब्र रखें। और मीट्ठे फल का इन्तजार करें। ये कोई मामूली बीज नहीं हैं । राह में फूल भी हैं तो कांटे भी हैं। समझे!!’

-“अरे बीज ही तो है-ग्लास वूल तो नहीं है कि चूभे। हां अगर इन्हें नंगे हाथों से छूने से किसी बिमारी का डर है तो हाथों में दस्ताने और पैरों पर गमबूट चढ़ा लेंगे !’

-“यही अति उत्साह आपकी गलतफहमी है। सुनो! ‘ हाई ब्रीड पेपर लीक सीड’ को खरीदने के साथ ही आपको यह ट्यूब भी हर हाल में खरीदनी है।” इतना कहते ही उसने एक ट्यूब परसाई जी को थमा दी।

परसाई जी ने अपनी अंगुलियों के बीच उस ट्यूब को चारों ओर घुमाया- जहां जो लिखा था सरसरी निगाह से पढ़ा- वजन परखा- फिर एक बार एक- एक शब्द को गौर से पढ़ा। लेकिन कहा कुछ नहीं – अचरज से मेरी ओर देखा। और मुझे ट्यूब सौंपते हुए कहा – “कठैत ! चश्मा आज घर पर ही रह गया। बिना चश्मे के पढ़ा नहीं जा रहा। पढ़ो तो – क्या है इस ट्यूब पर लिखा?”

मैंने बेहिचक पढ़ दिया -“हरामजादा!”

हरिशंकर जी ने फिर उसकी ओर प्रश्न दागा-‘ ये क्या बेच रहे हो दादा?’

-‘हरामजादा!’

-‘अरे मान मर्यादा का भी ख्याल रखो दादा! इस उम्र में ये शोभा नहीं देता! ‘

  • ‘हम अधनंगे हैं क्या?’ – ये शब्द वो एकदम तैश में कह गया। फिर फेफड़े में इत्मीनान से सांस भरकर शांत मन से आगे बोला-‘ फक्कड़ तबियत के हैं । मन में कुछ नहीं रखते। इसलिए जो लिखा है वो कह डाला। ‘

मैंने बात को सम्भाला- “इस ट्यूब में ये क्या कोई खाद है लाला?”

उसने उल्टा सवाल दागा-“इस ज़माने में इतनी सी ट्यूब में खाद मिलता है भला क्या? चलो मुझे बेचना है तो आपको बता देता – दरअसल इसका असल नाम है- ‘हरामजाद ! ‘ साले,अनपढ़, गंवार लोगों ने इसका नाम बिगाड़ा।’

-“लेकिन लिखा तो हरामजादा है।’

-‘ एक औंस कम ज्यादा होने से कोई हरामजादा कम या ज्यादा हो जाता है क्या?’

हरामजादा शब्द से ही छुटकारा करना चाहा- और पूछा -‘इसमें खास बात क्या है लाला ?’

-“दरअसल ये भी एक प्रकार की हाई ब्रीड क्रीम ही है। ‘

  • ‘हाई ब्रीड पेपर लीक सीड’ और ये ‘क्रीम’ क्या कोई निकट संबंधी हैं? मतलब कि जीजा-साला या मामा-भान्जे तो नहीं हैं।’

-“लो जी कर लो बात! इतने बीजों में कैसे कह दें कौन किसका संबंधी है और किसका नहीं। अब जैसे पेपर लीक सीड और इस क्रीम की ही बात करें। तो ध्यान रखें! पेपर लीक सीड को लगाने से पहले अगर आपके तन के किसी हिस्से से आपका ईमान जरा सा भी जागे – तो वहां फौरन ये ‘हरामजादा ‘ क्रीम लगाकर उसका मुंह बंद कर देना है। ये समझो आपके और इस हरामजादे क्रीम के बीच आप और आपके सुगर की बीमारी वाला मामला है।’

सुगर सुनते ही हरिशंकर जी ने फौरन चुटकी ली-‘ मालूम है! सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा डायबिटीज़ से मिलती है। इसका रोगी जब बिना शक्कर की चाय मांगता है और फिर शीशी में से एक गोली निकालकर उसमें डाल लेता है तब समझता है, जैसे वह शक्कर कारखाने का मालिक है। खैर बीमारी के साथ दवा भी जरूरी है। लेकिन आपकी इस क्रीम के साथ जुड़ा ये हराम नाम ठीक नहीं है ।’

-‘श्रीमन! अब हराम की कमाई ही फलदाई है। इसलिए यह नाम भी खूब चलन में है। हमने तो देखा नहीं पर लोग कहते हैं कि दुनिया के इस छोर से उस छोर- जिधर भी नजर घुम लो- ऐसा कोई हरामजादा नहीं जो हराम की नहीं खाता हो।’

मैंने जोड़ा -‘ परसाई जी ! आपको याद है नेहरू ने भी एक नारा दिया था-“आराम हराम है”!’

परसाई जी चुप कहां रहते। हाजिर जवाब में माहिर जो ठहरे। तुरंत बोले- “भाई कठैत! नेहरू के इस नारे पर किसी ने ये भी तो लिखा है कि- हराम उनके लिए कहा गया जो हरामी थे। काम करने वाले तब भी काम कर रहे थे,आज भी कर रहे हैं।” हमारे देश में बेकार निठल्ले आदमियों के पक्ष में तर्क देने वाले भी बहुतेरे हैं। कुछ तो यहां तक भी कहते हैं कि-“बेकार आदमी हैजा रोकते हैं -क्योंकि वे शहर की मक्खियां मार डालते हैं।”

-“बाबू जी! आपका जब कोई प्रतिकार करेगा तब ही तो हाथ उठाने की जरूरत होगी। क्यों अनावश्यक उसपर बहस करें। ‘

-अच्छा आपके पास और क्या-क्या है?’

-बहुत कुछ है। जैसे कि इन्हीं शीशीयों में एक शीशी में ऐसी ब्रीड भी भरी है- जिसके लिए रीढ़ ही जरूरी नहीं है।”

मैंने कहा -“परसाई जी आपने तो लिखा भी है कि “केंचुए ने अपने लाखों सालों के अनुभव से यह सीखा है कि रीढ़ की हड्डी नहीं होनी चाहिए।” तो हो सकता है इनकी शीशी में केंचुए जन्में। पर केंचुए भी तो काम करते हैं।”

-‘किसने कहा केंचुए काम के नहीं होते हैं। लेकिन दो मुंहे होते हैं। इसलिए विश्वास लायक नहीं होते हैं।’

-‘तो आपको निकम्मे और निठल्ले चाहिए जो हर घड़ी धूप सेंके। हमारे और आपके ऊपर बोझ बने। हमारे तो पांव वैसे भी कब्र में हैं।’

-“बाबू जी! भगवान की किरपा से आप तो अभी हट्टे कट्टे हैं। लेकिन यदि आप मेहनत ना भी करें तब भी मजे में रह सकते हैं।’

मैंने पूछा- कैसे?’

-इन्वेस्ट करें। हमारे पास स्कीम भी है।आप चाहें तो दो ‘ पेपर लीक सीड’ की शीशी के साथ दो ‘हरामजादे’ क्रीम फ्री ले लें। मर्जी आपकी सोच लें। होटल,मौल, रिसौर्ट आप भी खड़ा कर सकते हैं।”

-‘नहीं रहने दें। और सुनो!! आपसे भी अनुरोध है कि इन शीशीयों को फौरन दफन करें – और कोई ईमान का धन्धा खोलें। सुन रहे हो या और जोर से बोलें।’- परसाई जी रौ में बोल पड़े।

तभी पुरानी पीढ़ी की भीड़ छंटती है। जैसे की थोड़ा- थोड़ा धूप उतरती है। और एकाएक नई पीढ़ी की भीड़ उभरती है। हर किसी के हाथों में तख्ती है। जिनपर लगभग एक जैसी इबारत लिखी है – आवाज दो हम एक हैं! सबको रोजगार देना होगा! भर्ती घोटाले बंद करो! बेरोजगार एकता जिंदाबाद!

परसाई जी ने समग्र दृश्य को देखकर भावुकता में जो शब्द कहे- वे कुछ यूं थे – ” मैं देख रहा हूं नौजवानों के सर पर खून- और धसीं हुई आंखों में दफन आंसू। ऐसे में, मैं क्या दिशा दूं। विपक्ष है लेकिन जितने मुंह उतने ही रूप देख रहा हूं। विपक्ष के नौजवान पक्ष से गोरख पाण्डेय की कविता को सुन रहा हूं -” हजार साल पुराना है उनका गुस्सा/ हजार साल पुरानी है उनकी नफरत/मैं तो सिर्फ/ उनके बिखरे हुए शब्दों को/लय और तुक के साथ लौटा रहा हूं/ मगर तुम्हें डर है कि/आग भड़का रहा हूं।” और विपक्ष का बुजुर्ग पक्ष भले ही मौके पर है लेकिन ऐन वक्त उसे भी गश खाते देख रहा हूं। मैं स्वयं ही असमंजस में हूं आखिर मैं क्या राय दूं। चुनी हुई व्यवस्था है तो तमाम उलझे धागे व्यवस्था को ही क्यों न सुलझाने दें!”

-“आप ठीक कहते हैं। लेकिन लगातार हताशा, निराशा में हमारे नौजवानों चेहरे बूझ से रहे हैं।’

-‘नौजवानों को इतना भी कमजोर न समझें। मां की सरल, निश्छल,कर्मठ छवि इनको हर बार उठने की क्षमता देती है। यूं तो मां की वह छवि दुनिया में एक जैसी होती है। मां की वही छवि मैंने मैक्सिम गोर्की की ‘मां’ में भी देखी है। वह ‘ मां’ ही जो कहती है -“हमारे बच्चे दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं। मैं तो इसी प्रकार देखती हूं,वे सारी दुनिया में फैले गये हैं और दुनिया के कोने कोने से आकर वे एक ही उद्देश्य की ओर बढ़ रहे हैं। जिन लोगों के हृदय सबसे शुद्ध हैं, जिनके मस्तिष्क सबसे श्रेष्ठ हैं, वे पाप के विरुद्ध बढ़ रहे हैं और झूठ को अपने ताकतवर पैरों तले कुचला रहे हैं। वे नौजवान और स्वस्थ हैं और उनकी सारी शक्ति एक ही लक्ष्य -न्याय को हासिल करने के लिए व्यय हो रही है।” यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं है कि इनकी माताओं ने भी इनमें वहीं जीवन दृष्टि देखी है। क्यों…क्योंकि मां सबकी एक जैसी होती हैं। बोलो!! कोई बात ग़लत तो नहीं कह दी है?

  • ” एक ओर जहां बड़े बड़े दिग्गज तटस्थ हैं ,आप निर्भीक खड़े हैं। आपकी उपस्थिति मात्र से ही हम धन्य हैं। “

-‘ये एक कलमकार का फर्ज है कि उसे मरकर भी जिन्दा रहना है। सुनो गौर से- वे क्या कह रहे हैं?’

-‘जी सुन रहा हूं- राजमार्ग खाली करें! व्यवधान उत्पन्न न करें! शान्ति बनाए रखें!- ये माइक पर व्यवस्था की कड़क आवाजें हैं।’

-‘ऐसे समय में डा. राजेन्द्र प्रसाद याद आ जाते हैं। वे कहते थे-“दस हजार लोगों की सभा में आसानी से मैं सब लोगों तक अपनी आवाज पहुंचा सकता था। उससे अधिक संख्या होने पर परिश्रम करना पड़ता था। मेरा अनुमान है कि पन्द्रह हजार तक की सभा में यदि लोग शांत रहते तो मैं अपनी आवाज पहुंचा सकता, पर बहुत अधिक परिश्रम पड़ता और पेट में दर्द हो जाता।” ये उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखा। पर तब की बात और थी। अब दूसरों के लिए पेट दर्द कोई मोल नहीं लेता।’

_’परसाई जी! कितना अच्छा होता अगर हर चौराहे पर अहिंसा के पुजारी साक्षात खड़े होते।’

-‘आदमी हैं! वे भी तो कभी न कभी आंख मूंदेंगे। असल बात तो यह है कि जो सोये हैं वे कब जागेंगे? ‘

-‘क्या ये भी जोड़ दें कि जो जागे है वे कब तक पिटेंगे? वो देखो ! हमारी पलक झपकते ही कितना बुरा हुआ। वह नौजवान लहुलुहान हुआ। कहीं उसका थैला ,कहीं उसका जूता गिरा।’

-‘लहुलुहान हुआ-तो क्या हुआ? फिर भी उठा! लेकिन उसका जूता हरामजादा निकला। बुरे वक्त पर दगा दे गया। उठाना चाहा पर नहीं उठा। जूतों के समाज में भी ऐसे निर्लज्ज जूतों को कोई नहीं पूछता। जो भी निर्लज्ज एकता से कटा तो अकेला पड़ा और फिर सड़ा।’ ऐसा रोद्र रूप मैंने जीवन में कभी नहीं देखा।

शान्तचित्त धैर्य पूर्वक कहा-‘कलम श्री! आपकी कलम में ही नहीं अपितु जिव्हा में भी सरस्वती का वास है। आज का दिन हमारे लिए खास है। पुनः चरणवन्दन स्वीकार करें।” शीष झुकाया,देखा आप भौतिक स्वरूप में नहीं – तस्वीर में हैं। जीवन में पहली बार लगा कि महानुभावों की तस्वीरें भी बहुत कुछ कहती हैं।’

अब मेरे आगे दो पहर- लांघकर चटक धूप सर पर है। जानता हूं ये आंखे मलने का नहीं, आंखें खोलने का वक्त है। वे कहते हैं हमारे नौजवानों का भविष्य उज्जवल है। लेकिन- फिलवक्त इनका न कोई हरि है न शंकर है।

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