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Media freedom, assault of free press n journalists,ObituaryUttrakhand

हम तो ये कहते हैँ, गो रोती है दुनिया उनकोमर गये जो तिरे बीमारे फ़िराक़, अच्छे रहे

RAJIV NAYAN BAHUGUNA , Sr.journalist, columnist

कोई अड़तीस साल पहले शराब माफिया के हाथों मारे गये उत्तराखण्ड के उमेश डोभाल नामक एक पत्रकार को लेकर आजकल सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की धका धूम है.
उसकी जन्म तिथि अथवा पुण्य तिथि आने वाली है. और ऐसे में अनेक सरोकारी व्यक्ति उसे लेकर पोस्टों का गुबार उठा देते हैँ.
मैंने जब उसके बारे में पढ़ा, सुना और जाना, तब मैं नवभारत टाइम्स पटना में सब एडिटर के रूप में तैनात था, और वह पौड़ी जनपद में किसी क्षेत्रीय अख़बार का संवाददाता था.
वह एक औसत दर्ज़े का पत्रकार था, और उसकी कविता में भी रुचि थी.
उसकी विशेषता यह थी कि वह लगन शील तथा अतिशय सक्रिय था. अधि संख्य पत्रकारों के विपरीत उसे स्थानीय मुद्दों की समझ थी. और वह उन्हें रेखांकित भी करता था.
उसकी कमी यह थी कि वह शराब माफिया के साथ बैठ कर उन्ही की शराब पीता था, और उन्ही को रगड़ता भी था.
नतीजतन एक दिन तंग आकर और अवसर पाकर माफिया गण ने शराब पीते पिलाते वक़्त उसका गला टीप दिया, और लाश ठिकाने लगा दी.
उस वक़्त समाज में महत्व पाने के लिए किसी युवक के पास दो ही अवसर थे. या तो वह नेता बन जाये, अथवा पत्रकार.
अब अवसरों का विस्तार हो गया है. महत्वकांक्षी शिक्षित युवकों के पास प्रॉपर्टी डीलर तथा ngo बनने की सुविधा भी है. एक कैमरे वाला मोबाइल फ़ोन लेकर बिरजू मुयाल बनने के लिए तो अपार क्षेत्र फल उपलब्ध है.
अर्द्ध शिक्षित होने तथा भुखमरी की नौबत न होने पर आज उत्तराखण्ड का हर तीसरा युवक पत्रकार, समाजसेवी अथवा कट्टर हिन्दू है. यहाँ मूल प्रश्नों से भटक कर हुल्लड़ उठाने की पुरानी परम्परा है.
इसी कारण महिलाओं के त्याग तपस्या से उठा उत्तराखण्ड आंदोलन लम्पट और चकडैतों के हत्थे चढ़ गया था. नतीज़तन एक बीमार राज्य तथा लम्पट नेतृत्व हासिल हुआ.
गाँधी जी जहां भी अपने आंदोलन में लम्पटई होते देखते, तुरंत ही आंदोलन रोक कर लोक शिक्षण में जुट जाते थे.
अन्यथा आज़ादी मिलने पर तब भी नेहरू की बजाय कोई विश्व गुरू टाइप प्रधानमंत्री बन गया होता.
उमेश डोभाल के बहाने मैं चंद विनम्र निवेदन करना चाहूंगा.
मैंने वर्षों तक शराब पीने, बल्कि कई महासागर शराब पीने के बाद यह निष्कर्ष पाया, कि शराब के बगैर भी आप अच्छे पत्रकार बन सकते हैँ, यथा राजेंद्र मथुर.
यध्यपि शराब भी आपको भ्रष्ट और अनैतिक नहीं बनाती. शराब पीकर भी आप एक वज़न दार पत्रकार बन सकते हैँ, यथा मैं.
शराब यथा सम्भव स्वयं के पैसे से खरीदें. अन्यथा नेता, व्यापारी, ठेकेदार आदि अनेक पिलाने वास्ते उपलब्ध हैँ.
माफिया के साथ बैठ कर उसी के खिलाफ लिखोगे, तो वह तुम्हें चित कर के कभी अवश्य मार डालेगा.
नेता, बिल्डर आदि अधिक से अधिक पिटवाएंगे, जान से नहीं मारेंगे.
युवा पत्रकार मुख्य घटक के अलावा दूसरे का पक्ष भी छापे, चाहे वह हत्यारा ही क्यों न हो.
न्याय का यही तकाज़ा है.
सौ टंच खरे पत्रकार कुंवर प्रसून ने उस वक़्त कथित माफिया मन मोहन सिंह नेगी का पक्ष भी छाप दिया था , जिस पर उत्तराखंडी समाज ने काफ़ी ऐतराज किया जबकि प्रसून ने पत्रकारिता के बेसिक नियम का पालन किया था.
एक पक्षीय कभी न बनो. पापी का पक्ष भी छापो.
अपनी भाषा का वैभव अध्ययन और अभ्यास से विकसित करो. जो मेरे पास है, और उमेश डोभाल के पास नहीं था.
यह पत्रकारिता का मूल अवयव है.
किसी को अपना आदर्श बनाने के लिए उसके माफिया के हाथों मारे जाने की प्रतीक्षा मत करो.

(राजीव नयन बहुगुणा एक स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार हैं जो अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते हैं। वे सोशल मीडिया पर नियमित रूप से लिखते हैं। ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं )

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