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हमारे प्रोमेथियस, तुम्हें हम सादर नमन करते हैं!

श्याम सिंह रावत

यूनान का एक पौराणिक देवता था—प्रोमेथियस। वह जब स्वर्ग से धरती को देखता तो उसे मनुष्य बड़ी बदहाली में दिखाई देता। कभी उसके बच्चों को जंगली जानवर खा जाते, तो कभी वे भयानक शीत से ठिठुरते हुए मर जाते।

यह देखकर प्रोमेथियस विचारमग्न हो गया। उसने सोचा कि स्वर्ग में आग होने से देवता सुखी, शक्तिशाली और सुरक्षित हैं। यदि किसी तरह यह आग धरती पर इंसान के पास पहुंचा दी जाए, तो वह भी अपने बहुत-से कष्टों से मुक्त हो जाएगा परंतु आग पर तो देवताओं का एकाधिकार था।

प्रोमेथियस ने स्वर्ग से आग चुराई और उसे चुपके से धरती पर इंसानों को दे आया।

आग मिलते ही मनुष्य की रातों का अंधेरा उसकी इच्छा से दूर होने लगा, उस पर पका भोजन खाने लगा, सारे जंगली पशु-पक्षी उससे भय खाने लगे। वह भी देवताओं की तरह सुखी, शक्तिशाली और सुरक्षित हो गया। धरती पर मनुष्य के सुखी होने से देवताओं की पूजा-अर्चना में कमी आ गई। उनका यज्ञ-भाग बंद हो गया।

इससे देवताओं में खलबली मची और जांच की गई तो पता चला कि जिस आग पर उनका एकाधिकार था, वह धरती पर मनुष्य के पास पहुंच चुकी है। इससे वह देवताओं की आस त्यागकर आत्मनिर्भर होता जा रहा है।

देवताओं ने जांच-पड़ताल कर पता लगाया कि आग धरती तक प्रोमेथियस ने पहुंचाई है। प्रमथ्यु को दंडित करने के लिए पकड़कर देवताओं के राजा के सामने लाया गया। उसे कड़े से कड़ा दंड देने की मांग की जाने लगी। देवताओं में से ज्यादातर उसे मृत्युदंड देना चाहते थे लेकिन चूंकि देवता अमर होते हैं, तो प्रमथ्यु को सजा-ए-मौत देना संभव नहीं था।

आखीर में देवताओं के राजा ने प्रोमेथियस के लिए एक ज्यादा कष्टदाई सज़ा सुनाई। उसे स्वर्ग से निकालकर पृथ्वी पर लाकर मनुष्यों की बस्ती के पास कम ऊंची पहाड़ी पर एक सलीब पर टांग दिया गया। उसके शरीर में ठुकी कीलों से रक्त की धारा बह निकली। फिर असहनीय वेदना में टंगे हुए प्रोमेथियस के कंधे पर एक गिद्ध बैठा दिया गया।

यह गिद्ध दिनभर जीवित प्रमथ्यु का मांस नोचकर खाता लेकिन रात में जब गिद्ध सो जाता तो प्रमथ्यु का मांस फिर से भर जाता क्योंकि वह अमर देवता था। अगली सुबह गिद्ध फिर वही क्रम शुरू कर देता।

प्रोमेथियस की चीखें मनुष्यों की बस्ती तक पहुंचती रहतीं। सूर्योदय के साथ ही बस्ती वाले उस पहाड़ी पर के पहुंच जाते। वे दिनभर सलीब पर टंगे प्रमथ्यु का मांस नोचते गिद्ध को देखते, उसकी चीखों को सुनते, हंसते और शाम को फिर अपने घर लौट जाते।

उन्हें यह ख्याल जरा-सा भी नहीं आता कि जो प्रोमेथियस उनके लिए स्वर्ग से वरदान स्वरूप आग लाया और जिससे वे सुखी, शक्तिशाली और सुरक्षित हो गये, वह सलीब पर टंगा अपना मांस नुचवाते हुए असहनीय पीड़ा झेल रहा था और वे उसकी बेबसी का उत्सव मना रहे थे।
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यूनानी पौराणिक कथा यहीं समाप्त हो जाती है लेकिन हमारी कथा अभी बाकी है, वह कभी खत्म नहीं होगी। जरा गौर करेंगे तो पायेंगे कि इस कथा का नायक थोड़े-से हेर-फेर से हमारे आसपास ही मौजूद है। वे चाहे जीसस क्राइस्ट रहे हों या ब्रूनो, गैलीलियो, शम्स तबरेज, अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी या फिर कोई और। यह हर उस मनुष्य पर लागू होती है, जिसे कृतघ्न मानव-समाज ने सुखी जीवन के बदले मर्मांतक पीड़ा पहुंचाई, उन्हें तरह-तरह से सताया और मार डाला।

शायद वे ज्यादा सौभाग्यशाली थे कि उन्हें मार दिया गया लेकिन जवाहरलाल नेहरू अभागे थे, जो मरते दम तक देश की सेवा करते रहे। वे भारतभूमि पर देवताओं के स्वर्ग की आग लाकर यहां के मनुष्यों को प्रोमेथियस की तरह सुखी, शक्तिशाली और सुरक्षित बनाने के लिए दिन-रात परिश्रम करते रहे।

नेहरू के निधन के बाद हमारे ही बीच के कुछ स्वार्थी लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से उनके योगदान को भुला दिया और उनके पूरे किरदार को सलीब पर टांगकर गिद्ध की तरह उसे हर दिन नोच रहे हैं लेकिन वह तो अमरत्व प्राप्त देवता है, तो वह गिद्धों को चुनौती देते हुए फिर से जीवंत हो उठता है।

लहूलुहान और भयानक पीड़ा से चीखते-चिल्लाते अपने प्रोमेथियस का तमाशा देखती पहाड़ी पर खड़ी भीड़ तब भी खामोश थी और आज भी है क्योंकि वह तमाशा देखने का सिलसिला अब इतना लंबा हो गया है कि तमाशाइयों की नई पीढ़ी यह भूल ही गई है कि इस शख्स को किस बात की सजा दी जा रही है।

आज नेहरू की जयंती पर यह याद करना जरूरी है कि उस देवता का जुर्म यही था कि जब अंग्रेजी राज में वह सारे स्वर्गिक सुख-ऐश्वर्य भोग सकता था, तब वह आजादी के आंदोलन में कूद गया। जब नौजवान ही था तब वह उन लोगों में शामिल था जिनके प्रभाव में आकर उसके पिता ने अपना घर-मकान सब देश को समर्पित कर दिया था। वह उन लोगों में था जो पहली बार अपने पिता के साथ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाने के जुर्म में जेल गया था। वह ग्यारह साल जेल में बंद रहा। वह उन लोगों में था जो सरदार भगत सिंह से मिलने जेल गया और उनकी रिहाई के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा था। भविष्य का भारत कैसा होगा, किस तरह उसकी शासन-व्यवस्था चलेगी, इसकी रीति-नीति कैसी होनी चाहिए, इसे किस तरह सामाजिक-आर्थिक समृद्धि हासिल होगी, विश्व-बिरादरी के प्रति इसका व्यवहार कैसा होगा आदि-इत्यादि विविध विषयों पर वह इसका एक सशक्त ढांचा तैयार करता रहा था।

वह इतना दूरदृष्टा था कि जब दुनिया बमों के ढेर पर बैठी थी, वह तब भी विश्व-शांति के लिए प्रयत्न कर रहा था। उसके ही शांति-प्रयासों से कोरिया के गृहयुद्ध को अंतत: एक समझौते पर पहुंच पाया था। जब क्यूबा मसले पर अमेरिका और सोवियत संघ के बीच परमाणु युद्ध और तीसरी बार भयानक नरसंहार की सम्भावना से पूरी दुनिया भयाक्रांत हो गई तो उसकी पहल से ही उस विकट स्थिति को टाला जा सका था।

उसके बाद उसके मुकाबले का विश्वपटल पर राजनय का मर्मज्ञ, लोकतांत्रिक मूल्यों, निरस्त्रीकरण और विश्व-शांति का पक्षधर दूसरा पैदा नहीं हुआ। वह पूरे संसार में सम्मानित था और रहेगा क्योंकि वह अमर्त्य है लेकिन उसके अपने घर में बुद्धि-विवेकहीनों का एक गिरोह, हमारे उस प्रमथ्यु की वेदना से तब भी मनोरंजन कर रहा था और आज भी कर रहा है।

कृतज्ञ राष्ट्र आज उसी की जयंती मनाते हुए उसे श्रद्धापूर्वक याद कर रहा है।

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