हद है भुला!‘किताब कौथिक’ रोककर तुझे क्या मिला?

SAINNY AASHISH , SAHITYAKAAR
एक बार सुंदरलाल बहुगुणा मेरे पास किन्नौर के कल्पा पहुंचे थे, और कई बार विष्णु प्रभाकर कई जगह… तब की कुछ तकलीफें ज़रूर हमें डराती थीं, मगर अब तो कोई सुनने को भी राज़ी नहीं। उत्तराखंड तब उत्तरप्रदेश था और हिमाचल पंजाब में, तब से मैं दोनों की सीमाओं पर फैले हिमालय में घूमता आ रहा हूं।
उन दिनों रास्ते सचमुच पहाड़ के थे, मगर चलने लायक थे।
पढ़िए और नीचे दिए गए लेख के लेखक नरेंद्र कठैत के मंतव्य को पहचानिए, और समझिए कि हिमालय में चल क्या रहा है?
यह इस विषय के आलेखों का संग्रह है :
हद है भुला!
‘किताब कौथिक’ रोककर तुझे क्या मिला?
दुख हुआ! श्रीनगर में गत फरवरी को ‘किताब कौथिक’ सम्पन्न न हो सका। दुख इसलिए भी हुआ कि -जिसने पढ़ना था वही युवा कटघरे में खड़ा हुआ। एक वर्ग जो कभी नहीं पढ़ता -वो भी बहस में कूदा। माहौल कई दिनों तक बड़ा गर्म रहा। दिन बीते, महीना गुजरा। अब तो ये भी मालूम नहीं कि ‘किताब कौथिक’ का ये मामला ठंडा क्यों पड़ा। खैर तब से-अभी हाल ही में उधर जाना हुआ। तो उस दौरान घटा एक वाकया भी याद आ गया। देश,काल और परिस्थिति अनुरूप इसे लिखना भी जरूरी समझा।
दरअसल हुआ ये था कि मेरे एक मित्र ने एक दिन फोन किया-‘श्रीनगर ‘किताब कौथिक’ के बारे में आपके विचार क्या हैं?
मैंने कहा-‘विचार नेक हैं! ‘किताब कौथिक’ लगने ही चाहिए।
‘‘-लेकिन आप ‘किताब कौथिक’ लगने कहां दे रहे हैं।
-भाई हम रोकने वाले कौन होते हैं।
-अरे आप न सही कोई तो हैं।
-तो उन्हीं से पूछिए!
-बहरहाल आप किस ओर हैं- वाम पंथ कि दक्षिण पंथ?
मैंने जवाब दिया- ‘डुंगरी पंथ!’’
मित्र ने वामपंथ, दक्षिण पंथ के साथ डुंगरीपंथ के त्रिकोण को मजाक समझा। और तपाक से कहा- ‘क्यों मजाक करता है यार!’ लेकिन वो मजाक नहीं था। वास्तव में -उस दिन मैं श्रीनगर से आगे बद्रीनाथ मार्ग पर डुंगरीपंथ में ही था। और सिद्धपीठ धारी से वापस श्रीनगर की ओर लौट रहा था। हालांकि वहां कोई ‘किताब कौथिक’ नहीं लगा था। लेकिन मैं डुंगरीपंथ को एक खुली किताब की भांति पढ़ रहा था।
डुंगरीपंथ! राज मार्ग से लगा हुआ वो इलाका अभी कुछ वर्ष पूर्व तक हरा भरा था। नीचे निर्मल गंगा, चारों ओर सुद्ध हवा और लहलहाते खेतों से घिरा हुआ डुंगरीपंथ सम्पन्न गांव था। अपने मूल अपनी भाषा से जुड़ा हुआ। लेकिन डुंगरीपंथ गांव आज वो गांव न रहा। कुछ बंजर खेत, कुछ में रेत के ढ़ेर, जहां-तहां लोहे के गार्टरों से पटा हुआ। हरियाली का अंश नाममात्र का बचा हुआ। दरअसल डुंगरीपंथ से होकर ही ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल मार्ग गुजरेगा। डुंगरीपंथ की यह दुर्दशा देखकर बड़ा दुख हुआ।
वापसी में श्रीकोट में भी एक जगह ठिटक गया। ठिटक इसलिए गया कि वहां कभी हाई-वे से सटा एक घर था। बड़ा नहीं छोटा सा। वहां एक-दो मर्तबा जाना भी हुआ। उस घर के बाहर एक नाम लिखा होता था- ‘देव धाम कुटी’। लेकिन अचरज हुआ। क्योंकि वहां न वह घर था- न ‘देव धाम कुटी’ नाम का कोई निशान था। उस घर की जगह एक आलिशान भवन खड़ा था। और उसके पास एक साइन बोर्ड पर लिखा था- होटल सौरभ।
दरअसल ‘सौरभ होटल’ जिस घर की बुनियाद पर खडा हुआ- वह कभी हिन्दी गढ़वाली भाषा के साहित्यकार डाॅ. गोविन्द चातक जी की कर्मस्थली था। और साहित्यकार डाॅ. गोविन्द चातक जी ने ही उस घर का नाम ‘देव धाम कुटी’ रखा था। देव नाम दादा और धाम नाम उनके पिता का था। अर्थात वह घर एक पेड़ की मानिंद तीन पीढ़ीयों का गवाह था। लेकिन परिर्वतन और पर्यटन के आगे वह न टिका। जबकि आखिरी सांस तक चातक जी का न विद्योत्साह कम हुआ -और न श्रीनगर से उनका मन भरा था। किंतु उनके साथ प्रबुद्ध जनों की उपेक्षा का भाव अवश्य रहा। और उसी अपेक्षा के कारण एक मूल जड़ से उखड़ गया। जबकि ‘देव धाम कुटी’ को थोड़े से प्रयास से स्मारक का रूप दिया जा सकता था।
लगता है परिवर्तन और पर्यटन के इन दिशा-संकेतों की आहट को चातक जी ने चार दशक पहले ही भांप लिया था। 1983 में विष्णु प्रभाकर का ‘टूटते परिवेश’ नाम से एक नाटक छपा था। उसके ‘दिशा-संकेत’ में अपनी बात रखते हुए चातक जी ने लिखा था कि- ‘वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति के कारण आज जीवन का मुहावरा तेजी से बदलता जा रहा है। इतनी तेजी से कि इससे पहले कभी इतनी गतिशीलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।’ उनका इतना लिखना भी एक सबक था। लेकिन हमने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। साथ ही आस-पास के टूटते परिवेश को गम्भीरता पूर्वक पढ़ा जाना था।
जैसे कि ज्ञात हुआ कि लगभग 70000 हजार किताबों को ‘किताब कौथिक’ में आना था। तुझसे ये किसने कहा कि 70000 हजार किताबों को तुझेे ही खरीदना था। या 70000 हजार किताबों को तुझे ही अकेला पढ़ना था। जैसे सब पढ़ते वैसे तू भी पढ़ लेता। न भी पढ़ना चाहता -तो चुप बैठा रहता।
भुला! उस ‘किताब कौथिक’ की किसी न किसी किताब में -पहाड़ के ‘टूटते परिवेश’ का विस्तार से विवरण पढ़ने को मिल सकता था। 70000 किताबों में इनका विवरण न मिलता तो उन किताबों में और क्या है -वो भी पढ़ा जा सकता था। धरातल पर मंथन हो सकता था। यहां तक की हर विगत भूल को समय रहते सुधारा जा सकता था। लेकिन ‘किताब कौथिक’ न लगने से हमारे हाथ से वो मौका भी जाता रहा।
हद है भुला!
‘किताब कौथिक’ रोककर तुझे क्या मिला?
-नरेंद्र कठैत
जिनके हाथ में किताब है, वे नरेंद्र कठैत के रचनाक्रम पर आधारित पुस्तक के संपादक डॉ. नागेन्द्र ध्यानी हैं।
