विनोबा की अनंत कथा
राजीव नयन बहुगुणा , वरिष्ठ पत्रकार
मैंने यह घटना देखी तो नहीं, पर सुनी है. यह आज़ादी के कुछ समय बाद की घटना है.
टिहरी के चना खेत मैदान में लगने वाले सरकारी पशु मेला में तत्कालीन सांसद पूर्व राजमाता श्रीमती कमलेन्दु मति शाह किसी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक, संभवतः पं मल्लिकार्जुन मंसूर को ले आयीं.
तब तक, ( और अभी भी ) स्थानीय जन बादी – बादीण, हास्य कलाकार अथवा स्वांग आदि का तमाशा देखने के अभ्यस्त थे.
नकली दाढ़ी मूछ, मुखौटा और सल्द राज पहन कर स्वांग कलाकार जनता का खूब मनोरंजन करते थे.
मल्लिकार्जुन मंसूर ने पहले लम्बा अलाप लिया. उनकी अलग भेष भूषा, विचित्र हाव भाव और मुंह फाड़ कर आ आ आ आ का अलाप देख – सुन जनता खूब खुश हुई और जोर शोर से तालियां बजाई. और जी भर हँसे.
अब मृढंगम वादक ने ता ता तिर्कीट, धीन ता त्रिकित त्रिकित की आवाज़ मुंह से निकालते हुए झूम कर बोल बजाए, तो ग्रामीण उछल उछल कर नाचने लगे. उनका कहना था कि राजमाता जी क्या ही सुन्दर स्वांग हमारे वास्ते लायी हैं. जो कभी न देखा था. न सुना था.
तब राजमाता ने माइक पर आकर फटकार बताई, कि जिन्हें नहीं सुनना है, वे पंडाल से बाहर चले जाएँ. यहाँ हुडदंग न करें.
तब तक राजशाही का खौफ़ क़ायम था, अतः डर के मारे ग्राम जन चुपचाप बैठ गये.
इसी तरह सोशल मिडिया पर आधे से अधिक लोगों को भाषा, कथ्य, विषय वस्तु और इतिहास की समझ नहीं होती.
उन्हें दीक्षित करना भी मेरा कर्तव्य है. जिस तरह बच्चे को उड़ते कव्वा का झांसा देकर टप से निवाला मुंह में दे दिया जाता है, उसी तरह कभी सेक्स तो कभी हास्य की बर्क में लपेट कर मुझे उनके वास्ते अनेक इतिवृत्त पेश करने होते हैं.
लेकिन एक सच्ची और सीधी बात मैं बताना चाहता हूँ कि अंध विश्वास और अंध भक्ति से ग्रसित मनुष्य को शीघ्र पतन, शिश्न का सिकुड़ना तथा ढीले, टेढ़े पन की समस्या अवश्य आकर घेरती है. क्योंकि सेक्स और अंध भक्ति दोनों का संबंध मनो विज्ञान से है.
अतः जितनी जल्दी हो सके, अंध भक्ति से दर गुज़रें.
क्रमांनुसार मैं विनोबा कथा को आगे बढ़ाता हूँ.
बड़ोदरा राज्य एक उच्चाधिकारी मराठी ब्राह्मण के पुत्र विनोबा में शंकराचार्य की तरह बचपन से ही वैराग्य जाग गया था. वह बारहवीं की परीक्षा देने बड़ोदरा से मुंबई को निकले, योजनानुसार रास्ते से ही बनारस को निकल गये. उन्हें संस्कृत तथा ब्रह्म विद्या सीखने की ललक थी.
घर ख़बर कर दी कि अब मैं नहीं लौटूंगा.
घर गाँव में सभी ने कहा कि चार छह महीना धक्का खा कर स्वयं लौट आएंगे.
सिर्फ़ उनकी माँ ने कहा कि मेरा विन्या अब सचमुच नहीं लौटेगा. वह दृढ़ प्रतिज्ञ है.
माँ को अपने बेटे का प्रारब्ध अवश्य पता होता है.
तेरह साल की उम्र में जब कट्टर राजभक्त परिवार से संबंध रखने वाले मेरे पिता गाँधी के चेला बन खादी पहनने लगे तो उनके परिवार में कोलाहल पड़ गया.
उनके मामा गण जब खिल्ली उड़ा कर उनकी सफ़ेद टोपी छीन काली मिट्टी में रंगते थे, तो मेरी दादी अकेले उनका बचाव करते हुए कहती थी कि देख लेना, एक दिन मेरा सुंदरु बहुत बड़ा आदमी बनेगा.
इस पर वे उपहास करते कि कितना बड़ा? क्या राजा से भी बड़ा?
तब मेरी दादी उत्तर देती – अरे राजा को तो सिर्फ़ मुनिकिरेती तक ही लोग जानते हैं. इसे एक दिन सारी दुनिया जानेगी.
…. उनकी यह भविष्य वाणी दस साल बीतते न बीतते सच साबित हो गई, जब टिहरी राज्य के भारत संघ में विलय के कागज़ पर दस्त खत करने कांग्रेस महा सचिव के नाते मेरे पिता सरदार पटेल की बगल वाली कुर्सी पर बैठे थे, और थर थर काँपता राजा सामने बैठा था.
अस्तु. बनारस आकर विनोबा भावे ने एक अन्न क्षेत्र में आश्रय लिया. तब वहाँ संस्कृत सीखने वाले ब्राह्मण बालको को भोजन के साथ एक आना दक्षिणा भी मिलती थी.
( विनोबा महा पुराण एक सप्ताह तक जारी रहेगा )
( ये लेखक के अपने विचार हैं)