विधान सभा चुनावों से पूर्व सर्वेक्षणों से असमंजस में पड़ा मतदाता
कुशाल जीना
इस साल के अंत तक पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों को लेकर सर्वेक्षणों की इन दिनों बाढ़ सी आई हुई है जिससे मतदाता असमंजस की स्थिति में है।
मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में नवंबर में विधान सभा चुनाव होने हैं जिनकी तारीख केंद्रीय चुनाव आयोग ने हाल ही में की है। इस घोषणा के बाद से इन राज्यों के संभावित चुनाव परिणामों को लेकर तमाम तरह की भविष्य वाणियां की जाने लगी हैं।
कोई सर्वेक्षण मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जीत का दावा कर रहा है तो दूसरा राजस्थान में भाजपा के लिए जीत आसान बता रहा है। ऐसा ही कुछ हाल बाकी तीन राज्यों का भी बताया जा रहा है जहां चुनाव होने हैं।
अभी तक ये सर्वेक्षण कुछ राज्य स्तर की एजेंसियों के द्वारा करवाए जा रहे थे लेकिन अब इस अखाड़े में बड़े पहलवान भी उतर गए हैं। सी वोटर नामक एक एजेंसी ने अपने ताजातरीन सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर बताई है। वहीं राजस्थान में भाजपा की आसान जीत निश्चित करार दी है। वहीं तेलंगाना में कांग्रेस की बड़त और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की स्थिति मजबूत दर्शाई गई है।
मिजोरम के बारे में सी वोटर की भविष्य वाणी सही भी साबित हो सकती है क्योंकि इस पूर्वोत्तर राज्य पर देश के दोनों बड़े दल कोई खास मेहनत नहीं कर रहे हैं। भाजपा को यहां की इसलिए फिक्र नहीं है क्योंकि इस क्षेत्र की सभी क्षेत्रीय दल ज्यादातर केंद्रीय सरकार के साथ जाते हैं।
लेकिन बाकी चार राज्यों की स्थिति जमीन पर कुछ और दिखाई देती है। मसलन, मध्य प्रदेश में अगर भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर होती तो भाजपा में भगदड़ नहीं मची होती और जबरन विधान सभा चुनाव लड़ने को मजबूर केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय नेता खुलेआम इस जबरदस्ती को लेकर अपनी नाराज़गी नहीं जाहिर करते। कैलाश विजयवर्गीय इसका जवलंत उदाहरण हैं। विजयवर्गीय ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय कहा था कि वे विधान सभा चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं। यही हाल केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर का भी है। वे भी केंद्रीय नेतृत्व की इसी जबरदस्ती को लेकर नाराज हैं।
सच्चाई यह है कि चुनावी हवा को सर्वेक्षणों से कहीं अधिक नेता समझते हैं इसीलिए वे नाराज हैं। मध्य प्रदेश को लेकर किए गए सभी सर्वेक्षणों ने एक अहम हकीकत को नजर अंदाज किया है और वह है सरकार विरोधी नाराजगी। एमपी में भाजपा पिछले डेढ़ दशकों से सत्ता में है फिर भी क्या उसके खिलाफ जनाक्रोश नहीं है यह कैसे संभव हो सकता है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा नेतृत्व ने राज्य में नेतृत्व शून्यता को स्वीकार किया है। यही कारण है कि वे अब पूर्व मुख्य मंत्री रमन सिंह को आगे लाने की बात कर रहा है। लेकिन दौड़ के बीच घोड़ा बदलने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। वैसे भी रमन सिंह राज्य भाजपा के चुनावी अभियान को संभालने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उनको पता है कि यदि भाजपा की सरकार बन भी है तो भी उनको किसी भी सूरत में मुख्य मंत्री नहीं बनाया जाएगा।
दरअसल, ये छोटी छोटी राजनीतिक वास्तविकताएं हैं जो चुनावों में बड़ा असर डालती हैं।
पांचों चुनावी राज्यों में राजस्थान केवल एक ऐसा प्रदेश है जहां दोनों ही दलों में कार्यकर्ता स्तर तक विभाजन जरूर है पर भाजपा को ज्यादा नुकसान इसलिए है क्योंकि भाजपा में बगावत की है वसुंधरा राजे सिंधिया ने जिनका प्रभाव समूचे राज्य में है जबकि कांग्रेस के बागी नेता सचिन पायलट केवल कुछ गुज्जर बहुल इलाके तक सीमित है।इसके अलावा जाट समुदाय उनके साथ नहीं हैं।
यह सही है कि राजस्थान में काफी लंबे समय से यह परंपरा देखने में आई है कि किसी एक दल या गठबंधन की दूसरी बार सत्ता में वापसी नहीं हुई है।
लेकिन यही परंपरा उत्तराखंड में भी थी जो पिछले साल हुए विधान सभा चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी के साथ टूट गई।
सी वोटर सर्वेक्षण के मुताबिक तेलंगाना में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीआरएस के बीच है इसका सीधा मतलब यह है कि चुनावी एजेंसी वहां भाजपा को दौड़ में शामिल नहीं मानती। हाल ही में राहुल गांधी की हैदराबाद में हुई विशाल रैली को स्थानीय सत्तारूढ़ बीआरएस नेताओं के बीच कांग्रेस में शामिल होने को लेकर मची खलबली को यदि कोई मापदंड माना जाए तो सी वोटर के सर्वेक्षण को तेलंगाना के संदर्भ में वास्तविकता के काफी करीब माना जा सकता है।
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