वर्ण व्यवस्था – एक विचार
प्रोफेसर जयदीप बड़थ्वाल
वर्ण व्यवस्था के निर्माण और उससे जनित अत्याचारो का ठीकरा ब्राहृणो के सिर फोडने का फैशन चल पडा है। इसमे कोई दो राय नही हो सकती वर्ण व्यवस्था एक वर्ग विशेष जिन्हे शूद्र कहा गया के लिये अपार दुखो को देने वाली थी। लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या वर्ण व्यवस्था ब्राहृणो के द्वारा रचे गये एक सुनियोजित षडयन्त्र का परिणाम थी अथवा इसके अन्य भी कारण हो सकते है। मसलन कि क्या ऐसा सम्भव नही है कि समाज निर्माण अथवा सभ्यता निर्माण के प्रारम्भिक चरण मे यह विकास क्रम का एक स्वाभाविक हिस्सा रही हो।
यूरोप मे सर्फडम की प्रथा थी। सर्फ एक प्रकार से ऐसे गुलाम थे जो पीढी दर पीढी किसी जमीदार के अधीन होते थे और बिना किसी तनख्वाह के पीढियो तक उस जमीदार के घर परिवार और खेतो मे काम करते थे। रूस के प्रसिद्ध लेखक लियो टालस्टाय स्वय एक जमीदार परिवार से आते थे और उन्होने युवावस्था मे अपने खेतो मे कार्य करने वाली अनेक सर्फ( गुलाम) महिलाओ से शारीरिक सम्बन्ध बनाने की बात स्वीकार की थी। यूरोप मे इन सर्फ लोगो की अवस्था प्राचीन भारत के शूद्रो से कही बदतर थी। जमीदारो द्वारा इनको कोडे लगाए जाना आम बात थी। चर्च हमेशा जमीदारो के पक्ष को पोषित करता रहा फिर भी चर्च को कभी सर्फ व्यवस्था का जनक नही कहा गया। समय के साथ और लोकतान्त्रिक विचारो के प्रसार के साथ सर्फ व्यवस्था का पतन हो गया।
अरब तथा तुर्को मे गुलाम को खरीदकर रखने की प्रथा थी। गुलाम खरीदे और बेचे जा सकते थे। और बहुत बडे पदो पर पहुचने के बाद भी गुलाम अपने मालिक के गुलाम ही माने जाते थे। भारत मे तो गुलाम बादशाह तक बन बैठै जैसे इल्तमस और बलबन। लेकिन इस्लामिक जगत मे कभी भी मौलवियो को गुलाम व्यवस्था का जनक नही कहा गया। इन्हे सभ्यता के विकास क्रम की एक अवस्था के रूप मे देखा गया। इन अत्याचार पूर्ण प्रथाओ का विरोध हुआ और ये उन समाजो से हटा ली गयी।
मनुस्मृति आदि कुछ प्राचीन ग्रन्थ कठोरता पूर्वक वर्ण व्यवस्था के पालन का समर्थन करते दिखाई पडते है। वह किसी व्यक्ति के एक वर्ण से दूसरे वर्ण मे प्रवेश के पक्ष मे नही है। लेकिन अमरीका मे तो गुलाम व्यस्था के पक्ष मे पूरे के पूरे राज्य थे। अब्राहिम लिकन के राष्ट्पति चुनाव के अवसर पर राज्य गुलाम प्रथा को समाप्त करने या न करने को लेकर बंटे हुए थे। और यह कोई प्राचीन या मध्यकालीन समय की बात नही अपितु आथुनिक समय की बात है। इब्राहिम लिकन ने राष्ट्रपति बनते ही गुलाम प्रथा के समाप्ति की घोषणा की।
लेकिन उनका बडा विरोध हुआ। कुछ राज्यो ने विद्रोह कर दिया। लिकंन को सैनिक शक्ति के बल पर इन विद्रोहो को दबाना पडा। बडी लडाइया लडी गयी और इसे ही अमरीकन सिविल वार के नाम से जाना जाता है।
वर्ण व्यवस्था का समर्थन कोई नही कर सकता। यह एक वर्ण को शिक्षा, रोजगार मे समानता के अवसर से वंचित करती है। इसे जाना ही चाहिये। आजादी के बाद भारत के कानून ने सबके लिये शिक्षा और रोजगार के समान अवसर प्रदान किए। अस्पृश्यता के लिये भी कानून बनाए गये । लेकिन जिस रूप मे वर्ण व्यवस्था को समाप्त किया जा रहा, क्या वे उपाय एक नवीन वर्ण व्यवस्था को दावत नही दे रहे। फिर हम कुछ लोगो को उनके समानता के अधिकार से वंचित नही कर रहे। पहले जहा शूद्र खडे थे क्या फिर हम कुछ लोगो को वहा खडा नही कर रहे।
यूरोप ने ऐसा नही किया।
(ये लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं)