ल्यावा बणिगि हमरि भि फिलम’ नाटक बेसिर पैर की थोक के भाव बन रही फिल्मों पर कटाक्ष था ?
SUSHMA JUGRAN DHYANI ( SENIOR JOURNALIST , WRITER )
दो नाट्य संस्थाओं (दि हाई हिलर्स ग्रुप और प्रज्ञा आर्ट्स थियेटर ग्रुप) की साझा प्रस्तुति ‘ल्यावा बणिगि हमरि भि फिलम’ कहने को तो विशुद्ध मनोरंजनात्मक प्रस्तुति घोषित थी और इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं थी क्योंकि निर्देशक की ओर से पहले ही कहा जा चुका था कि नाटक का उद्देश्य इतना भर है कि ‘दर्शक हंसते हंसते लोट-पोट हो जाएं..।’ मतलब मंच पर थिरकते कलाकारों के साथ पार्श्व में बजते रिकार्डेड ढबड़ि गीत-संगीत का मजा लीजिए और मसाला फिल्मों की तर्ज पर मारधाड़, हो- हल्ला और एक सामान्य से कथानक के सुखांत के बाद ताली और सीटी बजाते हुए हंसते-हंसाते घर जाइए।
इस हिसाब से देखें तो नाटक की गंभीर समीक्षा की भी कोई गुंजाइश यहां नहीं महसूस होनी चाहिए लेकिन नाटक देखते हुए इस प्रयोगात्मक प्रस्तुति पर तो और भी बारीकी से चिंतन की जरूरत महसूस हुई। कारण दो अलग-अलग मूड और मिजाज की नाट्य संस्थाएं अपने-अपने कलाकारों के साथ एक ही मंच पर मौजूद थीं। सिर्फ इसलिए कि दोनों का संबंध उत्तराखंड से है और दोनों ही रंगमंच के माध्यम से अपनी बोली-भाषा व सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की बात करती रही हैं। हालांकि भाषा के स्तर पर दोनों में बड़ी भिन्नता है। ‘दि हाई हिलर्स’ की नाट्य प्रस्तुतियां जहां सिर्फ गढ़वाली में होती हैं, वहीं ‘प्रज्ञा आर्ट्स थियेटर ग्रुप’ की अधिसंख्य हिंदी में। ऐसे में दोनों का उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के उद्देश्य से एक मंच पर अपनी बोली-भाषा के साथ आना सराहनीय तो रहा लेकिन नाटक का समग्र आकलन करें तो बड़ी विभ्रम की सी स्थिति बनती दिखी कि इसे मनोरंजक गीत-संगीत प्रधान नाटक कहा जाए या कि किसी एक समस्या पर आधारित गंभीर संवादात्मक नाटक। क्योंकि दो-दो मिनट बाद मंच पर लाउड म्यूजिक के साथ बिना किसी संदर्भ के सामूहिक नृत्य प्रस्तुतियों के समानांतर तीन परिवारों (एक बेहद गरीब और दो अमीर) की दोस्ती और दुश्मनी के बीच इनके युवा बेटे-बेटियों के आपसी प्रेम का कथानक बुना गया है जो हिंदी फिल्मों की सामान्य मसाला फिल्मों की तर्ज पर गीत-संगीत के बीच अंत में दबंग खलनायक की मार-कुटाई और नायक नायिकाओं के सुखद मिलन के साथ खत्म हो जाता है।
यह अलग बात है कि प्रेम जैसे शाश्वत विषय को केंद्र में रखकर बुना गया सामान्य सा कथानक और उसके संवाद कितने प्रभावशाली थे या कि दर्शक कितना आत्मसात हुए होंगें। इस लिहाज से देखें तो सारा विमर्श अंत में गीत-संगीत के समानांतर चल रहे कथानक के पात्रों के अभिनय पर केंद्रित हो जाता है।
तीन परिवारों के इर्द-गिर्द बुना गया कथानक या संवाद चाहे जिस भी स्तर के रहे हों लेकिन सभी पात्रों का अभिनय सराहनीय था। ‘दि हाई हिलर्स’ के साथ सालों से जुड़े बृजमोहन वेदवाल और दर्शन सिंह रावत अपने किरदार में इस तरह रच बस जाते हैं कि नाटक में अपनी तरह का प्रवाह आ जाता है। अमीरी के नशे में चूर किसी को कुछ न समझने वाले महेश कपटियाल की भूमिका में बृजमोहन वेदवाल ने पात्रानुकूल बहुत अच्छा अभिनय किया। लंगड़ा कर चलने की उनकी भंगिमा में कहीं कोई चूक नहीं दिखी। दर्शन सिंह रावत ने युवा बेटी के गरीब और लाचार पिता का जो निरीह किरदार निभाया, वह शानदार था। कहना न होगा कि उनका किरदार सारे किरदारों पर भारी था। पत्नी की मृत्यु के बाद का विलाप हो या बेटी के भविष्य की चिंता में तिल तिल कर मरता मजबूर पिता- उनका अभिनय बहुत स्वाभाविक था।
लेकिन उनके इस चरित्र को स्वाभाविक बनाने में बेटी के किरदार को भी उतना ही दमदार होना चाहिए था और इस रूप में थियेटर से नई-नई जुड़ी मुस्कान भंडारी ने तो बेमिसाल भूमिका निभाई। राधा के रूप में उसके चेहरे के हाव-भाव बहुत ही स्वाभाविक थे। मुस्कान के रूप में गढ़वाली रंगमंच को बहुत ही संभावनाशील रंगकर्मी मिल गई है। वरिष्ठ जनों को उसकी प्रतिभा को ज्यादा से ज्यादा निखारने का अवसर देना चाहिए। दर्शन सिंह रावत और बृजमोहन वेदवाल के ही समकक्ष प्रज्ञा आर्ट्स के पीताम्बर सिंह चौहान का ठाकुर बख्तावर सिंह रावत का अभिनय भी लाजवाब था और उनकी पत्नी शांकम्भरी देवी के किरदार में मंझी हुई रंगकर्मी कुसुम चौहान का भी जवाब नहीं। अनमोल भट्ट वीरेंद्र सिंह गुसाईं और प्रियांशी बिष्ट का अभिनय भी पात्रानुकूल सराहनीय था।
बेशक दो संस्थाएं एकजुट होकर हास्य व्यंग्य से भरपूर नाटक कर रही थी लेकिन अपने-अपने मिजाज के हिसाब से एक मंच पर होने के बावजूद दोनों ग्रुप की पहचान उसके कथानक और पात्रों के अभिनय के माध्यम से दीर्घा में बैठे दर्शक आसानी से कर ले रहे थे। अपनी नाट्य प्रस्तुतियों में गीत-संगीत को प्राथमिकता देने वाली लक्ष्मी रावत उनमें प्रयोग भी खूब करती रही हैं जिनमें कभी सराहना पाती हैं तो कभी आलोचना की पात्र भी बनती हैं। जैसे पूर्व में खेली गयी तीलू रौतेली जैसी ऐतिहासिक नाट्य प्रस्तुति में उन्होंने युद्ध में उस मार्शल आर्ट शैली को प्रस्तुत कर दिया, जिससे उस दौर में उत्तराखंड तो क्या, देश भी परिचित नहीं रह होगा। ऐसे ही उस दौर की वीरगाथाओं या पवाड़ो की जगह रेखा धस्माना के स्वर में औचक स्व. जीतसिंह नेगी जी रचित ‘हे दर्जि दिदा…’ गीत प्रस्तुत कर दिया गया।
जाहिर है श्रोताओं ने गीत का तो आनंद लिया होगा लेकिन नाटक के हिसाब से वह कितना प्रासंगिक था, यह भी कम विचारणीय नहीं था।
‘ल्यावा बणिगि हमरि भि फिलम’ नाटक हालांकि बेसिर पैर की थोक के भाव बन रही फिल्मों पर कटाक्ष था लेकिन नाटक में वह सूत्रधार के याद दिलाने पर ही याद आ रहा था। नाटक के आरंभ में उत्तराखंड सरकार की आर्थिक मदद के लोभ में आ रही फिल्मों की बाढ़ के चिंतन स्वरूप जो दृश्य प्रस्तुत हुआ, वह दर्शकों पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया और नाटक के मूल मंतव्य पर भी फिट नहीं लगा। और तो और रमेश ठंगरियाल जैसे मंझे हुए कलाकार भी दर्शकों का ध्यान नहीं खींच पाये। नाटक का शीर्षक भी नाटक के कथानक से मेल खाता नहीं दिखा।
इस शुरुआती दृश्य के बाद सूत्रधार सविता पंत को बराबर प्रस्तुत गीतों की गिनती याद दिलानी पड़ रही थी। लंबी-लंबी नृत्य प्रस्तुतियों के कारण नाटक लगभग ढाई घंटे का समय खा गया अन्यथा इसकी डेढ़ घंटे से ज्यादा की मांग नहीं थी। लेकिन जब उद्देश्य ही मनोरंजन था तो जिन दर्शकों को ऐसा मनोरंजन पसंद था, उन्होंने तो दीर्घा से सीटियों और तालियों के साथ कलाकारों का खूब मनोरंजन किया। हां जिनकी समानांतर चल रही कहानी में दिलचस्पी थी उन्होंने भी पात्रों के अभिनय के हिसाब से इसका आनंद लिया।
निर्देशक लक्ष्मी रावत द्वारा दो पात्रों (बख्तावर सिंह रावत और शाकम्भरी देवी) के नाम अपने माता-पिता के नाम पर रख उन्हें याद करना अपनी तरह का प्रयोग था। और हां, जाति का मुद्दा अब केवल राजनीति के गलियारे तक ही सीमित रह गया है, अलबत्ता नाटक में कपटियाल (ब्राह्मण) और रावत (राजपूत) जातियों के बीच अरेंज मैरिज के पक्ष-विपक्ष में कोई चर्चा नहीं हुई। ऐसे नाटककार द्वारा पात्रों के ये नाम सायास रखे गये थे या अनायास- कुछ कहा नहीं जा सकता। जबकि दस पंद्रह साल पहले यही विषय किसी नाटक का मुख्य कथानक होता।
मंच-सज्जा और प्रकाश व्यवस्था बहुत ही सामान्य थी।
हां नृत्यांगनाओं की डिजाइनर साड़ियां उन पर खूब फब रही थीं। चार-चार सूत्रधारों (दो महिला दो पुरुष) में एक सविता पंत का केवल हर बार नये कास्ट्यूम के साथ आना ही याद रहा।
दो नाट्य संस्थाओं का मंच साझा करना पहली बार देखने में आया। इसके पीछे संभवतः गढ़वाली कुमाऊनी जौनसारी अकादमी की सोच भी हो सकती है जो भाषा और संस्कृति के नाम पर संस्थाओं को आर्थिक सहायता देती रहती है। यह सराहनीय है। जाहिर है, हक दोनों का बनता है और चार दशक पुरानी हाई हिलर्स का तो सबसे पहले बनता है। लेकिन सहायता पाना इस पर ज्यादा निर्भर करता है कि सरकारी गाइडलाइंस के दायरे में रहते हुए अकादमी किससे कितना कंविंस हो पाती है। क्योंकि दोनों संस्थाएं पात्र हैं इसलिए हो सकता है इस बार दोनों को संयुक्त रूप से मंच मुहैया करवा दिया गया हो।
जो हो, दर्शकों को तो आम खाने से मतलब होता है, गुठलियां गिनने से नहीं। इसलिए दो ग्रुप थे तो दोनों के ही चाहने वाले दर्शको से खचाखच भरा था थियेटर।