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Uttrakhand

ये ! ज्ञान के कठैत – सुप्रसिद्ध साहित्यकार नरेंद्र कठैत


,,,,,,,,,,,,,वीरेन्द्र पंवार

ये ! ज्ञान के कठैत।किसी पुस्तक का यह शीर्षक आपको अटपटा लग रहा होगा? है ना!मुझे भी लगा।लेकिन यही नरेन्द्र कठैत की खासियत है कि वे अटपटे, अनमने,कहे,अनकहे में से भी कुछ ना कुछ निकाल लाते हैं।सम्भवतः इसी कौतूहलपूर्ण जिज्ञासा की परिणिति है,उनकी सद्य प्रकाशित इस पुस्तक का शीर्षक ,ये ! ज्ञान के कठैत!इस संग्रह में उनके हिन्दी आलेख समाहित हैं, जो सोशल मीडिया और पत्र-पत्रिकाओं के जरिए पाठकों तक पहले ही पहुँचे हुए हैं।
नरेन्द्र कठैत, उत्तराखण्डी समाज के लिए जाना पहचाना नाम है।वे गढ़वाली साहित्य के श्रेष्ठ और स्थापित ब्यंग्यकार हैं।नरेन्द्र कठैत 21वीँ सदी के सर्वाधिक सक्रिय रचनाकार हैं।गढ़वाली में उनके अब तक 8 ब्यंग्य संग्रह, 1 काव्य, 2 नाटक,3 अनूदित रचनाएँ, 2 सम्पादित और 1 आलेख संग्रह सहित एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं।
नरेन्द्र कठैत ने पुस्तक की विषयवस्तु गढ़वाली भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला आदि विषयों के इर्द-गिर्द रखी है।इस बात की उनकी स्थापना सुस्पष्ट है कि गढ़वाली भाषा है। इस बात को सगर्व कहा जाना चाहिए।


नरेन्द्र कठैत की विशेषता यह है कि वे विषय का गहन अध्ययन प्रस्तुत करते हैं।यहाँ तक कि वे शब्द-शब्द की गहन ब्याख्या करते हैं।उनकी आलेख शैली भी विशिष्ट है,वे अपने आलेखों में आम बातचीत का समावेश करते हुए जिस तरह से आगे बढ़ाते हैं, वह विलक्षण है।
गढ़वाली के बारे में अक्सर इस तरह के प्रश्न उठ जाया करते हैं कि गढ़वाली भाषा है अथवा लोकभाषा,,? इस बारे में सोदाहरण उनका मानना है कि गढ़वाल क्षेत्र में बोली एवं लिखी जाने वाली भाषा गढ़वाली कहलाती है।इसी प्रकार से मातृभाषा को भी परिभाषित किया गया है।खरी-खरी में वे गढ़वाली भाषा में प्रयुक्त हो रहे ‘श’ और ‘क्ष’ अक्षरों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं।गढ़वाली भाषा के सम्बन्ध में इसी तरह का विश्लेषण राजकाज से आज तक नामक शीर्षक के आलेख में मिलता है।इस आलेख में जिक्र किया गया है कि कैसे अकाल,बाढ़, भूकंप,गोरखा आक्रमण और करो की मार ने गढ़वाली जनमानस को झकझोरा।राजाश्रय प्राप्त होते हुए भी गढ़वाली भाषा में सन् 1900 से पूर्व का साहित्य दुर्लभ ही नहीं अपितु अप्राप्त भी है।इस सन्दर्भ में आचार्य शिवप्रसाद डबराल जी के कथनानुसार गढ़वाली बोली में शिलालेख 15 वीं शताब्दी से मिलने लगे थे,किन्तु अभी तक 19 वीं सदी से पहले की गढ़वाली गद्य या पद्य में लिखी गई कोई रचना नहीं मिली है।
द लोळा,द लोळी शीर्षक आलेख में गढ़वाली भाषा के अन्य भाषाओं के शब्द आत्मसात कर लेने की अद्भुत क्षमता का उल्लेख किया गया है।इसका एक विश्लेषण गढ़वाली अंग्रेजी भाषा की साझा शब्द सम्पदा में किया गया है।
लेकिन आज उत्तराखण्डी नामक कल्पित भाषा जैसी अब्यावहारिक सोच रखने वाले कुछ मित्रोँ की सोच को आड़े हाथों लेते हुए नरेन्द्र कठैत का स्पष्ट मानना है कि हमारी भाषा चिन्ता के मूल में अपनी वे मूल भाषाएं हैं, जो आज हमने ही दोराहे पर खड़ी कर दी।
पुस्तक में दो आलेखों के जरिए हिमवन्त कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल के रचना संसार का विहंगावलोकन प्रस्तुत कर स्पष्ट किया गया है कि चन्द्रकुंवर की रचनाओं के साथ आज तक न्याय नहीँ हुआ।
इस पुस्तक के बेहतरीन आलेखों में से एक सुन्दर आलेख है ,जो गढ़वाली भाषा में शिवराज सिंह रावत नि:संग जी के योगदान को रेखांकित करता है।
एक तस्वीर पहाड़ी गाँवो की,चिन्तन विन्दु, स्त्री-विमर्श, खबरों का सफर, मेलों को वैज्ञानिक एवं शिक्षाप्रद संदर्भों में ढालना होगा,स्थानीय कस्बों के नामों के साथ छेड़छाड़ आदि बहुत बेहतरीन आलेख हैं।
नरेन्द्र कठैत के लेखन की एक विशेषता यह है कि वे मात्र भावना में बहकर नहीँ लिखते।उनका चिन्तन तार्किक होता है। बाजवक्त उनकी नजर उन महीन विषयों तक जाती है, जिनको अक्सर आम लेखक उपेक्षित कर आगे बढ़ जाता है।भाषा की उनकी रवानी गढ़वाली भाषा में दिखती है, हिन्दी में उससे कहीं अधिक प्रभावशाली भाषा शैली में उनका सृजन दिखाई देता है। दोनों भाषाओं पर बराबर नियंत्रण कम देखने को मिलता है।इस मामले में नरेन्द्र कठैत की तारीफ की जानी चाहिए।
पुस्तक में भाषा और संस्कृति से जुड़े कई सवालों और जिज्ञासाओं के जवाब समाहित हैं।
पुस्तक की भूमिका में विद्वान लेखक डा0नागेन्द्र प्रसाद ध्यानी ‘अरुण’ की टिप्पणी क़ाबिले ग़ौर है कि पुस्तक के आलेख भाषागत विचिन्तनीय विमर्श के आलोक में सर्वश्रेष्ठ हैं।वे एक शैली को जन्म देते हैं।
एक मायने में ये! ज्ञान के कठैत! पुस्तक गढ़वाली भाषा की प्रतिष्ठा को स्थापित करती नजर आती है।हालाँकि पुस्तक में और भी बहुत कुछ है,जो महत्वपूर्ण है।पुस्तक संग्रहणीय बन पड़ी है।
हाँ, पुस्तक का शीर्षक, ये ! ज्ञान के कठैत!क्यों रखा गया है, इसका जवाब जानने के लिए आपको पुस्तक को पढ़ना चाहिए।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित गढ़वाली के मूर्धन्य साहित्यकार स्व0 सुदामा प्रसाद प्रेमी जी को समर्पित यह पुस्तक रावत डिज़िटल बुक पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित है।हार्डकवर में प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है,₹250/- और पुस्तक पाने के लिए आप लेखक से सम्पर्क कर सकते हैं।मो0- 9412934480.

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