[ यादों के झरोखे से] ख्वाबों और खयालों से बनी तेरी तस्वीर : पार्थसारथि थपलियाल
मेरे एक मित्र ने आज कल व्हाट्सएप पर लिखा- तस्वीर। मुझे नही मालूम कि वे मुझे क्या याद दिलाना चाहते थे, इतना मुझे याद था कि वे मेरे शब्द संदर्भ कॉलम के नियमित पाठक थे। तस्वीर शब्द पढ़ते ही मैं अचानक वर्ष 1992-93 की स्मृतियां मानस पटल पर चित्रित होने लगी। उन दिनों मैं आकाशवाणी जोधपुर में युववाणी कार्यक्रम का प्रभारी था। विनोद विट्ठल, अशोक आवारा और कविता शर्मा मेरे साथ युववाणी कार्यक्रम के युवा सूत्रधार थे। एक बार मैंने अशोक आवारा को एक रेडियो रूपक तैयार करने के लिए कहा। उन दिनों विनोद विट्ठल, अशोक और में कभी लाइब्रेरी में होते तो कभी स्टूडियो में कोई न कोई कार्यक्रम बना रहे होते थे। अशोक ने कुछ फोटोग्राफर से, कुछ समीक्षकों से, कुछ कैमरामैन से, इंटरव्यू लिए और कुछ गानों को छांटा अशोक आवारा बहुत सुलझा कलाकर था। रूपक (फीचर) की शुरुआत फ़िल्म सावन को आने दो फ़िल्म के एक गीत के मुखड़े से किया-
फेड इन-तेरी तस्वीर को सीने से लगा रखा है
हमने दुनिया से अलग गांव बसा रखा है
तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नही बनती….
फेड आउट। (आवाज़-येशुदास और हेमंती शुक्ला)
उसके बाद विशेषज्ञों छोटे छोटे इंटरव्यू/बाइट्स, गीत, संगीत के माध्यम से रूपक का रूप उपस्थित कर दिया। रूपक में पूरा यौवन भी झलक रहा था। अशोक आवारा और कविता शर्मा का ये गीत फेवरेट गीत होता था। गीत संगीत ने रूपक को श्रवणीय बना दिया था। जैसे-
तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नही बनती
तस्वीर नही बनती..
एक ख्वाब सा देखा है,
ताबीर नहीं बनती, तस्वीर नहीं बनती
तस्वीर बनाता हूँ (फ़िल्म बारादरी,आवाज़ तलत महमूद )
उस रूपक में तरह तरह से इंसान की अपने जीवन की तस्वीर में रंग भरने जैसी एक कल्पना को कविता के माध्यम से उकेरा गया था।
फूल फूल पर बनी तेरी तस्वीर
फूल फूल पर लिखा है तेरा नाम
तुझे सलाम…(फ़िल्म फूल, आवाज़-उदितनारायण)
हमारे मन मे एक मिनट में अनंत चित्र कल्पनाओं में उभरते हैं लेकिन हम उन्हें याद नही रख सकते। उन्हें याद रखने या संरक्षित रखने का माध्यम है तस्वीर। यह ललित कला के अंतर्गत आता है। प्रागैतिहासिक काल के भित्तिचित्रों के माध्यम से हम उस युग की कल्पना कर सकते हैं। चित्रकारी मानव का बहुत प्राचीन शौक है। भारतीय चित्रकारी में राजा रवि वर्मा आधुनिक भारतीय चित्रकला के भीष्मपितामह हैं। उनकी चित्रकारी के माध्यम से अधिकतम देवी देवताओं कद स्वरूप हम जन पाए। फोटोग्राफी (जिसे छाया चित्र कहते हैं) 1825 के बाद ही सफलता की ओर बढ़ी।
फोटोग्राफी के आरम्भिक काल मे कैमरा काफी बड़ा होता था, जो अक्सर काले कपड़े से ढका होता था। थोड़ी से भी चूक फ़िल्म को खराब कर सकती थी। इसलिए कैमरामैन कई हिदायतें दे देता था। क्लिक करने से पहले वह बोलता यस, इसका मतलब था चेहरे पर प्रसन्नता लाओ। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में मोबाइल फोन आ जाने से कैमरा घरों से गायब होने लगा। स्मार्ट फोन ने तो सारा स्टूडियो ही तैयार कर दिया। पहले फोटो किसी परीक्षा के फॉर्म या नौकरी के आवेदन पत्र पर लगती थी। आम लोगों की लगभग इतनी ही आवश्यकता थी। आज जन्म से मरण तक सब तस्वीरे आपके पास होती हैं। मोबाइल फोन से सेल्फी लेने शौक बना और कई लोगों के लिए दुर्घटना का कारण। मन्दिर में भगवान के दर्शन के लिए गया व्यक्ति मंदिर के सामने खड़ा अवश्य होता है उसके जोड़े हाथ मंदिर की तरफ और चेहरा बाहर की तरफ होता है जहां से फोटो ली जाती है।
हद तो यह है पाणिग्रहण संस्कार के समय भी दूल्हा दुल्हन पंडित की कम सुनते है और फोटोग्राफर, वीडियोग्राफर की ज्यादा। जीवन भर सँजोई तस्वीर या तो उठावनी की खबर में काम आती है या फूलमाला के, तब तस्वीर सिर्फ स्मृति शेष रह जाती है।
तस्वीर तेरी दिल में, जिस दिन से उतारी है
फिरूं तुझे संग लेके, नए नए रंग लेके
सपनों की महफ़िल में, तस्वीर तेरी दिल मे…
मित्रों! सच तो यह है कि हमारे पास तस्वीरें तो बहुत हैं लेकिन इत्तफाकन खींची कोई यादगार फोटो जैसा आनंद अब मोबाइल की फोटो में नही मिलता, न किसी को इतनी चाहत जितनी हुआ करती तब जब आदमी सिर्फ इंसान था।