माता-पिता के लिए सुरक्षा कानून
प्रो. नीलम महाजन सिंह
हर धर्म में माता-पिता का अत्यधिक मह्त्व होता है, यहाँ तक कि उन्हें भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया जाता है। हिंदू धर्म में माता-पिता की आराधना, इश्वर की अराधना से ऊपर है। ‘मदर मेरी की ईसा मसीह’ से अधिक पूजा की जाती है। परंतु आधुनिकीकरण व तात्कालिक समाज में अनेक ऐसे संकेत आये हैं, जहाँ माता-पिता की अवेहलना ही नहीं, परंतु उन पर अनेक प्रकार के भावनात्मक, शारीरिक और वित्तीय अत्याचार भी किए जा रहें हैं। ‘कुरान-पाक’ में लिखा है कि, “माँ के पैरों के नीचे जन्नत है”। ‘माँ के नाम एक वृक्ष’ का उद्बोधन नरेंद्र मोदी सरकार ने किया है। माँ को विश्वभर में सर्वोपरि माना गया है। ‘दादी माँ’ फिल्म में मजरुह सुल्तानपुरी द्वारा लिखित गीत: “उस को नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी, ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी, उस को नहीं देखा हमने कभी…”; हम अक्सर सुनते आ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सभी संतान माँ-पिता का शोषण करती है, परंतु इसमें 70% वृद्धि हुई है। शायद नई पीढ़ी पर, टीवी सीरिअल का भी प्रभाव हुआ होगा? इन्हीं कारणों से भारतीय संसद ने ‘मेंटिनेंस एंड वेल्फेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटिज़नज़ एक्ट’ (माता-पिता व वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम – 2007) लागू किया है। उद्योगिक सिंघानिया परिवार के वरिष्ट सदस्य, विजयपत सिंघानिया, ‘रेमंड कंपनी के पूर्व चेयरमैन व संस्थापक’ के पुत्र, गौतम सिंघानिया की न्यायिक कशमकश से हृदय बहुत पीड़ित हुआ है। पुत्र-मोह में विजयपत सिंघानिया ने अपने 35% कंपनी के शेयर गौतम को भेंट, ‘गिफ्ट डीड’ द्वारा दे दिए। फ़िर मुंबई स्थित, अति-अमीर भारतीय गगनचुंबी इमारत, सिंघानिया का ‘जे.के हाउस’; अरबपतियों के घरों में सबसे आलीशान माना जाता है। फ़िर ‘जे.के हाउस’ की मरम्मत व नवीनीकरण के आश्वासन से, विजयपत सिंघानिया और अपनी माँ को, गौतम सिंघानिया ने घर से बेघर कर दिया। एक अरबपति इंसान गालियाँ के धक्के खाता सालों से टीवी व समाचार पत्रों में नज़र आ रहा है। मुंबई हाई कोर्ट की मध्यस्थता से गौतम सिंघानिया, अपने माता-पिता को मकान का किराया व महीना भत्ता दे रहा है। वैसे माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय को इस मामले में ‘वन टाइम सेटलमेंट’ करवा देनी चाहिए। कहां विजयपत व उनकी पत्नी इस वृद्धावस्था में आहात और अपमानित होते रहेंगें? अब तो यह समस्या, समाज में बहुत अधिक प्रचालित हो गई है। हर घर में बेटे-बहु, माता-पिता के मरने से पहले ही; वे अपना हिस्सा मांगने लगते हैं? ना देने पर माँ-पिता के साथ आपराधिक व निर्ममता से व्यवहार किया जाता है। इन सभी सामाजिक-आर्थिक कुण्ठाओं के कारण भारत सरकार को, सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से संसद व राज्यों की विधानसभाओं ने यह कानून बनाया है। सामाजिक ताने-बाने को तार-तार किया जा रहा है, जहाँ माता-पिता पर असंख्य अपराध किये जाते हैं और वे सामाजिक भय से चुप-चाप घुट घुट कर जी रहें हैं। माता-पिता के खिलाफ अपराधों के भयानक मामलों को ध्यान में रखते हुए, सामाजिक न्याय और कल्याण मंत्रालय ने ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007’ को लागू किया। हालाँकि यह एक एसी तलवार है जिसे तेज़ धार देने की आवश्यकता है। एक ऐसा देश जो श्रवण-पुत्र और भगवान राम जैसे, मर्यादा पुरुषोत्तम, आदर्श बच्चों की कहानियों से भरपूर है, जो अपने माता-पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सभी हदों से आगे चले गए। अब कोर्ट-कचहरी में अनेक मात-पिता घूम रहे हैं! कितने शर्म की बात है?
अदालतों ने आदेश दिए हैं कि, हर बेटे का नैतिक व कानूनी दायित्व है, कि वे अपने माँ-पिता का भरण-पोषण करें। अधिनियम की धारा 4(2) बच्चों पर यह दायित्व डालती है कि वे वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण करें ताकि वे सामान्य जीवन जी सकें। दिसंबर 2022 में, ‘सुदेश चिकारा बनाम रामती देवी’ केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बुनियादी ज़रूरतों व सुविधाओं को प्रदान करना आवश्यक है। यह एक संपत्ति को स्थानांतरित (transfer of property to children)
करने के अधिनियम की धारा 23 के लागू होने के लिए अनिवार्य है। 19 मार्च 2024 भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड, ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को संबोधित करते हुए उन्हें प्राथमिकता के आधार पर; उन मामलों की पहचान करने और उनका निपटारा करने की सलाह दी, जिनमें 65 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति शामिल हैं। इनमें वरिष्ठ नागरिकों, पेंशनभोगियों और सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों के लंबे समय से लंबित मामले प्राथमिकता के आधार पर शामिल होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, उप-धारा (1) एक ऐसी स्थिति से निपटती है जहां संपत्ति के हस्तांतरण के साथ, वरिष्ठ नागरिकों के रख-रखाव और ज़रूरतों को प्रदान करना है। 2007 के अधिनियम की धारा 5 के तहत कार्यवाही को कितने दिनों के भीतर निपटाया जाएगा? (4) उपधारा (1) के अधीन प्रत्येक आवेदन का निपटारा न्यायाधिकरण द्वारा ऐसे आवेदन की प्राप्ति की तारीख से 90 दिन की अवधि के भीतर किया जाएगा। परंतु वरिष्ठ नागरिकों के मामले में, जो 80 वर्ष या उससे अधिक आयु के हैं, ऐसे आवेदन का निपटारा 60 दिन की अवधि के भीतर किया जाएगा। वरिष्ठ नागरिक नियम के नियम 22(3)(1) में वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति से बेदखली की प्रक्रिया का उल्लेख है और उप-नियम (iv) प्राधिकारी को संक्षिप्त कार्यवाही करने और भरण-पोषण न करने और दुर्व्यवहार के लिए बेटे, बेटी या कानूनी उत्तराधिकारी को बेदखल करने का स्पष्ट कानून है। याचिकाकर्ता, एक वरिष्ठ नागरिक द्वारा एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें अपीलीय प्राधिकरण/मंडल आयुक्त (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) द्वारा, दिनांक 28-06-2021 के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता द्वारा दिल्ली माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण नियम, 2009 के नियम 22(3) के तहत दायर एक अपील को खारिज कर दिया गया था।, जो कि जिला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित दिनांक 04-04-2019 के आदेश के खिलाफ दायर किया गया था [माहेश्वरी देवी बनाम जीएनसीटीडी, 2024 एससीसी ऑनलाइन डेल 1197, 19-02-2024 को तय]। प्रतिवादी 4 व्यक्तिगत रूप से संबंधित माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम के तहत बेदखली के अधिकार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की व्याख्या 4 सितंबर, 2023 “केस ब्रीफ्स” में वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के अंतर्गत शामिल नहीं होने वाले संपत्ति विवाद मेें दिल्ली हाईकोर्ट ने इस अधिनियम के उद्देश्य पर जोर दिया कि वरिष्ठ नागरिकों का कल्याण सुनिश्चित करना है। हाल ही में जस्टिस नागरतना, सर्वोच्च न्यायालय की न्याधीश ने ब्यान दिया था कि, “एक बार शादी हो जाए तो बेटा माँ-बाप का नहीं, बस अपनी पत्नी का ही बन कर रह जाता है”। सारांशाार्थ यह कहा जा सकता है, कि अभी भी ऐसी संतानें हैं, जो अपने माता-पिता के लिए जान भी दे सकते हैं. परंतु सर्वोच्च न्यायालय में अपने रिटायर होने से पहले, (नवंबर 2024) जस्टिस डा. धनंजय यशवंत चंद्रचूड को एक जूडिशल ऑर्डर पास कर देना चाहिए, कि माँ बाप की सम्पत्ति, स्वेच्छा या घपलों से हड़पने वाली संनों पर आपराधिक कार्यवाही हो या नहीं, परंतु न्यायालय उस सम्पति को ‘अपने कब्ज़े में कर लें’ (attachment) व 45 दिनों में, मां-बाप को प्रताड़ित करने वाली सन्तान को ‘डिस्पोज़ेस’ किया जाए। वैसे तो इलाक़ा डिस्ट्रिक्ट को यह शक्ति दी गई है, परंतु ऐसे दु:खदाई मुकदमों को ‘मिडियेशन व मध्यस्थता’ द्वारा जल्द से जल्द निपटाने के आदेश देने चाहि। 5-6 सालों से ‘सीनियर सिटिज़नस’ व वरिष्ठ नागरिक, न्यायालयों में घूमते रहते हैं। न्यायधीशों को इन मामलों में माँ-बाप के लिए विशेष रूप से सहानुभूति रखते हुए शीघ्र फ़ैसला देना चाहिए। न्यायिक प्रणाली पर भी सामाजिक-आर्थिक ज़िम्मेवारी है कि वे संविधान द्वारा पारित ऐक्ट को सख़्ती से लागू करें। माँ बाप की सुरक्षा, सरकार को न्याय व सामाजिक सुरक्षा के विशेष कार्यक्रम करने की कोशिश निरंतर करते रहनी चाहिए। “माटी कहे कुमार से एक दिन ऐसा आयेगा, हंस चुगेगा दाना तिनका, कौआ मोती खाएगा”! मत फैंकें अपने माँ-बाप को अनाथालय या
वृद्धाश्रम में! उनकी सेवा कीजिए! अपने माता-पिता का आदर कीजिए व उन्हें सुरक्षित रखिए यह कानून ही नहीं, सन्तान का धार्मिक व नैतिक कर्त्तव्य भी है।
प्रो. नीलम महाजन सिंह
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, दूरदर्शन व्यक्तित्व, समाज कल्याण परोधा व मानवाधिकार संरक्षण सॉलिसिटर)
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