महान फिल्मकार श्याम बेनेगल साहब मेरे लिए सिनेमा के किसी प्रोफेसर की तरह थे
DEEP BHATT, Sr. Journalist, film critic, author
दोस्तो, महान फिल्मकार श्याम बेनेगल साहब मेरे लिए सिनेमा के किसी प्रोफेसर की तरह थे। साथ ही एक बेहतरीन दोस्त सरीखे भी। मायानगरी की चकाचौंध भरी दुनिया में वे अकेले ऐसे महान फिल्मकार थे जो सादगी की प्रतिमूर्ति थे। उनसे मिलना बहुत ही सहज था। पास बैठो तो महसूस हो जाता था कि हम कितने सरल सहज इंसान से बात कर रहे हैं। सिनेमा की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात को लेकर किए गए हर सवाल का उनके पास जवाब था। इंटरव्यू शुरू करने से पहले वे मुझसे जरुर पूछते थे दीप अंग्रेजी में सवालों का जवाब दूं तो चलेगा। मैं उनसे फौरन कहता आप बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैं वैसे ही बोलिए चलेगा और वे हिन्दी में बातचीत शुरू कर देते थे। वे हिन्दी सिनेमा के ही नहीं विश्व सिनेमा के विद्वान थे। मेरा उनका नाता कोई 23 साल पुराना था। वर्ष 2001 में मैं उनसे पहली बार हाजी अली के पास एवरेस्ट बिल्डिंग में इंटरव्यू के सिलसिले में मिला था। तब मैं हल्द्वानी में दैनिक अमर उजाला में सब एडिटर हुआ करता था। उनके कक्ष में पहुंचते ही सबसे पहले उनकी लाइब्रेरी किसी भी व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करती थी। उनकी लाइब्रेरी में साहित्य सिनेमा, थिएटर और संगीत विषयों की सैकड़ों किताबें हुआ करती थीं। मैं समझता हूं वे भारतीय फिल्मोदयोग के अकेले ऐसे महान फिल्मकार थे जो सबसे ज्यादा अध्ययनशील व्यक्ति थे। बाद में उन्होंने लाइब्रेरी की काफी किताबें अलग अलग संस्थाओं को वितरित भी की। वे सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे महान फिल्मकारों की परंपरा के ही व्यक्ति थे पर उनका अपना एक अलग मुहावरा था। वे हिन्दुस्तान में शोषितों वंचितों और उत्पीड़ित व्यक्तियों के दर्द को सिनेमा के जरिए व्यक्त करने वाली अकेली और आखिरी आवाज थे। मैंने उनके इंटरव्यू अमर उजाला के लिए ही नहीं दैनिक हिन्दुस्तान और इस समूह की प्रतिष्ठित पत्रिका कादम्बिनी के लिए भी किए। सिनेमा का मुझे जुनून है। कादम्बिनी की हर महीने की एक थीम हुआ करती थी सो उस पर किसी न किसी अंक के लिए मेरी उनसे बात होती ही थी। मेरी मजबूरी यह होती थी कि मुझे बातचीत के लिए या तो किसी पार्क में जाना पड़ता था या फिर किसी ऐसी जगह पर जहां शांति हो। एक दिन तो यह हुआ मैंने उन्हें फोन किया और थीम बताई तो उन्होंने कहा लिखिए। मैं सड़क पर था सो वहां खड़ी कार के बोनट पर डायरी रखी और लिखना शुरू कर दिया। उनके सिनेमाई योगदान पर एक पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है। साथ ही उनकी सादगी और सज्जनता पर भी एक बड़ी किताब बन सकती है। मैं उन्हें हर साल 14 दिसंबर पर उनके जन्मदिन पर विश किया करता था पर इस बार फोन करता रहा पर वे फोन सुनने की स्थिति में नहीं थे। उनके जन्मदिन पर मैं उनसे ज़रूर कहता था कि आज़ कोई छोटा आदमी पैदा नहीं हुआ। आज़ ही राजकपूर साहब का जन्मदिन पड़ता है और आज़ ही के दिन महान गीतकार शैलेन्द्र और स्मिता पाटिल दुनिया से रुखसत हुए। तो आज़ बड़े लोगों का दिन है। मेरी इस बात पर वे जमकर ठहाका लगाते। वर्ष 2022 में मैं अपनी किताब भारतीय सिनेमा फिल्मी हस्तियों से संवाद के विमोचन के लिए उनके दफ्तर गया था। मेरे साथ मेरा दोस्त नफीस भी साथ था। उन्हें फोन किया तो बोले आप कहां पर हैं। मैंने कहा मैं वर्सोवा बस स्टैंड के पास हूं तो बोले लंच के बाद आ जाओ। मैं लंच के बाद आफिस पहुंचा तो दिल खोलकर बातें हुईं। मैंने कहा आजकल दिनचर्या क्या रहती है तो उनके हाथ में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अंग्रेजी में कोई किताब थी। किताब की ओर इशारा करते हुए बोले यह। मैंने कहा इन्हें क्या पढ़ रहे हैं। ये तो आर एस एस के आदमी थे। उन्होंने ज़ोरदार ठहाका लगाया और ठहाके के कारण उनकी आंखें मूंद गई। उनके साथ बातचीत में ऐसा कई बार हुआ। मैंने पूछा इस वक्त कितनी उम्र है, बोले 88 साल। इस साल 14 दिसंबर को 89 का हो जाऊंगा। मैंने कहा आप देव साहब का रिकॉर्ड तोड़ेंगे। एक बार फिर से उन्होंने ज़ोरदार ठहाका लगाया। उनसे सिनेमा को लेकर दुनिया जहान की बातें हुईं। एक बार उनसे पूछा ओमपुरी साहब और नसीरुद्दीन शाह साहब को फिल्मों में कैसे ले लिया। किसी ने कोई आब्जेक्शन नहीं किया। बोले मेरे साथियों ने आपत्ति की थी कि आप किस आदमी को ले रहे हो तो मैंने उन्हें जवाब में कहा था ओमपुरी नेशनल नहीं इंटरनेशनल एक्टर है। इतने दूरंदेशी थी उनमें और दूर दृष्टि भी। शबाना आजमी और स्मिता पाटिल को उन्होंने अपनी फिल्मों से वो हाइट दी कि वे कहां पहुंची आज़ दुनिया के सामने है। उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू साहब की किताब भारत एक खोज सीरियल बनाया तो कितना अद्भुत बनाया। उसका एक एक फ्रेम दर्शनीय है। उनकी अंकुर हो या निशांत या भूमिका या मंथन या मंडी या हरी भरी या वेलडन अब्बा या जंग ए आजादी सभी अद्भुत हैं। यहां तक कि जुबैदा का भी एक एक फ्रेम दर्शनीय था। शशि कपूर साहब ने उनके निर्देशन में छह फिल्मों का निर्माण किया। वे भी उनकी सभी अद्भुत फिल्में हैं। अभी तो उनके निधन की खबर से मन इतना दुःखी है कि दिमाग एकदम सुन्न सा हो गया है। उनकी बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीबुर्रहमान पर बनी बायोपिक भी एक सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। मुझसे कह रहे थे मैं अगली फिल्म की तैयारी में हूं पर अब तो वे एक अलग दुनिया के लिए कूच कर गए हैं। आख़िरी दिनों में वे शेख़ मुजीबुर्रहमान पर बनी बायोपिक की रिलीज़ में हो रही देरी से थोड़ा तनाव और थोड़ा दुःखी थे लेकिन फिल्म की रिलीज के बाद उनमें वही उत्साह था। लेकिन आखिरी दिनों में स्वास्थ की खराबी और डायलिसिस से वे काफी कमजोर हो गये थे। चेहरे पर बीमारी का असर और थकान नजर आने लगी थी पर इस तरह अचानक उनके जाने की खबर आएगी सोचा नहीं था। उनके साथ बिताए मधुर पल कभी भुलाए नहीं जा सकते। आख़िरी मुलाकात में उन्होंने मेरी डायरी में लिखा था एक्सीलेंट जर्नलिस्ट एंड फाइन ह्यूमन बीन्ग और भी न जाने क्या क्या। मैंने कहा आज़ तो आपने क़लम तोड़ दी। इस पर उनका ठहाका याद आ रहा है पर भीतर से रुलाई फूट रही है। उनकी मधुर स्मृतियों को नमन। श्याम बाबू आप भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं रहे। शरीर के उस ढांचे में नहीं रहे जिससे हमारा मिलना जुलना होता था। पर आप जो काम करके गये हैं वह युगों तक रहेगा।