बेहतर होता कि मन्दिर समिति 230 किलो सोने को किसी बडे बैंक मे रखवाकर उससे प्राप्त होने वाले धन से स्कूल और अस्पतालों का संचालन करती।
प्रोफेसर जयजीत बर्थवाल
कुछ समय पहले महाराष्ट्र के एक धन्नासेठ ने केदारनाथ मन्दिर की छत और भीतरी दीवारो पर सोना मढवा दिया। इसके लिये 230 किलो सोने से 550 गोल्ड प्लेटे बनवायी गयी। एएसआई याने आर्कौलौजिल सर्वे ऑफ इण्डिया के अधिकारियो के तत्वावधान मे कुछ कारीगरो ने इस काम को अंजाम दिया। लेकिन सोने की प्लेटो को दीवारो पर जडने के लिये ड्रिल मशीनो का इस्तेमाल होता देख केदारनाथ के पुरोहित वर्ग ने इसका पुरजोर विरोध किया।
उनका कहना था कि ड्रिल मशीनो द्वारा मन्दिर की शिलाओ पर छेद करने से शिलाए भीतर से चटक सकती है और मन्दिर की दीवारे कमजोर पड सकती है, इसलिये सोने को बिना ड्रिल किये ही मढा जाना चाहिये। लेकिन सरकार ने पुरोहितो की एक न सुनी। जनसमुदाय पुरोहितो के साथ आकर न खडा हो जाये इस कारण आनन फानन मे इस कार्य को अंजाम दे दिया गया। मै समझता हू पुरोहितो की बात बिल्कुल सही थी। यह दायित्व तो एएस आई के विशेषग्यो का बनता था कि वो सरकार को ऐसा करने से रोकते। पुरातत्व के महत्व को भला एएस आई से ज्यादा कौन समझ सकता है। अपनी पुरातत्व वेल्यू के हिसाब से केदारनाथ मन्दिर की शिला का एक कतरा भी 230 किलो सोने से कही अधिक मूल्यवान है। फिर शिला के मूल्य की तो बात ही क्या। टेलीविजन चैनलो ने भी मन्दिर के नवीन दृश्य को अलौकिक बताया जिसे सेठ के बटुये की करामात ही समझना चाहिये। भष्म से श्रृंगार करने वाले भोले बाबा के स्थान की जो अलौकिकता उसकी मौलिकता मे हो सकती है वह कृतिमता और सोने की चमक दमक से कैसे संभव है? वह भी मन्दिर की अमूल्य शिलाओ पर ड्रिल मशीनो का घातक प्रहार करके। बेहतर होता कि मन्दिर समिति 230 किलो सोने को किसी बडे बैंक मे रखवाकर उससे प्राप्त होने वाले धन से स्कूल और अस्पतालो का संचालन करती।
(ये लेखक के निजी विचार हैं )