बिहार जातिगत जनगणना: पार्टियों के लिए अवसर भी और परीक्षा भी
कुशाल जीना
हाल ही में बिहार सरकार द्वारा जारी की गई प्रदेश की जातीय जनगणना रिपोर्ट जहां एक ओर विपक्षी गठबंधन इंडिया को सत्तारूढ़ राजग के समावेशी हिंदुत्व रूपी किले को भेदने का मोका देती है वहीं भाजपा को इसे बरकरार रखने की चुनौती भी प्रदान करती है।
इसमें दो राय नहीं है कि यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल की सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि इस रिपोर्ट के आने के बाद उनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना की उपेक्षा करना जटिल होने जा रहा है।
इस रिपोर्ट में अति पिछड़ा वर्ग की संख्या सबसे अधिक 36 प्रतिशत बताई गई है और सत्ता में भागीदारी केवल 11 प्रतिशत। मोदी शाह की समावेशी हिंदुत्व वाला सफल समीकरण का मूलभूत आधार यही वर्ग है जिसका वोट तो लिया गया पर भागीदारी सुनिश्चित नहीं की गई।
अब देखना यह है कि दोनों पक्ष इस गणित को रसायन विज्ञान में कैसे बदलते हैं। उसी आधार पर यह तय होगा कि इस रिपोर्ट को दूसरे मंडल आयोग की संज्ञा दी जाए या नहीं।
मौजूदा राष्ट्रीय और बिहार का राजनीतिक परिदृश्य 2014 से एकदम अलग है क्योंकि तब राजग एक मजबूत गठबंधन था जिसने बिहार विधान सभा में बहुमत और लोक सभा की 40 में से 39 सीटें जीती थीं।
पर अब नीतीश कुमार राजग छोड़कर विपक्षी गठबंधन इंडिया में शामिल हो चुके हैं और इस रिपोर्ट के आंकड़े दर्शाते हैं कि प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी को इस रिपोर्ट से फायदा होगा।
छत्तीस प्रतिशत की आबादी वाला अतिपिछड़ा वर्ग जो किसी समय लालू प्रसाद यादव के साथ हुआ करता था वह कालांतर में नीतीश कुमार के साथ चला गया क्योंकि नीतीश ने इस वर्ग की भलाई के लिए काफी कम किया था।
यह वर्ग जो बिहार में नीतीश और भाजपा के साथ था, उत्तर प्रदेश और मध्य भारत में नीतीश की गैरमौजूदगी में भाजपा से जुड़ गया जिस कारण उत्तर और मध्य भारत में भाजपा को लगातार रिकॉर्ड तोड़ सफलता प्राप्त होती रहीं।
इस रिपोर्ट के बाहर आने से भाजपा के इस अकाट्य समीकरण को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। इस रिपोर्ट ने महिला आरक्षण विधेयक जैसी भाजपाई चाल को भी नाकाम कर दिया है क्योंकि विधेयक में महिलाओं को अगली जनगणना पूरी होने के बाद आरक्षण देने की बात कही गई है जबकि विपक्ष तुरंत 2011 की राष्ट्रीय जातीय जनगणना के आधार पर आरक्षण की बात कर रहा है। यहीं भाजपा फंस गई दिखती है।
बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अति पिछड़ा वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा 36 प्रतिशत है, उसके बाद पिछड़ा वर्ग 27 प्रतिशत है, अनुसूचित जाति 19, अनुसूचित जनजाति 1 प्रतिशत और उच्च जाति 15 प्रतिशत है जबकि मुस्लिम 17 प्रतिशत हैं।
हैरत से भरा एक सवाल यह भी उठ रहा है कि कांग्रेस जिसने जातीय जनगणना का समर्थन कभी नहीं किया वह अब ऐसा क्यों कर रही है। इसका सीधा मतलब यह है कि कांग्रेस और खासतौर पर राहुल गांधी इस राजनीतिक सच्चाई को समझ गए हैं कि उच्च जाति वर्ग उसको अब नही मिल सकता, इसलिए पार्टी को पिछड़े और अति पिछड़ा वर्ग तथा दलित वर्ग को खुद से जोड़ना होगा। इसके लिए सबसे पहले कांग्रेस पार्टी को ब्राह्मण वर्सच्व से बाहर निकलना होगा। राहुल काफी समय से यही काम कर रहे हैं। पार्टी के भीतर कुछ शीर्ष नेताओं की बगावत का कारण उनकी यही कोशिश थी। यूं भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस अब अपने पारंपरिक उच्च, दलित और मुस्लिम समुदाय के दायरे से बाहर निकलना चाहती है l
अति पिछड़ा वर्ग के सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व के बीच काफी समय से यह सुगबुगाहट महसूस की जा रही थी कि उनको उनके न्यायिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। बिहार जातीय जनगणना रिपोर्ट के बाद से सभी का ध्यान उनकी ओर अग्रसर होना तय है क्योंकि यह वर्ग बिहार की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा है।
इस रिपोर्ट का असर बिहार की सीमाओं से बाहर निकलकर समूचे उत्तर और मध्य भारत में फैलना लाज़िम है। यही वर्ग जब दलित, मुस्लिम, पिछड़ा वर्ग से मिलेगा तो भाजपा का समावेशी हिंदुत्व जो अति पिछड़ा, पिछड़ा और दलित को धर्म के नाम पर फुसलाने की सोचो समझी साजिश है, हवा हो जायेगी। यह डर इन दिनों प्रधानमंत्री और पूरी भाजपा को बुरी तरह सता रहा है।
इस रिपोर्ट का तत्कालीन असर यह पड़ सकता है कि अति पिछड़ा वर्ग प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर अपने हक का दावा ठोकेगा जिसे देने में विपक्ष को दिक्कत नहीं होगी पर भाजपा के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा क्योंकि ब्राह्मण बहुल आरएसएस और भाजपा के अन्य बड़े नेता इसके लिए राजी नहीं होंगे।
जिस तरह 1970 के दशक में बिहार ने इंदिरा गांधी विरोधी राजनीति को रास्ता दिखाया था उसी तरह यह रिपोर्ट भाजपा में मोदी युग की समाप्ति का आगाज करेगी या नही यह तो भविष्य के गर्भ में है।
लोक सभा चुनाव नजदीक आते ही यह रिपोर्ट इस बात को भी रेखांकित करेगी की पिछले तीन दशकों में भारतीय समाज बदला भी है या नहीं।