कुशाल जीना
लगता है कि महाराष्ट्र की सत्ता की गुत्थी फिर से उलझ गई है क्योंकि भाजपा ने शिंदे का दामनछोड़ कर अजीत पवार को गले लगा लिया है।
वह भी इस आस में कि शिंदे के 16 विधायकों के संभावित निष्कासन के बावजूद सरकार बनी रहेगी।
मसला फंसा था प्रदेश के 12 विधान सभा में देखभाल (guardian) मंत्रियों की नियुक्ति का। इन 12 क्षेत्रों में शिंदे अपना दबदबा चाहते थे जबकि अजीत पवार पुणे और उसके आस पास की सीटों पर अपने समेत केवल अपने लोगों को बिठाया जाना चाहते थे।
इनमें से एक पुणे सीट पर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल विराजमान थे। अब अजीत पवार ने उस सीट पर अपना व्यक्तिगत दावा ठोक दिया। इससे भाजपा की परेशानियां बढ़ गई हैं।
मसले का हल निकाला अमित शाह ने जब उन्होंने शिंदे, पंवार और फडणवीस को दिल्ली तलब करके साफ शब्दों यह फ़ैसला सुना दिया की अजीत पंवार के मनमुताबिक देखभाल मंत्रियों की नियुक्ति जायेगी।
इस नए विवाद में भाजपा के पास अजीत पवार की बात मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा है। लेकिन शाह के इस फैसले ने प्रदेश स्तर पर शिंदे और भाजपा दोनों गुटों के बीच तनाव पैदा कर दिया जो कभी भी बगावत का रूप ले सकता है।
दरअसल, गठबंधन की राजनीति प्रधान मंत्री और उनके संकटमोचक से मेल नहीं खाती क्योंकि दोनों ने ऐसी राजनीति कभी की ही नहीं।
उनकी यही अनुभवहीनता परेशानियों का सबब बन गई हैं।
मोदी और शाह ने कभी भी कोई राजनीतिक या चुनावी गठबंधन बनाया ही नहीं । एनडीए के रूप में इनको जो भी मिला वह अटल बिहारी बाजपेई और आडवाणी की विरासत है। इस बात की पुष्टि मोदी के राष्ट्रीय फलक में आने के बाद के परिदृष्य से समझा जा सकता है।
मोदी शाह एनडीए में कोई नया सहयोगी दल नहीं जोड़ सके बल्कि इसके विपरीत अकाली, अन्नाद्रमुक जैसे पुराने और पारंपरिक सहयोगी खो दिए।
( लेखक के अपने विचार हैं)