पुरस्कार दो! पुरस्कार दो!!पुरस्कार दो!! पत्रकारिता का नशा तब सर चढ़ बोलेगा
भूपेन सिंह , लेखक , पत्रकार
आज रामनाथ गोयनका एक्सिलेंस इन जर्नलिज़्म अवॉर्ड्स दिये जाने हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सोलह श्रेणियों में पत्रकारों को पुरस्कृत करेंगे. लेकिन भारतीय पत्रकारिता के ये तथाकथित सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार मेरे लिए सत्ता और निजी बिज़नेस कॉरपोरेशंस को दी जाने वाली वैधता के अलावा कुछ नहीं हैं.
दस-बारह साल पहले जब मैंने पहली बार इन पुरस्कारों के बारे में समयांतर पत्रिका में लिखा तो मेरे कई दोस्त नाराज़ हो गये थे. इनमें से कुछ पुरस्कार पाने वाले थे तो कुछ उनके समर्थक. उस बार की जूरी में कई निजी व्यापारिक कंपनियों के डायरेक्टर्स शामिल थे.
आज फिर कहने की ज़रूरत है कि ये पुरस्कार मुख्य रूप में निजी व्यापारिक कंपनियों और उनसे संचालित मीडिया की वैधता के लिए दिये जाते हैं. ऐसा ज़रूर हो सकता है कि पुरस्कार पाने वाले कुछ पत्रकार सत्ता या कॉरपोरेट के समर्थक न हों, लेकिन ये पुरस्कार है. इस पुरस्कार के व्यावसायिक और सत्ताधारी प्रयोजक इस बात के सबूत हैं.
पुरस्कार इंडियन ऐक्सप्रेस ग्रुप के पूर्व मालिक रामनाथ गोयनका के नाम पर दिये जाते हैं. गोयनका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता और जनसंघ से सांसद भी रहे हैं. उनके धुर कांग्रेस विरोधी होने को तब के भोले-भाले बुद्धीजीवी लोकतांत्रिक पत्रकारिता का पक्षकार मान बैठे थे.
इन पुरस्कारों को पाने वालों में आज के कई महान पत्रकार शामिल हैं. उनमें अर्णब गोस्वामी और सुधीर चौधरी से लेकर बरखा दत्त और रवीश कुमार तक शामिल हैं. कई को तो ये पुरस्कार दो-तीन बार भी मिल चुका है. याद रहे कि इस पुरस्कार को हासिल करने के लिए प्रार्थना पत्र देना पड़ता है.
ये पुरस्कार मुझे दुनियाभर में मशहूर पत्रकारिता के पुलित्ज़र पुरस्कारों की याद दिलाते हैं. उन्हें भी अमेरिकी मीडिया मालिक और सांसद जोजेफ़ पुलित्ज़र के नाम पर दिया जाता है. उसे पीत पत्रकारिता यानी सनसनीखेज़ और बाज़ारू पत्रकारिता के जनक के तौर पर याद किया जाता है. यानी घटिया काम करने वाले मालिक के नाम पर सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार.
मैं ये समझता हूं कि जैसी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था होगी, हमारा मीडिया भी वैसा होगा. लेकिन इसे ठीक करने का संघर्ष जारी रहना चाहिए. ऐसा तभी हो सकता है जब समाज में आलोचना करने का स्पेस बचा रहेगा.
इन पुरस्कारों पर सोचते हुए मुझे अपने एक पसंदीदा चिंतक अंतोनियो ग्रैम्शी याद आते हैं. वे कहते हैं कि पूंजीवादी सत्ता अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाती रहती है.
भारतीय मीडिया पर ज़्यादा जानकारी के लिए मेरी प्रकाशनाधीन किताब “क़ैद में मीडिया: पूंजीवाद, पत्रकारिता और लोकविमर्श” का इंतज़ार कीजिए. उसमें आपको इस विषय पर विस्तृत जानकारी मिलेगी. ( From FB writer’s Timeline)
( लेखक के अपने निजी विचार हैं )