पितृपक्ष : भारतीय संस्कृति में श्राद्ध : By पार्थसारथि थपलियाल
संस्कृति-
पितरों के प्रति श्रद्धापूर्वक किया गया कार्य ही श्राद्ध है। मनुष्य चिंतनशील और विवेकवान प्राणी है। शास्त्रों और अनुभवों से उसनें ज्ञान अर्जित किया और उस ज्ञान को लोक कल्याण में लगाया। मूलतः भारत में आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन हैं और दोनों दर्शनों नें अपने अपने ढंग से लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। नास्तिक दर्शन के आचार्य चार्वाक मानते हैं कि-
यावदजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।
भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमं कुतः।।
अर्थात जबतक जिओ सुखपूर्वक जिओ, कर्ज़ लेकर भी घी पिओ। मरने पर शरीर भस्म कर दिया जाता है, बाद में कौन यहां आता है? किसने देखा है?
आस्तिक दर्शन मानता है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यदकिंचित जगत्यञ्जगत।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृद्धकश्यचिदद्धनं।। (ईशोपनिषद)
अर्थात ईश्वर संसार मे सर्वत्र व्याप्त है हमें त्याग भाव से अपना पोषण करना चाहिए। इसका भाव यह हुआ कि केवल अपनी ही न सोचें संसाधनों का उतना ही उपयोग करें जितना आवश्यक है, आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हमें कुछ बचना चाहिए। सनातन संस्कृति में आने वालों की चिंता तो है ही, जो हमारे मध्य जीवित नही हैं उनकी भी चिंता करना संनातन संस्कृति है। एक व्यक्ति के प्राण निकलने पर वह निष्प्राण हुआ। देह का अंतिम संस्कार कर दिया। आत्मा किसी और कि देह को ऊर्जावान बनाने निकली लेकिन एक देह और आत्मा से निर्मित शरीर का सूक्ष्म भाव जिसे सामान्यतः देखा नही जा सकता पितर रूप में रहता है। यही पितर पितृपक्ष में पितृलोक से श्राद्ध का तर्पण करने आते हैं, अपनी तिथि पर श्राद्ध ग्रहण कर चले जाते हैं। कुतर्की ये जरूर पूछेंगे कि जिन संस्कृतियों में श्राद्ध नही होता उनके पितर कहाँ जाते हैं? सनातन संस्कृति में श्रद्धापूर्वक देने की संस्कृति है इसलिए ऐसे परिवारों के पितर ही आशावान रहते हैं। गाय भी सुबह सुबह उसी घर में गो ग्रास लेने जाती है जहां उसे कुछ संतुष्टि के लिए कुछ आहार मिलता है। जहां लठ्ठ बजने वाले हों वहां भूत भी नही आता।
श्राद्ध के बारे में ब्रह्मपुराण में लिखा है-
देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत।
पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम।।
देश (स्थान), समय और पात्र के अनुसार जो भोजन पितरों के निमित विप्रों को दिया जाय, वह श्राद्ध है। यह श्राद्ध पितृ श्राद्ध कहलाता है। शास्त्रों में कई श्राद्धों का उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में नित्य, नैमित्तिक और काम्य तीन प्रकार के श्राद्ध बताये गए हैं। भविष्य पुराण में इनकी संख्या 12 बताई गई है। ये हैं- नित्य श्राद्ध, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, सपिंड, परवान, गोष्ठी, शुद्ध्यर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ और पुष्ट्यर्थ श्राद्ध। श्राद्ध शब्द रूढ़ हो गया कि मृत व्यक्ति के संदर्भ में ही इसे लिया जाता है। जबकि शब्द श्राद्ध का उद्देश्य श्रद्धापूर्वक किये गए कर्म से है। कुछ लोग अपनी नित्य संध्या में, कुछ लोग देवपूजन में, कुछ लोग कामनाओं की पूर्ति के लिए श्राद्ध करते हैं। यहां तक कि सामान्य पूजाओं में भी जल पूजन, भूमि पूजन, दिशा पूजन, ग्राम देवता, स्थान देवता, ईष्ट देवता, कुलदेवता, पितृदेवता की पूजा अन्य देवताओं से पहले की जाती है। विवाह संस्कार के आयोजन में नान्दी श्राद्ध के बारे में सामान्य लोग भी जानते हैं। मार्कण्डेय पुराण में श्राद्ध के फल के विषय मे लिखा है-
आयु: प्रजां धनं विद्याम स्वर्ग मोक्ष सुखानि च।
प्रयच्छन्ति तथा राज्यमं पितर: श्राद्ध तर्पिता:।।
अर्थात श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।
स्वच्छ और शुद्ध कुल परंपरा भी इस कर्म में दिखाई देती है। श्रीमद्भगवत गीता के पहले अध्याय में अर्जुन के विषाद में कहे गए श्लोक संख्या 40-45 में यह बात भी शामिल है-
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनता:
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:। 41।।
संकरो नरकायैव कुलघ्नानाम कुलस्य च
पतंति पितरों ह्येषां लुप्तपिंदोदकक्रिया।। 42।।
…हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा होते हैं।….वर्णसंकर, कुल को नरक ले जाने के लिए होते हैं। लोप हुई पिंड और जल की क्रिया वाले इनके पितर भी गिर जाते हैं।
Om Pitrudevaya Namah🌸🙏🏼🌸
May all our ancestors be Happy n under Divine protection whereever they are…
🌻
Panditji who came to perform puja for Mommy n Papa was throughly innocent and humble being