नजफगढ़ की निर्भया को लेकर छलका प्रोफेसर असवाल का दर्द
प्रोफेसर हरेन्दर असवाल
माननीय उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में नजफगढ़ से अपहृत उत्तराखंड की गरीब परिवार की लड़की को ऐसा न्याय दिया कि बलात्कार और नृशंस हत्या करने वाले अपराधियों को सारे दुष्कर्मों के बाद भी बरी कर दिया । न्याय अंधा होता , सुना था , बहरा भी होता है यह भी समझ लिया । हतप्रभ हूँ , मेरे कानों में निर्भया जैसे कांड की चीत्कार रह रह कर गूंजती है और परेशान करती है ।न्याय कुछ नहीं होता घटना के तथ्यों के अलावा । उसमें मानवीय संवेदना भी नहीं होती । तथ्यों को ताकतवर लोग जिस दिशा में चाहें तोड़ मरोड़ सकते हैं । ऐसा लगता है जैसे कुछ नहीं हुआ , किरण का अपहरण नहीं हुआ , बलात्कार भी नहीं हुआ वह तो जैसे खेत में काम करने गई और भेड़िये ने उसे अपना शिकार बना लिया । कितना आसान है यह सोचना । उच्चतम न्यायालय के महान जजों ने ऐसा ही फ़ैसला किया । यह तो होता ही है । मान्यवर तीनों जजों को प्रणाम । आपने सिर्फ़ काग़ज़ पर खींची गई पेंसिल की लकीरों को देखा , यह भी नहीं देखा कि वे लकीरें कितनी बार काटी और मिटाई गई, तथ्य नहीं थे लेकिन एक बेटी जो जघन्य अपराधियों की शिकार हुई , वह कहीं नज़र नहीं आई ? आप साक्ष्यों को तलाशते – तलाशते इतने मशगूल हो गये कि यह भूल गये कि हम किस अपराध के तथ्य तलाश रहे हैं । हत्यारे तथ्य अगर वकीलों और जजों के लिए छोड़ देंगे तो फिर आप को यह समाज ईश्वर का दर्जा क्यों देगा ? यदि परिस्थिति जन्य साक्ष्य नहीं थे तो अच्छा होता पुलिस को पुनः आदेश देते , आपने तो दरिंदे हत्यारों को देवता बना दिया । क़ानून अंधा होता है लेकिन क़ानून के रखवाले तो अंधे नहीं होने चाहिए । अपराध के लिए दंड का प्रावधान ही संस्कृति को आगे बढ़ाता है ।यदि इसी तरह फ़ैसले होते रहे तो न संस्कृति बचेगी न मानवीय संवेदना । हम दुखी इसलिए नहीं हैं कि एक लड़की हवशी दरिंदों का शिकार हो गई, नहीं दुख का कारण बहुत गहरा है । जिस न्याय व्यवस्था पर हमें भरोसा था वह टूट गया । किसी भी समाज में न्याय से भरोसा उठ जाना उस न्याय व्यवस्था को ही सबसे बड़ी क्षति पहुँचाता है । आपने अपने न्यायिक आदेश में लिखा “ किसी भी प्रकार के बाहरी नैतिक दबावों से प्रभावित हुए बिना , प्रत्येक मामले को न्यायालयों द्वारा कड़ाई से योग्यता के आधार पर और क़ानून के अनुसार तय किया जाना चाहिए ।” हम भी यही चाहते हैं , न्याय भी यही चाहता है ।तो फिर फ़ैसला तदनुरूप क्यों नहीं हुआ ? उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरोपियों की गिरफ़्तारी,, उनकी पहचान , आपत्तिजनक वस्तुओं की खोज और बरामदगी ,चिकित्सा और वैज्ञानिक साक्ष्य , डी एन ए प्रोफ़ाइलिंग रिपोर्ट ,और सी डी आर के संबंध में सबूतों को साबित करने में सक्षम नहीं है ।अदालत ने यह भी पाया कि जाँच के दौरान कोई शिनाख्त परेड ,आयोजित नहीं की गई । “ यह सब किसकी गलती है ? ये साक्ष्य इकट्ठा करना क्या मृत्तिका ka काम था ? या उस गरीब परिवार का काम था जो अपने दुख से ही नहीं उबर पा रहा था ? न्यायालय को चाहिए था संबंधित जाँच अधिकारियों को आदेश देते कि पुन: मामले की व्यवस्थित जाँच करें , लेकिन न्यायालय ने तों दोषियों को दोष मुक्त ही कर दिया ! न्याय का काम है अपराधियों के मनसूबों को पुन: हवा न मिले , एक नज़ीर स्थापित करना , यहाँ तो ऐसा लगता है तुम जो मर्ज़ी करो सिर्फ़ शिनाख्त मत छोड़ना , बचा खुचा जाँच अधिकारी पलीता लगा देंगे , तुम फिर समाज में जाना और अगले शिकार की तलाश करना । इससे तो यही सीख मिलेगी ।माननीय न्यायाधीशों ने जो फ़ैसला दिया उससे तो ऐसा लगता है जैसे किन्हीं निरपराधी व्यक्तियों को फँसाया गया हो और उच्चतम न्यायालय ने उनके साथ न्याय किया है ।मुझे क्षमा करें मैं इस तरह की न्याय की कल्पना भी नहीं कर सकता । मैं तीन दिनों से यही सोच रहा हूँ कि मुझे न्यायालय के इस फ़ैसले के खिलाफ लिखना चाहिए कि नहीं , लेकिन मेरी अंतर्रात्मा की आवाज़ रुकी नहीं उसने लिखने के लिए विवश कर दिया । इसे न्यायालय की अवमानना की जगह न्याय की पुनर्स्थापना के रूप में एक अपील के रूप में देखने की प्रार्थना करता हूँ । धन्यवाद ।