जहां मूल ही न रहे वहां साहित्य, कला, संस्कृति कैसे सुरक्षित रहे? आज सबसे अहम प्रश्न यही है ?
नरेंद्र कठैत , साहित्यकार , लेखक, कवि
एक समय हमारा नारा था -‘कौंणी कंडाळी खायेंगे ,उत्तराखंड बनाएंगे।’ अब हमारे आगे प्रश्न चिन्ह ये है कि राज्य बना है लेकिन किसके लिए? क्योंकि राज्य बनने के दो दशक बाद भी हमारी दिशा और दृष्टि दोनों में धुंध है। हम या तो राजमार्गों का विस्तार देख रहे हैं या उनके सख्त कोलतार की पट्टी को पढ़ते हुए अपनी रफ़्तार नाप रहे हैं । लेकिन मनन करें इस भागदौड़ में अगली पीढ़ी के लिए हम क्या छोड़ रहे हैं?
ऋषिकेश बद्रीनाथ मार्ग पर ये कौड़ियाला का दृश्य है। यह सिंगटाळी ग्राम पंचायत का ही हिस्सा है। चित्र में बड़ी सी इमारत के पास जो एक छोटा सा टीन सेड है। वह विनोद राणा का टी स्टॉल है। स्टॉल के दूसरे बाजू पर एक अन्य इमारत की बुनियाद का काम जारी है। वहीं राजमार्ग के दूसरे छोर पर ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम ‘का पर्यटन आवास है।
चित्र इसलिए कि सचित्र समझा जा सके। दरअसल विनोद राणा कौड़ियाला के भूमिधरों की उस पीढ़ी का है जिसके पास मुख्य मार्ग पर जमीन का ये टुकड़ा है। पूछा- ‘भुला तुम्हारे पास यहां कितना हिस्सा है?’ कहता है- ‘भाई साहब जगह कहां है ? मुंह आगे नाली है और पीठ पीछे कमर टेकने भर का सहारा है। ‘ इतना कहते ही वह अपनी नजरें टी स्टॉल के आगे खड़े टेलीफोन के बेजान खंभे पर जमा देता है। क्योंकि वह खंभा भी निकट भविष्य में उखड़ने वाला है।
हालांकि विनोद के सर पर छत है। और ये छत उसके पितृ पितामहों का आशिर्वाद है। लेकिन उसके मन में एक टीस जरूर है कि उसके साथ आखिर अन्याय क्यों हुआ है?
ज्ञात हुआ कि कौड़ियाला ही नहीं सिंगटाळी का भी अधिकांश भाग औने-पौने दामों में बेच दिया गया है।
अमूमन पहाड़ी प्रदेश में राजमार्गों की ही नहीं अपितु धार-खाळ, सड़क मार्गों से सटे गांवों की भूमि की यही स्थिति है। कितनी विडम्बना है कि हम जल- जंगल – सम्पत्ति बेचकर पहाड़ से नीचे उतर रहे हैं और अन्य हैं कि पहाड़ पर अपना भविष्य तलाश रहे हैं।
जहां मूल ही न रहे वहां साहित्य,कला, संस्कृति कैसे सुरक्षित रहे? आज सबसे अहम प्रश्न यही है।