जब सुविख्यात कवि, चिंतक , लेखक मंगलेश डबराल जी की ट्रेन छूटते छूटते बची
उम्दा लेखक सुभाष तराण द्वारा
दिसंबर 2020 के सर्द होते दिनों के दौरान कोविड-19 के भयावह माहौल में छतरपुर के सरदार पटेल कोविड केयर सेंटर से लौटते हुए कवि असद जैदी की फ़ेसबुक वॉल पर जब भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में कोरोना से पीडित मंगलेश डबराल की बिगड़ती तबियत की खबर मिली तो मन भारी हो उठा। उन्हे बेहतर ईलाज के लिए दिल्ली के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया था लेकिन उनको लेकर मेरे चिंतित होने का कारण यह था कि कोरोना के अलावा कुछ साल पहले उनके दिल की बाई पास सर्जरी हो चुकी थी और वे ऑटो इम्यून डिजीज से भी पीड़ित थे। ऐसे में उनके वेंटिलेटर पर होने की खबर ने मुझे निराशाओं के उस गर्त में ढकेल दिया जहाँ से एक रोज बाद उनके देहावसान की खबर निकल कर आई।
मंगलेश डबराल से मेरी दोस्ती ज्यादा पुरानी नही थी लेकिन उम्र में एक पीढी का अंतर होने के बावजूद थोडे से समय में ही हम दोनो के बीच आत्मीयता इतनी गहरी हो गयी थी मानो हम दोनों बचपन के लंगोटिया यार रहे हो। कुछ साल पहले हमारी पहली मुलाकात गाजियाबाद के रेलवे स्टेशन पर हुई थी। हम दोनो को ही महादेवी सृजन पीठ द्वारा आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रामगढ़ जाना था। महादेवी सृजन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिह रावत ने गुजारिश की थी कि मैं अपने साथ साथ मंगलेश डबराल की भी टिकट बुक करवा लूं। मंगलेश दादा से मेरी फोन पर बात हो गयी थी। उन्होंने कहा था कि उन्हे दिल्ली की बजाय गाजियाबाद ज्यादा नज़दीक और सुविधाजनक है और वे मुझे वहीं मिलेंगे।
रात के साढ़े दस बजे रानीखेत एक्सप्रेस गाजियाबाद रेलवे स्टेशन पर रूकी तो प्लेटफॉर्म पर कोई नजर नही आया। गाडी मात्र दस मिनट के लिए रूकी थी। पाँच मिनट उन्हे इधर उधर देखने और उसके बाद फोन मिलाने में निकल चुके थे। मैने उन्हे फोन मिलाया ही था कि दूर प्लेटफार्म के पिछले छोर पर हाथ में सूटकेस लिए एक परछाई अपनी एक विशेष चाल में कोच की तरफ बढ़ी चली आ रही है। कद काठी का अंदाजा लगाकर मैने उन्हे पहचान लिया। वह थोडा ही आगे बढ पाए थे कि इतनी देर में प्लेटफार्म के अगले छोर पर खडा सिग्नल हरा हो गया और रेल के पहिए हरकत में आ गये। स्थिति को भांप मैने उनकी तरफ दौड़ लगा दी। पटरी पर आगे को सरक रही रेल गाड़ी के विपरित भागते हुए मै उनके पास पहुंचा और उन्हे अपना परिचय देते हुए उनके हाथ से सूटकेस ले लिया और सामने से गुजर रहे रेल के एक डिब्बे में तेजी से पहले सूटकेस फिर मंगलेश दादा और अंत मे खुद को चढ़ा दिया। इस जद्दोजहद मे हम अपने कोच से चार डिब्बे पीछे चढ़ पाए थे और हमारी रेल छूटते छूटते बची थी।
मंगलेश दादा के साथ रेल गाड़ियों के छूटने और छूटती रेल गाड़ियों को पकड़ने के किस्से और भी बहुत से है। उस रात अपनी लेट लतीफी को कोसते हुए पसीना-पसीना हो चुके मंगलेश डबराल अपने खास अंदाज में मुझे शुक्रिया कहा और हम अपने लिए आरक्षित कोच में आ गये थे। थोडा सुस्ताने और एक सिगरेट पीने के बाद उन्होंने पहले मुझे अपने बारे में तफसील से बताया और फिर मेरा परिचय पूछा। मैने उन्हे बताया कि मै पहाड का रहने वाला हूँ और दिल्ली में नौकरी करता हूँ। उन्हे लगा था कि मै शायद अनुवादक हूँ। मैने उनका यह ख्याल यह कह कर दुरूस्त कर दिया कि मेरा अनुवाद से कोई लेना देना नही है और मैं सरकारी महकमे में एक साधारण सा बाबू हूँ। वे हंसते हुए कहने लगे, ‘तुमने ग्रेजुएशन कहाँ से किया है।’ मैने झिझकते हुए कहा कि मैं तो बस 12 वीं पास हूँ। मुझे उदास देखकर उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और मुस्कुराते हुए कहने लगे, ‘अरे भाई, डिग्री से क्या होता है, मैं तो खुद भी ग्रेजुएट नही हूँ।’ मुझे लगा था कि उस वक्त उन्होने यह बात मेरा दिल रखने के लिए कही है लेकिन बाद में एक बार देहरादून जाते हुए मुझसे एक सज्जन ने कहा कि मुझमें और मंगलेश डबराल मे कवि और पहाडी होने के अलावा जो एक और समानता है वह यह है कि दोनो ही ग्रेजुएट नही है।
मंगलेश दादा साहित्यिक कार्यक्रमो के ही नहीं उसके बाद शाम को जमने वाली महफिलों के भी हीरो हुआ करते थे। कविता के अलावा उनकी संगीत की समझ कमाल की थी। एक बार काठगोदाम से लौटते हुए बोगी में कवियों की मौजूदगी के चलते यात्रियों का हमारे केबिन में जमवाडा लग गया। इस जमवाडे के दौरान अचानक दो दक्षिण भारतीय लड़कियां जो दुबई मे रहती थी और नैनीताल घूमने आई थी, मंगलेश दादा से शास्त्रीय संगीत पर चर्चा करने लगी। वे दोनो शास्त्रीय संगीत मे पारंगत थी लेकिन अपने मंगलेश दादा भी कम नही थे। फिर क्या था। तीनो की जुगलबंदी ने दिल्ली की तरफ दौड़ती रेल के डिब्बे मे समा बाँध दिया।
पिछले कुछ सालों से मंगलेश दादा साहित्यिक कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए शहर से बाहर जाने में कतराते थे। देश के विभिन्न शहरों मे आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमो में वह आयोजको द्वारा हवाई जहाज के टिकट मुहैया कराए जाने के बावजूद अंतिम समय मे अपनी स्वास्थ्य समस्याओं का हवाला देकर असमर्थता जाहिर कर जाना टाल देते थे। वे कहते थे कि उन्हे सफर करना बिलकुल भी अच्छा नही लगता और सफर को टालने के लिए उन्हे आयोजकों से झूठ बोलने से कोई परहेज नही है। बावजूद इसके हमने साथ में खूब यात्राएं की। उन्हे मेरे साथ सफर करना अच्छा लगता था। मेरे लिए यह बहुत बडी बात है कि मुझे उनके सानिध्य का सौभाग्य मिला। मंगलेश दादा के साथ देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, रामगढ, काठगोदाम, बंबई, दिल्ली और कलकत्ता के अनेक किस्से मेरी स्मृतियों में बने हुए है।
एक अंतराष्ट्रीय कवि, अनुवादक, लेखक, संपादक और पत्रकार के रूप में उनका आंकलन करने की मेरी कोई हैसियत नही है लेकिन मनुष्य के तौर पर उनके बारे में मैं यह बात पुख्ता तौर पर कह सकता हूँ कि बहुत सारी खामियों के बावजूद वह एक भले, ज़िंदादिल, संवेदनशील और शानदार व्यक्ति थे। इस दुनिया में आने वाली हर एक जीवित शय को एक न एक दिन इस फानी दुनिया को अलविदा कहना ही होता है लेकिन कोरोना काल की बेरहम बाध्यताओं के बीच उनका जाना मन में एक भारी टीस छोड गया।
जीवन भर आजीविका के लिए जूझता पहाड़ के एक गाँव में पैदा हुआ शख़्स अब हमारे बीच नहीं है लेकिन वह दुनिया की अनेकों भाषाओं के कविता प्रेमियों के जेहन में वह अपनी कविताओं के माध्यम से हमेशा जीवित रहेगा। वह जर्मनी के शहर आइसलिंगन की पालिका के मुख्य द्वार के बोर्ड पर चस्पा अपनी कविता में हमेशा जीवित रहेगा। वह पहाड की चोटी की तरफ चढ़ते उन पर्वतारोहियों के दिल में हमेशा जीवित रहेगा जो पहाड़ की भव्यता और विशालता से वाकिफ होना चाहते है। वह हर संवेदनशील मनुष्य के दिल में कविता की तरह जीवित रहेगा।
मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है लेकिन जीवन के होने का मतलब मंगलेश डबराल होने से बेहतर और क्या ही हो सकता है।