गैरसैण में वित्त मंत्री प्रेमचंद्र अग्रवालजी ने जिस तरह बजट पढा वो बहुत रुखा था। बहुत सूखा था
वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक वेद विलास उनियाल
बजट क्या था कैसा था यह अलग चर्चा का विषय ।
लेकिन बजट को पढने का अंदाज बहुत नीरस था। मानो वित्त मंत्री को सजा मिली हो बजट सुनाने की ।
बजट पढते हुए वित्त मंत्रियों का कौशल दिखता है। यहां तक की हमेशा गंभीर मुद्रा में रहने वाले डा मनमोहन सिंह भी कुछ शेरो शायरी की पंक्तियां कह देत थे। बजट को पेश करने का एक अंदाज होना चाहिए। शब्दों की बाजीगरी चुटीलापन, अपने तथ्यों को वजन देकर कहना, अपनी योजनाओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करना एक कला होती है। और कम से कम बजट सत्र से केंद्र या किसी राज्य के वितमंत्री से यह अपेक्षा तो होती ही है कि वह बजट को अपनी खास शैली में प्रस्तुत करें।
बेशक प्रेमचंद्रजी ने बजट पढते हुए पांच छह गिलास पानी पी लिए हो, लेकिन एक बार भी सिर नहीं उठाया। झुके झुके से पढते रहे। जैसे बचपन में कठोर टीचर बच्चे को इमला पढने को कहता है तो बच्चा डरा डरा सा पढता है। एक राजा था उसकी दो रानियां थी। एक दिन राजा शिकार खेलने गया। यहां बजट भी उसी तरह रुक रुक कर पढा जा रहा था। लिहाजा न तालियां थी न शोर शराबा। क्योंकि ताली बजाने वाले और शोर शराबा करने वालों ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी।
उत्तराखंड के लिए कहा जाता है कि शिक्षा का प्रदेश है। यहां शिक्षाविद पत्रकार लेखक साहित्यकार हुए हैं। ओजस्वी वक्ता हुए हैं। लेकिन आज की राजनीति में हम कुछ तलाश नहीं पा रहे हैं। हमारे नेता कुछ सीखना भी नहीं चाहते। नागालैंड के शिक्षामंत्री का हिंदी में दिया भाषण हम सुन लें तो हम अपने राज्य पर शर्मिंदा हो जाएंगे। कितनी सुंदरता से हास परिहास के साथ अपनी बात कहते हैं। लद्दाख के सांसद का भाषण कितनी प्रखरता से है। महाराष्ट की निर्दलीय सांसद का भाषण कितनी प्रखरता से होता है।
लेकिन हमारा राज्य कहां जा रहा है। नेता सोचते हैं कि चुनाव जीत गए वैतरणी पार हो गई। लेकिन सियासत का मकसद केवल चुनाव जीतना भर नहीं। सुषमा स्वराज की बेटी कितनी सुंदर स्पीच देती है। दूर क्यों जाए अपने पहाड की बेटी दिव्या नेगी ने संसद में संसद महोत्सव में कितनी सुंदर स्पीच दी। लेकिन उत्तराखंड के नेताओं के लिए यह सब मायने नहीं ऱखता। सच तो ये है कि नेताजी लोग अब पढते लिखते भी बहुत कम है। साहित्य और अच्छे लेखन से उनका वास्ता नहीं। इसलिए उनके पास न शब्द होते हैं न वाक्यों का प्रवाह। न मुहावरे न अलंकार। वे सपाट होते हैं। व्यक्तित्व भी सपाट होता जा रहा है। कभी उत्तराखंड के नेताओं का अपना एक व्यक्तित्व होता था। एक अंदाज होता था। एचएन बहुगुणा की याद होगी न आपको। उनकी सियासतऔर विचारधारा या राजनीतिक कलाबाजी से आप सहमत या असमहत हो सकते हैं। पर अंदाज उनका निराला था। जैसे कि एक नेता का होना चाहिए। सच बजट सत्र में भाषण बहुत रुखा बहुत सूखा लगा। और केवल प्रेमचंद अग्रवाल ही नहीं ज्यादातर हमाारे जनप्रतिनिधियों की हालत यही है। बजट कोई भी पढता होना लगभग यही था।