गुलाबी शरारा और कापीराइट….
डा. राजेश्वर उनियाल/ honoured by President
जबसे उत्तराखंड के नवचर्चित व विश्वप्रसिद्ध लोकप्रिय क्षेत्रीय गीत गुलाबी शरारा को यूट्यूब ने प्रतिबंधित किया है, तब से सोशल मीडिया में उत्तराखंड के संस्कृत प्रेमियों के बीच यह बहस छिड़ गई है कि क्या यह गीत कॉपीराइट का उल्लंघन था ? इसके साथ ही ऐसे गीतों की धुनें तो अक्सर एक दूसरे से मिलती ही हैं, तो फिर इसे ही क्यों प्रतिबंधित किया गया ? आदि आदि। इस संबंध में मैं इस बात को स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि लगभग 10 वर्ष पहले मुंबई की चौपाल नामक एक साहित्यिक व सांस्कृतिक गोष्ठी में एक फिल्मी विशेषज्ञ ने इस विषय पर एक व्याख्यान दिया था और उन्होंने अपने धाराप्रवाह व्याख्यान में लगभग 40-50 हिंदी के ऐसे प्रसिद्ध गीतों को भारत के विभिन्न अंचलों में गाए जाने वाले गीतों की धुनों से संबंधित होना बताया था । उनका तर्क था कि भारत की लोक धुनें इतनी विख्यात हैं कि आप किसी भी भाषाई गीत के लिए अगर किसी भी धुन का निर्माण करना चाहते हों, तो भले ही आपने उस गीत की धुन बनाते समय उस लोकगीत को सुना भी ना हो, लेकिन सूक्ष्म तरंगों से इस बात को प्रमाणित किया जा सकता है कि वह उस गीत की धुन किसी न किसी अंचल के लोकगीत से अवश्य ही मिलेगा ।
जबकि गुलाबी शरारा का मामला तो हमारे उत्तराखंड के ही किसी अन्य गीत की धुन की नकल बताया जाता है। इसलिए मेरा यह कहना है कि भले ही कानूनी रूप से यह कॉपीराइट का उल्लंघन अवश्य हो सकता है, लेकिन इसे धुन की चोरी या नकल कहना किसी भी तरह से उचित नहीं है। यदि हम ऐसे ही विभिन्न आंचलिक गीतों की धुनों की तुलना करें, तो फिर तो उत्तराखंड का कोई भी ऐसा आंचलिक या लोक गीत नहीं बचेगा, जिसके संगीत का कोई ना कोई बीट अर्थात धुन का अंश किसी अन्य धुन से नहीं मिलता हो ।