गिरिजन गिरदा
राजीव नयन बहुगुणा, वरिष्ठ पत्रकार
हृदय की भाषा में संवाद करने वाले, उत्तराखण्ड के अनूठे सुर नायक गिरदा की आज भले पुण्य तिथि हो, लेकिन मैं उन्हें प्रति दिन लगभग एक बार तो याद करता ही हूँ.
साठ, सत्तर के दशक से मृत्यु पर्यन्त वह उत्तराखण्ड के हर जन आंदोलन के झंडे का डंडा रहे. उनके बगैर जन आकांक्षाओं की धर्म ध्वजा लहरा, फहरा नहीं पाती थी.
वह अलमस्त, औलिया, महत्वकांक्षा विहीन, निरपेक्ष और सरल थे.
इस कारण आंदोलन जीवी महंतों और बुद्धिजीवी धंधे बाज़ो के लिए निरापद थे. वह नाम छपाई, अवार्ड, पुरष्कार, प्रोजेक्ट और चंदा में किसी के आड़े नहीं आते थे. अतः सब उन्हें सर आँखों पर बिठाये रखते थे.
आंदोलन से पैदा होने वाली बिजली, अर्थात धन, मान और सम्मान में किंचित भी अपना हिस्सा मांगते, तो कबका शराबी, अराजक , बीड़ी बाज़ और मन मौजी कह कर धकिया दिए जाते.
जिस तरह बछ्ड़े को गाय के थन पर सिर्फ़ इसी लिए लगाया जाता है, कि उनमे दूध उतर आये.
तटपश्चात् बछ्ड़े को खींच कर खूंटे से बांध दिया जाता है, और ग्वाला अपना काम करता है.
उसी तरह जन अभिक्रम को आलोड़ित और भाव कातर करने के लिए गिरदा को आगे किया जाता था.
फिर भाषण, बाईट, मीटिंग, ईटिंग और चीटिंग का मोर्चा महंत गण ख़ुद संभाल लेते थे.
वह ठीक ठाक पढ़े लिखे थे. लेकिन उससे अधिक उनकी चेतना का सॉफ्टवेयर अतिशय सेन्सटिव और सक्रिय था. अर्थात उनमे गज़ब की ग्रहण शीलता थी. जिसके कारण वह फैज़, फ़िराक़, दिनकर, नज़रुल इस्लाम, मजाज़ आदि को अपनी शैली में रूपांतरित कर देते थे.
वह दरवेश मेरी चेतना में सदैव विद्यमान रहेगा.