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खड़गे से भयभीत, किया पूर्व राष्ट्रपति कोविंद को आगे


कुशाल जीना
एक देश, एक चुनाव के लिए प्रस्तावित विधेयक को लागू करने को गठित उच्च स्तरीय समिति में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की बतौर अध्यक्ष मौजूदगी ने विपक्ष द्वारा मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित करने वाली संभावना से पैदा हुए डर को उजागर कर दिया है।
हालांकि सरकार ने इस मामले में यह स्पष्टीकरण देकर बचने की कोशिश की है की समिति का अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति को बनाने से इस गम्भीर मसले को व्यापक स्तर पर मान्यता प्राप्त होगी।
पर हकीकत कुछ और है। सच्चा यह है कि मोदी को डर है कहीं विपक्षी गठबंधन मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न कर दे। इसलिए एक दलित के मुकाबले दूसरे दलित को लाया गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक देश, एक चुनाव का शगूफा छोड़कर एक बार फिर राजनैतिक गलियारों में हलचल को तेज कर दिया है। उन्होंने यह स्पष्ट इशारा दिया है कि वे तमाम संवैधानिक और गरिमामयी संस्थानों और पदों को अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए ध्वस्त करने पर आमादा हैं। एक देश, एक चुनाव को लेकर गठित की गई उच्च समिति की कमान पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को सौंपना इस जिद्द का जवलंत उदाहरण है। प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार गृह मंत्री अमित शाह जबसे विपक्ष ने इंडिया नाम से एक गठबंधन बनाया है तभी से बुरी तरह आतंकित हैं।
अब इस डर में आरएसएस भी शामिल हो गया है क्योंकि एक तो विपक्षी गठबंधन का नाम इंडिया रखा गया है दूसरे उसमें भाजपा और सहयोगी छोटे दलों की अपेक्षा वो बड़े विपक्षी दल शामिल हैं जो कई राज्यों में सरकार में हैं और जिनमें वोट जुटाने की क्षमता है।
इसी कारण आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने एक भाषण मे सुझाव दिया था कि इंडिया नाम हटा कर केवल भारत नाम ही रखा जाना चाहिए। भाजपा देशभक्ति से जुड़ी हर वस्तु पर अपना अधिकार मानते हैं।
दरअसल, भाजपा और आरएसएस के नेतृत्व को यह डर सता रहा है की इंडिया गठबंधन द्वारा खड़गे को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किए जाने की स्थिति में दलित और अति पिछड़ा वर्ग भाजपा को छोड़कर विपक्षी गठबंधन में शामिल हो सकता है। इसके अलावा मुस्लिम समुदाय के भी इंडिया से जुड़ने से विपक्षी गठबंधन सत्तारूढ़ एनडीए को पीछे छोड़ दे सकता है।

वैसे भी पिछले आम चुनाव में एनडीए केवल 37 प्रतिशत मत पाकर सत्ता में काबिज रहा था। बाकी 63 प्रतिशत वोट एनडीए गठबंधन के विरोध में पड़ा था। कमी केवल यह थी की वह बहुमत वाला विरोधी वोट उस समय विभाजित था जो अब चट्टान की तरह मजबूत और एक दिख रहा है।
मोदी सरकार द्वारा पूर्व राष्ट्रपति कोविंद को इस समिति का अध्यक्ष बनाए जाने से राष्ट्रपति पद गरिमा को निश्चित रूप से एक गहरा धक्का लगा है।
राजनैतिक गलियारों में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा राष्ट्रपति जैसे अराजनीतिक ओहदे का राजनीतिक करने के रूप में देखा जा रहा है जो आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है।
या यूं कहिए कि यह तमाम कसरत नया कानून बनाने के एक गम्भीर प्रयास की बजाय राष्ट्रपति के पद को पिछले दरवाजे से राजनीति में लाए जाने की साजिश मात्र है।
देश के महत्वपूर्ण और उच्च पदों पर आसीन रहे लोगों का अपनी कुर्सी बचाने के लिए इस्तेमाल करना न केवल मौजूदा सरकार और भाजपा के भीतर व्याप्त मोदी शाह रूपी भयावह वातावरण को दर्शाता है जिसके कारण कोविंद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को ना नही कह पाए।
कुछ साल पहले तक देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद को सुशोभित करने वाले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष पदाधिकारी द्वारा सरकारी प्रस्ताव लेकर जाना भी एक असंवैधानिक कार्य माना जाता है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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