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Cases and lawsuits

{क्या} चुनावी बांड योजना पहले दिन से असंवैधानिक थी ?

प्रो. नीलम महाजन सिंह,

वरिष्ठ पत्रकार, लेखिका, दूरदर्शन व्यक्तित्व, मानवाधिकार संरक्षण वकील

वरिष्ठ अधिवक्ता व जनहित याचिका दायर करने वाले, प्रशांत भूषण का एक ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ए.डी.आर. बनाम भारत सरकार, में उद्धरण संख्या 2024 आई.एन.एस.सी. 113 में अपना फैसला दिया। 15 फरवरी, 2024 को भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने माना कि चुनावी बॉन्ड योजना ‘मतदाताओं के सूचना के अधिकार’ का उल्लंघन करने के कारण असंवैधानिक है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा थे। याचिकाकर्ता; ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’; ‘कॉमन कॉज़’ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) थी। वकीलों में अधिवक्ता प्रशांत भूषण; कपिल सिब्बल; शादान फरासत; निज़ाम पाशा और विजय हंसारिया रहे। प्रतिवादी थे, भारत संघ; चुनाव आयोग और भारतीय स्टेट बैंक। उनके वकील थे, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी; सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता; अधिवक्ता अमित मिश्रा; और वकील कनु अग्रवाल (रिट याचिका (सिविल) संख्या 880/2017)। “स्क्रिप (भौतिक) रूप में ई.बी. (चुनावी बांड) जारी करना मनी लॉन्ड्रिंग के गंभीर जोखिम से भरा है। यदि आर.बी.आई.; ई.बी. को ‘स्क्रिप रूप’ (भौतिक रूप) में जारी करने के लिए सहमत होता है, तो उस पर जोखिम के बावजूद इस असंवैधानिक प्रक्रिया को स्वीकार करने का आरोप लगाया जाएगा। इसका परिणाम लगभग अनिवार्य रूप से मनी लॉन्ड्रिंग होगा,” भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने भारत के वित्त मंत्री अरुण जेटली को दो बात दो पत्रों में लिखी थी। उन्होंने कहा था कि चुनावी बांड जारी करने व पेश करने से मनी लॉन्ड्रिंग और बेहिसाब काले धन के संचय को बढ़ावा मिलेगा। इसके तुरंत बाद उर्जित पटेल ने भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से इस्तीफा दे दिया था। ऐसा इसलिए है क्योंकि अरुण जेटली ‘मास्टरमाइंड – महाचाणक्य’ थे, जो एनडीए सरकार में निर्विवाद थे, जिस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया। यह सबसे बड़ा आर्थिक घोटाला है, जिसने बैंकिंग प्रणालियों में जवाबदेहीी कारण को नुकसान पहुंचाया है। आज पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार को व्यापारिक दिग्गजों द्वारा खरीदे गए चुनावी बांड की धोखाधड़ी व बदले में राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार के कारण पैदा हुई भयानक अराजकता का जवाब देना होगा। सभी राजनीतिक दल हमाम में नंगे हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ‘एडीआर’ ने स्पष्ट रूप से भयानक, गंदे धन, गंदे राजनीतिक दलों, गंदे व्यापारियों और ‘क्रोनी पूंजीवाद’ को उजागर किया है! यह सचमुच शर्मनाक है! आइए इंतजार करें कि आने वाली पीढ़ियों के लिए इसका परिणाम क्या होगा! दुनिया के इस सबसे बड़े वित्तीय घोटाले में कुछ बुनियादी बातें समझनी होंगीं। क्या चुनावी बांड योजना मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है? हाँ। क्या यह योजना दानकर्ताओं की निजता के अधिकार की रक्षा के लिए गुमनामी की अनुमति दे सकती है? हाँ इसने ऐसा किया। क्या चुनावी बांड योजना से लोकतांत्रिक प्रक्रिया व स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव को खतरा है? हां निश्चित रूप से। यह समझना महत्वपूर्ण है कि पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 का केंद्रीय बजट पेश करते समय कहा था कि आज़ादी के 70 साल बाद, “देश राजनीतिक दलों को वित्त पोषित करने का एक पारदर्शी तरीका, स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की व्यवस्था विकसित नहीं कर पाया है, जो कि महत्वपूर्ण है।” उन्होंने चुनावी बांड योजना का प्रस्ताव रखा, जिसे राजनीतिक फंडिंग की “प्रणाली को साफ़” करने के लिए डिज़ाइन किया गया था।चुनावी बांड एक ‘वचन पत्र’ (promissory note) की तरह होता है। यह एक ‘लिखत वाहक’ है जो धारक को मांग पर देय होता है। वैसे तो वचन पत्र के विपरीत, जिसमें भुगतानकर्ता व प्राप्तकर्ता का विवरण होता है, एक चुनावी बांड में लेन-देन में पार्टियों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है, जिससे पार्टियों को पूर्ण गोपनीयता मिलती है। वास्तव में ऐसा नहीं था, लेकिन भारतीय स्टेट बैंक ने इसे गुप्त रखा था। चुनावी बांड योजना शुरू करने के लिए कानूनी ढांचा अधिनियमित किया गया था। 14 मई 2016 को, वित्त अधिनियम, 2016 लागू हुआ। इसने विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम, 2010 (एफ.सी.आर.ए. FCRA) की धारा 2(1)(जे)(vi) में संशोधन किया गया, जो “विदेशी स्रोत” को परिभाषित करता है, ताकि भारतीय कंपनियों में बहुमत हिस्सेदारी रखने वाली विदेशी कंपनियों को राजनीतिक दलों को गुप्त चंदा दान की अनुमति मिल सके। पहले, एफसीआरए व विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 के तहत विदेशी कंपनियों को राजनीतिक दलों को चंदा देने से प्रतिबंधित किया गया था। 31 मार्च 2017 को, वित्त अधिनियम, 2017 ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (आरओपीए ROPA), भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934, आयकर अधिनियम, 1961 और कंपनी अधिनियम, 2013 में कुछ संशोधन किए। वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 11 ने आयकर अधिनियम की धारा 13-ए में संशोधन किया और राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त चंदे का विस्तृत रिकॉर्ड रखने से छूट दी। धारा 135 ने आरबीआई अधिनियम की धारा 31 में संशोधन किया। इसने केंद्र सरकार को “किसी भी अनुसूचित बैंक को चुनावी बांड जारी करने के लिए अधिकृत करने” की अनुमति दी। धारा 137 ने आरओपीए की धारा 29-सी में एक प्रावधान पेश किया, जिसमें राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त चंदे को “योगदान रिपोर्ट” में प्रकाशित करने से छूट दी गई। ये रिपोर्ट पार्टियों द्वारा कंपनियों व व्यक्तियों से “बीस हजार रुपये से अधिक” प्राप्त योगदान का खुलासा करती है। धारा 154 ने कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 में संशोधन किया, जिसने इस बात की ऊपरी सीमा हटा दी कि कोई भी कंपनी किसी राजनीतिक दल को कितना चंदा दे सकती है। पहले कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध मुनाफे का केवल, 7.5 प्रतिशत तक ही दान कर सकती थीं। संशोधन पेश किए जाने के तुरंत बाद, सितंबर 2017 और जनवरी 2018 में, दो गैर-सरकारी संगठनों- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), ‘कॉमन कॉज़’ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने संशोधनों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर कीं। शुरुआत में, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि राज्यसभा द्वारा उच्च जांच को रोकने के लिए ‘वित्त अधिनियमों’ (Finance Bill) को गलत तरीके से धनविधेयक बिल के रूप में पारित किया गया था। इस चुनौती को अनुच्छेद 110 के तहत धन विधेयक के उपयोग की बड़ी चुनौती के साथ टैग किया गया। याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि इस योजना ने “राजनीतिक फंडिंग में गैर-पारदर्शिता की अनुमति व बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैधानिक बनाया”। चुनावी बॉन्ड योजना, 2018 की रूपरेखा वास्तव में क्या थी। 02 जनवरी, 2018 योजना के तहत, भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की कुछ शाखाओं को चुनावी बॉन्ड बेचने के लिए अधिकृत किया गया था, जिन्हें ₹1,000, ₹10,000, ₹1,00,000, ₹10,00,000, ₹1,00,00,000, की राशि में खरीदा जा सकता है।
इन्हें हर साल जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10 दिनों के लिए बेचा जाना था। खरीदार की पहचान एसबीआई को छोड़कर सभी के लिए गुमनाम रहती है, जिसे खरीदार के ‘अपने ग्राहक को जानें’ (केवाईसी KYC) विवरण दर्ज करना होगा। जिन राजनीतिक दलों ने “लोकसभा या विधान सभा के पिछले आम चुनाव में” एक प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए थे, वे चुनावी बांड के माध्यम से दान स्वीकार करने के पात्र थे। राजनीतिक दलों को बांड प्राप्त होने के 15 दिन के भीतर उसे भुनाना होगा। यह अवधि समाप्त होने के बाद धनराशि ‘प्रधानमंत्री राहत कोष’ में जमा कर दी जाती है। यह राजनीतिक दलों के लिए दोहरा लाभ जैसा रहा। 25 मार्च 2019 को, उत्तरदाताओं में से एक, भारतीय चुनाव आयोग (ECI) ने चुनावी बॉन्ड योजना का विरोध करते हुए एक हलफनामा दायर किया।हलफनामे में दावा किया गया था कि यह योजना राजनीतिक वित्त में पारदर्शिता के लक्ष्य के विपरीत है। यह भी दावा किया गया कि ईसीआई ने 26 मई 2017 को केंद्र सरकार को एक पत्र साझा किया था, जिसमें “राजनीतिक वित्त/फंडिंग के पारदर्शिता पहलू पर प्रभाव” के खिलाफ चेतावनी दी गई थी। इसके अलावा, उन्होंने प्रस्तुत किया कि राजनीतिक दलों को योगदान के संबंध में विवरण साझा करने से छूट देने से विदेशी फंडिंग की जानकारी अंधेरे में रहेगी। हलफनामे में कहा गया है, “भारत में राजनीतिक दलों की अनियंत्रित विदेशी फंडिंग, जिससे भारतीय नीतियां विदेशी कंपनियों से प्रभावित हो सकती हैं।” 1 अप्रैल 2019 को, केंद्र सरकार ने एक प्रत्युत्तर प्रस्तुत किया जिसमें दावा किया गया कि ई.बी.एस. (EBS) “चुनावी सुधार लाने में एक अग्रणी कदम था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और जवाबदेही की भावना बनी रहे।” भारत संघ ने दावा किया कि राजनीतिक दलों को बड़े पैमाने पर नकद दान के माध्यम से धन प्राप्त हुआ, जिससे “काले धन का अनियमित प्रवाह हुआ”। संघ ने आश्वासन दिया कि ये मुद्दे अब राजनीतिक फंडिंग में बाधा नहीं डालेंगें क्योंकि केवल एक अधिकृत बैंक है – भारतीय स्टेट बैंक – जो ऐसे बांड जारी कर सकता है। इसके अलावा, केवाईसी विवरण प्रदान करने से जवाबदेही सुनिश्चित होती है। 12 अप्रैल 2019 को, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने सभी राजनीतिक दलों को दान, दाताओं और बैंक खाता संख्या का विवरण एक ‘सीलबंद कवर में ई.सी.आई.’ को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। बेंच ने यह कहते हुए योजना के कार्यान्वयन पर रोक लगाने से परहेज किया कि “ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहन सुनवाई की आवश्यकता होगी।” इस आदेश के बाद, याचिकाकर्ताओं ने कई मौकों पर अदालत का दरवाजा खटखटाया। नवंबर 2019 में, फिर बिहार चुनाव से पहले अक्टूबर 2020 में तत्काल सुनवाई के लिए एक आवेदन दायर किया गया था। इस आवेदन पर मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे की अध्यक्षता वाली न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना व न्यायमूर्ति सुब्रमण्यन की पीठ ने विचार किया और 26 मार्च 2021 को बेंच ने योजना के आवेदन पर किसी भी तरह की रोक से इनकार कर दिया। उनका मानना ​​था कि “यह आशंका कि विदेशी कॉरपोरेट घराने बांड खरीद सकते हैं व देश में चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास कर सकते हैं, गलत है।” बेंच ने याचिकाकर्ताओं को अदालत में जाने से सख़्ती से हतोत्साहित करते हुए कहा कि “एक ही राहत के लिए बार-बार आवेदन नहीं किया जा सकता है।” लेखक के अनुसार यह न्यायालय का दोषपूर्ण आदेश था। 16 अक्टूबर 2023 को, याचिकाकर्ताओं ने 2024 के आम चुनावों से पहले मामले की सुनवाई के लिए उल्लेख करते हुए अदालत से संपर्क किया। मुख्य न्यायाधीश डा: डी.वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली खंडपीठ , न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने “मुद्दे के महत्व” को ध्यान में रखते हुए मामले को पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया। 31 अक्टूबर 2023 को, सीजेआई, न्यायमूर्ति डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, जे.बी. पारदीवाला व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने तीन दिनों तक दलीलें सुनीं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चुनावी बांड योजना से कॉर्पोरेट फंडिंग, काले धन का प्रचलन और भ्रष्टाचार बढ़ा है। उन्होंने तर्क दिया कि मतदाताओं को राजनीतिक दलों के धन के स्रोत के बारे में जानकारी पाने का अधिकार है, क्योंकि यह उस पार्टी की नीतियों और विचारों को सूचित करता है। भारत संघ ने तर्क दिया कि यह योजना दाताओं की गोपनीयता और निजता के अधिकार की गारंटी देने के लिए डिज़ाइन की गई थी, जो अन्यथा उन राजनीतिक दलों से प्रतिशोध के संपर्क में थे जिन्हें वे फंड नहीं देते थे। 2 नवंबर 2023 को संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया। 15 फरवरी 2024 को, शीर्ष न्यायालय ने सर्वसम्मति से केंद्र की 2018 चुनावी बांड (ईबीएस EBS) योजना को असंवैधानिक करार दिया। बेंच ने माना कि इस योजना ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में निहित मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन किया है। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि चुनावी बांड की बिक्री तत्काल प्रभाव से रोक दी जाए। भारतीय स्टेट बैंक को 12 अप्रैल 2019 से अब तक खरीदे गए चुनावी बांड का विवरण; भारतीय निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत करने के निर्देश दिया गये थे। इसमें खरीदार के साथ-साथ उन राजनीतिक दलों का विवरण भी शामिल होगा जिन्हें ये बांड दिए गए थे। इसके अलावा, न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को 13 मार्च 2024 तक सूचना प्राप्त होने के एक सप्ताह के भीतर एसबीआई द्वारा साझा की गई जानकारी को अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करने का आदेश दिया। यह सब कुछ कर दिया गया है।

(इस लेख में व्यक्त विचार पूर्णतः लेखक के हैं, uknationnews का इससे कोई लेना-देना नहीं है )

singhnofficial@gmail.com

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