
मधुरेन्द्र सिन्हा
अपने बिहार दौरें में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी ने दूसरे राजकुमार तेजस्वी यादव के साथ दोस्ती का जबर्दस्त मुज़ाहिरा किया। दोनों यार खूब घूमे, मोटरसाइकिलों पर रैलियां कीं और सत्तारूढ़ गठबंधन पर पूरी ताकत से बरसे। ऐसा लगा कि दोनों बचपन के साथी हैं और जिस तरह से वे मिल रहे थे उससे उस अमर गीत की याद आ रही थी-ये दोस्ती, हम नहीं तोड़ेंगे / तोड़ेंगे दम मगर, तेरा साथ ना छोड़ेंगे / रे मेरी जीत, तेरी जीत… लेकिन थोड़े ही समय बाद सब कुछ बदल गया। दरअसल राहुल गांधी और उनके नये जोड़ीदार तेजस्वी उन्हें भूल गये थे जिन्होंने बिहार की राजनीति को उलट-पुलट कर रख दिया था और कांग्रेस को मार-मार कर लंगड़ा बना दिया था। जी हां, ठीक समझे। मैं बात कर रहा रहूं लालू यादव की जिन्होंने 1990 में सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस को डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लालू यादव ने जितनी बुद्धि और ताकत कांग्रेस को निपटाने में लगाई उतना तो भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ भी नहीं लगाई। एक कुशल राजनीतिज्ञ की भांति वह जानते थे कि वह भारतीय जनता पार्टी से एक सीमा तक ही लड़ सकते हैं लेकिन कांग्रेस से ही तो उन्होंने सत्ता छीनी है। दोनों के वोटर वहीं हैं- दलित, मुस्लिम, कुछ पिछड़ी जातियां। इसी वोटर बेस पर उन्हें कब्जा बनाये रखना है। इसलिए जरूरी है कि कांग्रेस को छोंटा रखना है। 1994 में लोकसभा का एक उपचुनाव हुआ था। वैशाली में हुए उस उपचुनाव में लालू यादव की पार्टी के अलावा कांग्रेस की उम्मीदवार किशोरी सिन्हा भी खड़ी थीं। लवली आनंद जो दबंग नेता आनंद मोहन सिंह की पत्नी हैं, उस चुनाव में विजयी हुईं। उनकी विजय ने लालू यादव अचंभित रह गये और उन्हें अपनी पार्टी के लिए नई रणनीति बनाने की जरूरत महसूस हुई। उन्हें समझ में आ गया कि अगड़ी जातियों के अलावा कुछ पिछड़ी जातियां और दलित समुदाय भी कांग्रेस के साथ हैं और उन्हें तोड़े बगैर काम नहीं चलेगा। इसलिए लालू यादव ने गोल पोस्ट ही बदल दिया। जातियों की बजाय उन्होंने कांग्रेस पार्टी को ही झपट लिया। इस काम में उनका साथ दिया चच्चा केसरी ने जो कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे और लालू से बेहद प्यार करते थे। चच्चा-भतीजे का यह प्यार खूब परवान चढ़ा। उस समय बिहार कांग्रेस में दिग्गज नेता थे जैसे भागवत झा आजाद, रामाश्रय बाबू, राम जतन सिन्हा, वीणा शाही, जगन्नाथ मिश्र, अब्दुल गफूर वगैरह। सभी ताकते रह गये और लालू यादव कांग्रेस पर कब्जा जमा बैठे। इस तरह से उन्होंने अंदर की चुनौती को किनारे कर दिया। कांग्रेस के हर बड़े फैसले और यहां तक कि टिकटों के बंटवारे पर लालू यादव की मुहर लगती रही। उनकी इजाजत के बगैर कांग्रेस ने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया और पार्टी पंगु होकर रह गई। चुनाव में तो वह कांग्रेस के उम्मीदवारों की सूची तक पास करते थे और मजबूत उम्मीदवारों को हरवाने के लिए उनकी सीट ही बदल देते थे। पूरी पार्टी पर उनका साया था। कई कांग्रेसी नेता विरोध करते लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं होती। धीरे-धीरे पार्टी खोखली होती चली गई। उसका जनाधार बिखरने लगा और कई नेता बैठ गये, हजारों की तादाद में पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर चले गये। कांग्रेस उजड़ा चमन बनकर रह गई। लालू यादव ने उसके मुस्लिम वोट बैंक पर भी सेंध लगा दी। तरीका वही था, मुलायम सिंह वाला। यानी बड़े गुंड़ों, दबंगों को अपने गले लगाना जिससे सारे हित सध जायें और आम मुसलमान डर के साये में जीये। ये अपराधी मुसलमान नेता बनकर कमजोर मुसलमानों पर नियंत्रण रखते थे और लालू यादव का साथ देते थे जिससे कांग्रेस का अल्पसंख्यक जनाधार भी बिखर गया। बिहार के मुसलमान यूपी के मुसलमानों से अलग हैं। यहां पसमांदा यानी पिछड़ी जाति के मुसलामानों की तादाद बहुत है। इसके अलावा ओल्ड पुर्णिया जिले में बांग्लादेशी लाखों की तादाद में हैं जो चुनावों को प्रभावित करते हैं। उन्हें लालू यादव कभी पसंद नहीं थे। लेकिन शाहबुद्दीन जैसे भयंकर अपराधी और तस्लीमुद्दीन जैसे दबंग को साथ लेकर लालू यादव ने उनकी आवाज को दबा दिया। बाद में औवैसी ने उस आवाज को जिंदा कर दिया और पूर्वांचल में कई सीटें जीतीं तथा कइयों पर प्रभाव डाला।
यहां पर इतनी लंबी भूमिका बांधने का मतलब यह बताना है कि लालू यादव ने किस तरह से कांग्रेस की पकड़ को खत्म कर दिया। उन्होंने अपने भविष्य में कांटा बनने की संभावना रखने वाली पार्टी को घुटने टिका दिया। अब वह नहीं चाहते हैं कि उनके सुपुत्र की राह में कांग्रेस रोड़ा बने। अपने जीवन की संध्या बेला में वह किसी तरह का ‘बखेड़ा’ नहीं चाहते हैं। अब तेजस्वी को मुख्य मंत्री चेहरा न बनाने पर उनका क्रुद्ध होना स्वाभाविक था और फिर उनकी पार्टी ने जो किया वह सभी के सामने है। पहले तो कांग्रेस ने उन्हें हल्के में लिया लेकिन लालू यादव के तौर तरीकों से पार्टी घबरा गई और फिर आलाकमान ने अपने बड़े नेता अशोक गहलोत को पटना भेजा जिन्हें तेजस्वी को मुख्य मंत्री का चेहरा घोषित करना ही पड़ा। यहां पर सवाल है कि आखिर राजस्थानी गहलोत बिहार ही क्यों गये? जब यही करना और कहना था तो वह दिल्ली से ही कर सकते थे।
बिहार की ही तरह यूपी, झारखंड, जम्मू-कश्मीर और तमिलनाडु में कांग्रेस पूरी तरह से क्षेत्रीय पार्टियों पर निर्भर है जो कभी नहीं चाहेंगे कि इस बूढ़ी पार्टी में फिर से जवानी आये क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो यह पहले उन्हें ही निगल जायेगी। वह अपनी सत्ता वापस लेने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देगी। तमिलनाडु में तो पार्टी के नेता यह कहकर रो रहे हैं कि 57 साल हो गये सत्ता से बाहर हुए। अब 2026 के विधान सभा चुनाव में वे अपनी ताकत दिखायेंगे। लेकिन उसके लिए जरूरी है कि वह अपने बड़े भाई के चंगुल से बाहर हो। बड़ा भाई उर्फ द्रमुक उन्हें बांधकर रखने में यकीन करता है और वह भी इस बंधन को कमजोर नहीं होने देता है। यह सब कहने का अभिप्राय यह है कि कांग्रेस छत्रपों के लिए एक सहयोगी दल तो है लेकिन उसे आजादी देने का मतलब अपना नाश है। आखिर इन सभी ने सत्ता तो कांग्रेस से ही छीनी थी।





