कैसा होगा यदि धर्मेंद्र से गढ़वाली फ़िल्म में काम करने को कहे कोई
चर्बी से बना देसी घी बनाओ ही मत /
कोई पैंतीस साल पहले जब मैं छुट्टियां बिता कर अपनी नौकरी पर पटना को जाता था, तो एक मनुष्य देहरादून के बस अड्डे पर मुझे ढूंढने आया.
वह गढ़वाली में दैनिक अख़बार निकाल रहा था और मेरे बारे में पत्रकार नवीन नौटियाल से सुन वह मुझे मिलने आ गया.
उसे लग रहा था कि गढ़वाली दैनिक निकालने से उसका नाम इतिहास में अमर हो जायेगा. वह स्वयं नॉन गढ़वाली बनिया था और उसे उम्मीद थी कि इस कृत्य के कारण उसे पदम् श्री तो मिलनी ही है. साथ ही करनप्रयाग या प्रतापनगर के लोग उसे निर्विरोध विधान सभा भेजेंगे.
उसने मुझे अपने अख़बार में काम करने का ऑफर दिया, तथा जानना चाहा कि उसके अख़बार की बाबत मैं क्या सोचता हूँ.
मैंने जवाब दिया कि मैं एशिया के सबसे बड़े अख़बार में काम करता हूँ और वह मुझे एशिया के सबसे छोटे अख़बार में काम करने बोल रहा.
यह ऐसी ही मूर्खता है, जैसे कोई धर्मेंद्र से गढ़वाली फ़िल्म में काम करने को कहे.
उसके अख़बार के भविष्य के बारे में मैंने बताया कि छह महीने बाद जब मैं पुनः छुट्टी आऊंगा तब तक वह अपने कर्मचारियों से मार खा कर और दस लाख क़र्ज़ के नीचे आकर पुनः सहारनपुर भाग जायेगा, जहां से आया है.
वही हुआ.
कीर्तिनगर पुल के पार श्री नगर वाले एक दूसरे की भाषा नहीं समझते, और वह गढ़वाली दैनिक निकाल रहा है.
इसी तरह गढ़वाली फ़िल्म के बारे में भी मेरे यही विचार हैं.
लोग मुझसे कहते हैं कि मैं सिर्फ़ आलोचना करता हूँ, विकल्प नहीं सुझाता.
तो विकल्प यही है कि गढ़वाली फ़िल्म बनाओ ही मत.