कैफे लाटा में कल शाम SAURABH SHUKLA के चर्चित नाटक बर्फ का गढ़वाली रूपांतरण का हुआ सफलतापूर्वक मंचन





बर्फ
सौरभ शुक्ला सिनेमा और रंगमंच की नामचीन हस्तियों में से हैं।
कैफे लाटा में कल शाम उनके चर्चित नाटक बर्फ का गढ़वाली रूपांतरण देखा इसे बद्री छावड़ा ने हिंदी से से गढ़वाली में बहुत ही खूबसूरती से रूपांतरित किया है और निर्देशन डॉक्टर सुवर्ण रावत ने किया। कैफे जैसी जगह में नाटक करना अपने आप में एक चुनौती होता है। मंच के नाम पर एक छोटी संकीर्ण पट्टी ही उपलब्ध थी जिस पर देहरादून जानेमाने प्रकाश संयोजक टी के अग्रवाल जी ,सेट डिजाइन और म्यूजिक साउंड इफेक्ट अभिनव गोयल और कॉस्ट्यूम्स जयश्री रावत, सेट निर्माण विशाल शर्मा,अतुल वर्मा, व शुभम शर्मा का और फोटोग्राफी जयदेव भट्टाचार्य व दीना रमोला की थी। इन सभी ने मिलकर तमाम बाधाओं के चलते भी मंचन के लायक माहौल बना दिया और कलाकारों ने प्रोसीनियम के अभाव को अपने अभिनय से भर दिया । प्रस्तुति ने पूरे समय सभी दर्शकों को बांधे रखा।
नाटक की कहानी एक डॉक्टर की कहानी है जिसके परदादा बंगाल में बस गए थे और वह डॉक्टर के एक सेमिनार में हिस्सा लेने लैंसडौन आया है। बादल फटने की घटना के कारण सेमिनार रद्द हो गया है और डॉक्टर ने आसपास के इलाकों में घूमने का निर्णय किया। वह उस ड्राइवर जो कि उसे अपनी गाड़ी में घूमा रहा होता है , की पत्नी और ड्राइवर की बात सुन लेता है जिसमें पत्नी अपने बीमार बेटे की गंभीर हालत की दुहाई देते हुए उसे तुरंत घर आने और दवा का इंतजाम करने के लिए कह रही है। डॉक्टर साहब के भीतर का डॉक्टर जाग उठता है और वह ड्राइवर के हाथ से फोन लेकर उसकी पत्नी को आश्वासन देते हैं कि वह उनके बच्चे को देखने आ रहे हैं। उसके गांव पहुंचने पर उसे पता चला कि उस गांव के लोग जंगली जानवरों से होने वाले खेती के नुकसान और आदमखोर तेंदुओं के भय से पलायन कर चुके हैं और गांव में केवल ड्राइवर और उसकी पत्नि ही रह रहे हैं। वहां पर धीरे धीरे जो घटनाएं घटती हैं उसमें डॉक्टर फंस जाता है। पहले पहल वह उन दोनों को लोगों को फंसाकर लूटने वाला समझता है पर धीरे धीरे उसे यकीन होता है कि एकाकीपन और भय ने उस स्त्री को मानसिक रोगी बना दिया है प्रसव में अपने बेटे को खोने के बाद उसके पति ने उसे बोलने वाला चाइनीज गुड्डा दिया है जिसे वह अपना बेटा समझती है। गुड्डा जब भी खराब होता है वह चिंता में पड़ जाती है और आज भी ऐसा ही हुआ है। उसे लगता है कि इस डॉक्टर ने ईलाज करने के बजाय उसे जहर का इंजेक्शन देकर मार दिया है। डॉक्टर उसका भ्रम दूर करने की कोशिश करता है पर उससे स्थिति और बिगड़ जाती है और डॉक्टर की जान पर बन आती है। डॉक्टर किसी तरह उस गुड्डे पर कब्जा कर लेता है और उसके भ्रम को दूर करने के लिए गुड्डे को पटकता है तो गुड्डे की खराबी दूर हो जाती है और वह बोलने लगता है तब कहीं जाकर डॉक्टर साहब उस स्त्री के चंगुल से छूटते हैं। सिर्फ तीन पात्रों वाला यह नाटक अंत तक बांधे रखता है। दर्शक भी पात्रों के संत्रास से जुड़ जाते हैं। अतरंग थिएटर का यह बेहतरीन अनुभव था। डॉक्टर सिद्धांत रावत के रूप में सुवर्ण, पति जगदीश के रूप में अभिषेक डोभाल और मानसिक रोगी ऊषा के रूप में आरती साही अंत तक बांधे रखते हैं।डॉ सुवर्ण रावत आमतौर पर एक निर्देशक के तौर पर जाने जाते हैं परंतु यहां वह दोहरी भूमिका में थे निर्देशक की और कलाकार की भी। बहुत दिनों बाद उन्हें अभिनय करते देखना एक सुखद अहसास था।
नाटक देख कर लग रहा था कि ऊषा, ऊषा नहीं पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों में स्वास्थ्य, शिक्षा और पलायन की मार से अवसाद ग्रस्त जनता है जिसके रोग का इलाज डॉक्टरों ( नेताओं, नौकरशाहों और सोशल एक्टिविस्टों) के पास नहीं है। उनकी भी अक्सर वही हालत होती है जो नाटक में डॉक्टर सिद्धांत रावत की होती है।
नाटक की शुरुआत से पहले सुवर्ण जी की बेटी और जानीमानी नृत्यांगना श्रीवर्णा रावत की नृत्य में कृष्ण स्तुति और नाटक के बाद डॉक्टर डी आर पुरोहित , नरेंद्र सिंह नेगी, लोकेश ओहरी , चंद्रशेखर तिवारी, इंद्रेश मैखुरी, सतीश शर्मा और अंजना राजन को सुनना बोनस की तरह था।
धन्यवाद सुवर्ण जी,
धन्यवाद कैफे लाटा
DINESH BIJALWAN





