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Uttrakhand

कुली बेगार आंदोलन


जनवरी 1921 के मध्य में उत्तरायणी पर हमारे संग्रामी पूर्वजों ने बागेश्वर में ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया था।आजादी के आंदोलन में इसको रक्तहीन क्रांति की संज्ञा भी दी गई।आइए जानते हैं उस आंदोलन के बारे में…..
11 जनवरी 1921 को शक्ति अखबार में बदरी दत्त पाण्डे का ‘बेगार उठा लो’ का आह्वान किया. 1921 के आरम्भ में कुमाऊँ का सामाजिक-राजनैतिक तापमान अपनी पराकाष्ठा पर था. गाँवों- विशेष रूप से समस्त कत्यूर, बोरारौ तथा रानीखेत क्षेत्र-में बेगार विरोधी लहर पूरी तरह फैल चुकी थी और उत्तरायणी मेले में इस सबकी सम्मिलित अभिव्यक्ति का सभी को इन्तजार था. जनवरी 1921 में जंगलात विभाग को गणाई तथा द्वाराहाट में कुली नहीं मिले. यह काशीपुर अधिवेशन का असर था और स्थानीय प्रतिरोधों की परम्परा के क्रम में भी था. यद्यपि अलमोड़े के डिप्टी कमिश्नर डायबिल को इससे खतरा नजर नहीं आया. 11 जनवरी 1921 को जब डायबिल निश्चिन्त होकर बागेश्वर को रवाना हुआ तो उस समय वह सोच भी नहीं सका था कि वह बागेश्वर के मेले में नहीं बागेश्वर के आन्दोलन में जा रहा है. वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि वह बागेश्वर में अपमानित होने जा रहा है और यह अपमान औपनिवेशिक सत्ता का भी होगा.

उधर 10 जनवरी को ही हरगोविन्द पंत, चिरंजीलाल, बदरी दत्त पाण्डे, चेतराम सुनार सहित परिषद् के लगभग 50 कार्यकर्ता अलमोड़े से बोरारौ-कत्यूर होकर बागेश्वर पहुँच गये थे. रास्ते भर नारे लगते रहे- भारत माता की जय, महात्मा गाँधी की जय तथा वन्दे मातरम. कुछ कार्यकर्ताओं ने नागपुर से लाई गई खादी की टोपियाँ पहनी थी. 11 जनवरी 1921 को बागेश्वर में तैयारी होती रही.

12 जनवरी को दोपहर विराट जुलूस निकला. ‘कुली उतार बंद करो’ लिखे हुए लाल कपड़े के एक बड़े बैनर को जुलूस द्वारा कत्यूर बाजार से डुग बाजार तक घुमाया गया. लोगों के हाथों में लाल तथा हरे बैनर थे और होठों पर ‘महात्मा गाँधी की जय’, ‘स्वतंत्र भारत की जय’, भारत माता की जय’ तथा ‘कुली उत्तार बंद करो’ के नारे थे. जुलूस बीच-बीच में रुकता रहा और बदंरी दत्त पाण्डे, हरगोविन्द पंत, चेतराम और चिरंजीलाल भाषण देते रहे. सड़क में जितने लोग थे उससे कम छज्जों, खिड़कियों से उत्सुकता से झाँक रहे स्त्री, बच्चे और बूढ़े भी न थे.

उत्तरायणी मेले में पहली बार ऐसा दृश्य सामने आ रहा था. अंत में जुलूस सरयू तट पर एक वृहद् सभा में बदल गया. सभा में 10 हजार से अधिक जनता उपस्थित थी.

सभी के भाषणों का सार था कि अब कुली न बनें, यह प्रथा न्याय संगत नहीं है. जब हरगोविन्द पंत ने कहा कि जो कुली उतार नहीं देंगे वे हाथ उठाएँ तो समस्त उपस्थित जनता ने उत्साह से हाथ उठाये और बहुतों ने तो यह शपथ ली कि चाहे हमारी जान चली जाय पर अब हम कुली नहीं बनेंगे. इसी दिन सिलोर महादेव (गढ़वाल) में ईश्वरीदत्त ध्यानी के उद्योग से वृहत् सभा हुई और उतार न देने का निर्णय लिया गया.

13जनवरी संक्रान्ति के दिन पुनः वृहत् सभा हुई. बदरी दत्त पाण्डे ने डाक बंगले, जहाँ डिप्टी कमिश्नर डायबिल टिका था और कुछ सरकार परस्त भी वहाँ थे, की ओर संकेत कर कहा- वहाँ कपट दरबार लगा हुआ है. आगे वे बोले कि चाहे मेरे कोई टुकड़े-टुकड़े कर दे या गोली मार दे पर मैं कुली नहीं बनूंगा. आप सब मेरा अनुकरण करें. यही स्वराज्य की दिशा में पहला कदम है।समस्त जनता ने हाथ उठाकर उतार न देने की घोषणा की. ‘सरकार अन्यायी है’, ‘स्वतंत्र भारत की जय’ तथा ‘महात्मा गाँधी की जय’ के नारे लगे. आगे पाण्डे ने कहा कि दानपुर के वीरों ने विश्व युद्ध में साहसपूर्ण कार्य किया, पर अब रौलेट एक्ट के रूप में हमें ईनाम दिया जा रहा है. क्योंकि सरकार समझती है कि हम आन्दोलन करेंगे, स्वराज्य माँगेंगे. यह कानून ’न अपील, न दलील, न वकील’ का है उन्होंने स्पष्ट कहा कि बेगार की सफलता के बाद हम जंगलों के लिए आन्दोलन करेंगे. फिलहाल आप सभी लीसा निकालना, लकड़ी चीरना तथा जंगल के ठेके का काम लेना छोड़ दें. चिरंजीलाल तथा हरगोविन्द पंत के व्याख्यान हुए. उतार न देने की शपथ ली गई और पहली बार कुली रजिस्टर मालगुजारों द्वारा सरयू के प्रवाह में डाले जाते रह.

इस सबका असर जनता पर देखकर अगले दिन डायबिल ने हरगोविन्द पंत, बदरी दत्त पाण्डे, चिरंजीलाल को अपने पास बुलाया और फटकार कर कहा कि बेगारी की जो प्रथा गोरखों के समय से चल रही है उसे रातों रात कैसे उठा दें. इन तीनों को बागेश्वर छोड़ने के आदेश दे दिये थे, पर इन्होंने मना कर दिया. तीनों नेता जब डाक बंगले से निकले तो पुनः प्रतीक्षारत जनसमूह को स्थिति बताने को सभा हुई. बदरी दत्त ने कहा कि यदि आप कुली नहीं देते हैं तो यहाँ से मैं नहीं मेरी लाश जायेगी.

हरगोविन्द पंत ने कहा कि जनता अटल रही तो हम साथ देने को तत्पर हैं. देखते-देखते सभी ने शपथ ली और बचे हुए कुली रजिस्टर सरयू में डाल दिये गये. सरयू का पानी अंजुली में लेकर दृढ़ रहने की शपथ भी ली गयी. फिर चिरंजीलाल, मोहनसिंह मेहता, रामदत्त, जीतसिंह, पुरुषोत्तमदत्त जोशी आदि ने व्याख्यान दिये.
15 जनवरी को जिला प्रशासन को आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी से होने वाले खतरे का अंदाजा लग गया था. डायबिल के साथ बागेश्वर में पुलिस के 21 अफसर, 25 सिपाही तथा मात्र 500 गोलियाँ थीं लेकिन डायबिल ने पाया कि अधिकांश थोकदार तथा मालगुजार आन्दोलनकारियों के प्रभाव में हैं, तो वह उन्हें चेतावनी तक नहीं दे पाया.
बागेश्वर की सफलता के बाद वहाँ लिये गये निर्णय और उसके स्थानीय प्रभाव को सर्वत्र जनता तक पहुँचाने की सर्वाधिक आवश्यकता थी. इसके लिए आन्दोलन के नेताओं / कार्यकर्ताओं ने गाँव गाँव जाकर जो हुआ उसे बताने और जो किया जाना है उसे समझाने का कार्य शुरू किया. यह सब इतने नियोजित तथा प्रभावशाली ढंग से किया गया कि बागेश्वर तथा आसपास की चार पट्टियाँ में फैला आन्दोलन व्यापक रूप से पूरे अलमोड़े, नैनीताल तथा गढ़वाल जिलों में फैल गया. 30 जनवरी 1921 को जिला गढ़वाल की सबसे महत्वपूर्ण सभा चंमेठाखाल में मुकुन्दीलाल की अध्यक्षता में हुयी. चमेठाखाल प्राइमरी स्कूल के प्रांगण में मुकुन्दीलाल ने बागेश्वर आन्दोलन की चर्चा की और इसका अनुकरण गढ़वाल के लिए अनिवार्य बताया. खन्द्वारी के ईश्वरीदत्त ध्यानी और बंदखणी के मंगतराम खंतवाल ने मालंगुजारी से त्यागपत्र दिया. इसी सप्ताह ऊपरी गढ़वाल के दशजूला पट्टी के ककोड़ाखाल (गोचर से पोखरी पैदल मार्ग) नामक स्थान पर अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में आन्दोलन हुआ और अधिकारियों को कुली नहीं मिले.

इलाहाबाद तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षारत छात्रों ने लौटकर इस आन्दोलन में हिस्सेदारी की. जो काम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र प्रयाग दत्त पंत ने पिथौरागढ़ में किया, वही भैरवदत्त धूलिया, भोलादत्त चंदोला, जीवानन्द बडोला, गोवर्द्धन बडोला, भोलादत्त डबराल ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से लौटकर गढ़वाल में किया. ‘गढ़वाली’ के संपादक विश्वम्भर दत्त चंदोला इस समय अपने गाँव के दौरे पर आये थे.
बेगार उन्मूलन आन्दोलन उत्तराखण्ड का प्रथम आन्दोलन था, जिसमें स्थानीय समाज के विभिन्न वर्गों ने अधिकतम हिस्सेदारी की थी. सामान्य बेगार विरोधी आक्रोश से आरम्भ इस प्रक्रिया के संगठित आन्दोलन में रूपान्तरित होने तक एक विकास क्रम देखा जा सकता है. बेगार आन्दोलन का पहला दौर राष्ट्रीय संग्राम के उन वर्षों में पड़ता है जब कांग्रेस में सुधारवादी नरमपंथी सोच का अधिक प्रभाव था. आवेदनों द्वारा संक्षिप्त सुधार पाना इस समय राष्ट्रीय या स्थानीय स्तर पर अभीष्ट था. 1905 के बाद कांग्रेस में मतभेद और अन्ततः नरम-गरम दलों में विभाजन होने और कुमाऊँ में कुछ समय के लिए निवेदनों और शिष्ट मंडलों के स्थगित होने के पीछे यह भी एक कारण था. बेगार आन्दोलन का दूसरा दौर प्रथम विश्व युद्ध के साथ प्रारम्भ होकर असहयोग आन्दोलन में विलीन हो जाता है. इसी दौर में राष्ट्रीय स्तर पर न सिर्फ कांग्रेस की दोनों धाराओं का विलय होता है और मुस्लिम लीग करीब आती है वरन उत्तराखण्ड में कुमाऊँ परिषद् का जन्म और विकास होता है.

पहला दौर लम्बा और कम सक्रिय और दूसरा दौर एक दशक से कम अवधि का होकर भी बहुत अधिक सघन, संगठित, जनमुखी और आकर्षक रहा है. पहले दौर में बेगार को संशोधित करने की -आवश्यकता महसूस की गई और शिष्ट मंडलों-निवेदकों ने बेगार उन्मूलन हेतु प्रार्थनाएँ अधिक की थी, जबकि दूसरे दौर में उन्मूलन के लिए कुमाऊँ के काश्तकारों द्वारा प्रत्यक्ष कार्रवाई की गयी और प्रार्थनाओं का स्थान आक्रामकता ने ले लिया. यह आक्रामकता कुछ विशेष लोगों – नेतृत्व वर्ग- तक ही सीमित न होकर जन सामान्य में मौजूद थी. आन्दोलन तब सिर्फ बेगार के संदर्भ में ही नहीं उभरा, वरन् जनहितों को नकारने वाली जंगलात नीति और सरकार द्वारा उत्तराखण्ड क्षेत्र का शिक्षा तथा काउन्सिल की सदस्यता आदि संदर्भों में नकार जैसे विषय भी आन्दोलन से जुड़ गये थे. विभिन्न अन्य विषयों ने बेगार आन्दोलन को त्वरित किया. इसलिए इस दौर का आन्दोलन अधिक व्यापक और गहरा बन सका.

कमिश्नर हैनरी रैमजे के प्रशासन के उत्तराद्ध तक ग्रामीण क्षेत्रों में बेगार का जो छिटपुट विरोध किया जाता रहा था, उसे स्थानीय पत्रों के प्रकाशन और काउन्सिल-कांग्रेस में इस प्रथा के विरुद्ध उठ रहे प्रश्नों -प्रस्तावों से अप्रत्यक्ष रूप से कुछ बल मिला. पिछली सदी के अंत तक बेगार विरोधी आन्दोलन दो स्तरों पर चलने लगा था. एक ओर काश्तकारों के व्यक्तिगत आक्रोश सामूहिक पर असंगठित विरोधों में रूपान्तरित होने लंगे थे. सोमेश्वर के प्रतिरोध से 1903 में खत्याड़ी के ग्रामीणों की सफलंता तक इस तरह के विभिन्न प्रसंगों के नायक और अभियन्ता काश्तकार ही थे. दूसरी ओर उत्तराखण्ड के प्रारम्भिक कांग्रेसी, स्थानीय पत्रों के संपादक, लेखक, वकील, अध्यापक, पदवीधारी, कांग्रेसों, शिष्ट मंडलों, आवेदनों और पत्रों की टिप्पणी के द्वारा बेगार की अति पर रोक लगाने का विनय करने लगे थे. मानवीय तथा जनतांत्रिक तर्क रखने वाले ये. सभी महानुभाव अलमोड़े, नैनीताल या पौड़ी अथवा गाँवों से इन कस्बों में स्थायी-अस्थाई रूप से-आ कर रहने लगे भद्रजन थे .

इस प्रकार इस सदी के पहले दशक में दो समानान्तर स्तरों पर बेगार का विरोध निरन्तर बढ़ता गया था, पर ये दोनों आन्दोलन सामान्यतया सीमित, असंगठित और एक दूसरे के पूरक होने के बावजूद एक दूसरे से अपरिचित थे. ग्रामीण आन्दोलन में आक्रोश और दुस्साहस एक साथ अभिव्यक्त होते रहे तो शहरी शिष्ट मण्डल असली अर्थों में उदार और शिष्ट थे. पर इन दोनों के एक तथा अधिक व्यापक होने की संभावनाएँ थीं.

यह स्वाभाविक ही था कि जब आम ग्रामीण जन शिक्षा और जागृति से वंचित तथा देश की घटनाओं या पहाड़ी नगरों की हलचलों से अपरिचित थे, उनमें इस तरह के नेतृत्व का उभरना संभव नहीं था, जो संगठन, प्रचार-प्रसार के स्तर पर अभूतपूर्व कार्य करता और खत्याड़ी जैसे प्रतिरोधों की शक्ति को जनता में एका और आत्मविश्वास लाने हेतु प्रयुक्त करता तब शहरी नेतृत्व भी आवेदनों से इतर कुछ नही कर पा रहा था. इससे पूर्व अलमोड़े में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएँ हुयी थी जैसे प्रेस एक्ट, आर्म्स एक्ट का विरोध या एलबर्ट बिल का समर्थन आदि, उनसे कुछ ही उदार जागृत भद्जन जुड़े थे. बेगार से प्रत्यक्ष पीड़ित न होने के कारण ग्रामीणों का सा प्रतिरोध इनके लिए संभव भी न था.

इस सदी के आरम्भ में राजनैतिक जागृत के कारण यह स्थिति कुछ बदली. गाँवों के लड़के भी शिक्षा प्राप्त करने या सेना में भर्ती होने अलमोड़े, रानीखेत, लैन्सडौन, देहरादून या देश में अन्यत्र जाने लगे. एक ही समस्या से सम्बन्धित इन समानान्तर आन्दोलनों में इस सदी के प्रथम दशक तक अधिक अन्तर्सम्बन्ध नहीं हो पाया था. जब ग्रामीणों का बेगार के अन्तर्गत दमन या प्रतिरोध करने पर जुर्माना होता था तो भद्रलोक उसमें मददगार नहीं हो पाता था. दूसरी ओर जब बेगार में संशोधन हेतु यह वर्ग कार्य करता था तो काश्तकार इससे अपरिचित ही रहते थे. सोमेश्वर अथवा खत्याड़ी के प्रतिरोध अन्य ग्रामीणों तक नहीं पहुँच सके पर शहरी नेतृत्व भी इनका उपयोग अपने उदार आन्दोलनों हेतु नहीं कर पाया क्योंकि शहरी नेतृत्व का एक हिस्सा पहले धीरे-धीरे संशोधन से, अन्ततः कुली ऐजेन्सी से संतुष्ट हो गया. ऐजेन्सी का प्रसार अलमोड़े तक न होने से यहाँ का नेतृत्व इस प्रभाव से बचा रहा, इसलिए शहरी नेतृत्व में ऐजेन्सी समर्थक तथा पूर्ण उन्मूलन के पक्षधरों के दो समूह बन गये.

1916 में कुमाऊँ परिषद् के जन्म के बाद दूसरा समूह प्रभावशाली हुआ और उसका ग्रामीण आधार भी बढ़ता गया. कुमाऊँ परिषद् ने शहरी नेतृत्व और ग्रामीण काश्तकारों में एका करने में सफलता पाई. परिषद् के शहरी नेताओं-कार्यकर्ताओं को भी ग्रामीणों में से उभरे कार्यकर्ताओं ने ही साहस और प्रेरणा दी. हरगोविन्द पंत, बदरी दत्त पाण्डे, मुकुंदीलाल, गोविन्द बल्लभ पंत, चेतराम आदि शहरी हो चुकने के बावजूद गाँवों से कटे न थे. मोहनसिंह मेहता, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, केशर सिंह रावत, ईश्वरीदत्त ध्यानी, कृष्णानन्द उप्रेती, रामदत्त, प्रयागदत्त पंत, शेरसिंह मनराल, कृष्णानन्द शास्त्री, धरमसिंह कुलौला तथा ज्वालादत्त करगेती आदि पूरी तरह गाँवों से उभरे कार्यकर्ता थे. अपनी पराकाष्ठा के समय आन्दोलन फिर गाँवों की ओर गया क्योंकि ग्रामीण जनता से आन्दोलन में व्यापक हिस्सेदारी करने, निर्णय ले सकने और अपने निर्णय पर अटल रहने की सभी को आशा थी.

इस आन्दोलन में आम काश्तकार, सयाणा-थोकदार, भूतपूर्व सैनिक, सरकारी कर्मचारी, शिक्षक तथा छात्र आदि सम्मिलित हुए थे. सरकारी तथा जिला परिषद् स्कूलों के अध्यापक प्रत्यक्ष आन्दोलन में आये और स्थानीय ही नहीं बनारस या प्रयाग में पढ़ रहे छात्र भी सक्रिय थे. भूतपूर्व सैनिक या प्रथम विश्वयुद्ध से लौटे सैनिकों ने बागेश्वर में असाधारण भूमिका निभाई थी. जनवरी 1921 के बाद प्रधान, थोकदार ही नहीं पटवारी, पेशकार और डिप्टी कमिश्नर तक अपनी पुरानी प्रभावशाली हैसियत खो चुके थे. सरकारपरस्त प्रधानों की नई पीढ़ी प्रत्यक्ष आन्दोलन में आ गई थी. रानीखेत तथा लैन्सडौन जैसी छावनियों के पास सरकार विरोधी सभाएँ होने लगी थी.

जिला प्रशासन नेताओं की अपेक्षा अनपढ़ आन्दोलनकारियों से अधिक भयभीत था. स्वराज्य की बात गाँव-गाँव में हो रही थी. स्कूली बच्चे गाँधी टोपी पहन रहे थे. सरकारी अधिकारियों को जनता ने सलाम करना छोड़ दिया था. शराब की दुकानों पर धरना हो रहा था, ग्रामीणजन वन नियमों का उल्लंघन कर रहे थे. बेगार की लड़ाई की जीत जंगलों की लड़ाई से जुड़ी हुई बतलाई जा रही थी. आन्दोलन तराई से भोट तक और दोगड्डा से काली कुमाऊँ तक फैल गया था.

प्रशासन भयभीत भी था. इसलिए देर सवेर 1921 में जब गिरफ्तारियाँ शुरू हुई तो वह जंगलात या बेगार आन्दोलन का नाम लेकर नहीं थी वरन असहयोग आन्दोलन के तहत की गयी थीं. आन्दोलन का नेतृत्व तथा संचालन कार्य सामूहिक था. ग्रामीण कार्यकर्ताओं का बड़ा समूह शहरी नेतृत्व तथा काश्तकारों को जोड़ने का असाधारण निमित्त बना था. नेतृत्व वर्ग पर आर्य समाज, विवेकानन्द, तिलक, गाँधी, रूसी क्रान्ति, यूरोपीय आदर्शवाद तथा राष्ट्रीय कांग्रेस का मिला जुला असर था लेकिन यह ऊपर से आ रही ऊर्जा थी. नीचे की ऊर्जा का स्रोत पहाड़ के आम काश्तकार, ग्रामीण कार्यकर्ता थे, जिन्हें बेगार तथा जंगलात के प्रश्नों ने जागृत और संगठित किया था.

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