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कारवां गुजर गया,गुबार देखते रहे /आज हिंदी के प्रसिद्ध कवि गोपाल दास नीरज जी की पुण्य तिथि है।

Rajiv Nayan Bahuguna का संस्मरण

मैं उनके जीतेजी उन पर कई आपत्तिजनक खुलासे कर चुका था, और इस कारण उन्होंने मुझे कुछ फटकार का संदेश भी भेजा लेकिन कभी मन खराब न किया. दरअसल गोपालदास नीरज का मूल्यांकन हिंदी में न्यूनतम हुआ. इसके कई कारण थे. पहली बात कि वह मंच पर किसी को टिकने न देते थे. उन्हें सबसे बाद में पढ़वाया जाता था, क्योंकि उनके पाठ के बाद आधे, और कभी तो इससे भी अधिक श्रोता उठ कर चल देते थे. दूसरा वह गा कर पढ़ते थे. उनके गायन पर हज़ारों की भीड़ भी मंत्रमुग्ध हो जाती थी.

लेकिन गा कर सुनाने से उसकी गुणवत्ता कम नहीं हो जाती. निराला भी गा कर पढ़ते थे, और कभी-कभी तो झोंक में मंच पर हरमोनियम लेकर पंहुच जाते थे. क्या इससे निराला कमतर हो गए?

नीरज ने हिंदी मंच की भाषा को भ्रष्ट होने से बचाया. मनमौजी तो वह थे ही. पहले टाइपिस्ट रहे, फिर प्रोफेसरी की और फिर फिल्मों में चले गए. वहां भी मन न रमा तो छोड़ आये.

कहा जाता था कि कुछ हीरोइनें उनके प्यार में पड़ गई थीं. ऐसा हो भी सकता है. क्योंकि वह कामदेव की टक्कर के सुघड़ सुंदर पुरुष थे. इस पर चिढ़ कर मायानगरी के दम्भी अभिनेताओं और डायरेक्टरों ने उन्हें बंबई से खदेड़ भगाया. क्योंकि वे उनकी उपस्थिति से असुरक्षित महसूस करते थे. भले ही उनमे से अधिसंख्य नशा और स्ट्रेस के कारण हीरोइनों का बाल भी बांका न कर पाए. रात को एक्ट्रेस के साथ भाई बहन की तरह सोएंगे, पर दूसरे को न सटने देंगे. मैने नीरज से एक बार इस बाबत पूछा, तो उन्होंने गोलमोल जवाब दिया. महिलाओं का सानिध्य उन्हें बेहद पसंद था. कवि सम्मेलनों में अक्सर किसी महिला साथी की संगत में नज़र आते.

उनसे मेरी पहली मुलाक़ात बड़ी विचित्र और आकस्मिक परिस्थितियों में हुई. यह 1982 की बात है. एमए की परीक्षाओं में मेरे अन्य पेपर तो ठीक हुए, पर संस्कृत वाले पर्चे में मामला निल था. दरअसल मैं यदाकदा ही क्लास जाता था, अन्यथा गांव, वनों, नदियों में गाते-बजाते समय बिताता. एमए हिंदी के कोर्स की किताबें मैं अपनी स्वाभाविक रुचि के कारण 12वीं तक आते आते पढ़ चुका था, पर संस्कृत कभी न पढ़ी.

मुझसे अत्यधिक स्नेह रखने वाले हमारे प्रोफेसर गोविंद शर्मा ने परीक्षा के उपरांत मेरी संस्कृत के पर्चे वाली कॉपी देखी, तो वह अतिशय व्याकुल और चिंतातुर हो गए. क्योंकि मैंने अधिकाधिक 100 में से 15 नम्बर लाने लायक़ उत्तर लिखे थे. प्रोफेसर का सर्वाधिक प्रिय और होशियार छात्र एक पर्चे की वजह से फेल हुआ जा रहा था.

घोर नैतिकतावादी प्रोफेसर ने भागदौड़ कर पता किया कि कॉपी जंचने क लिए कहां जा रही है. तब उन्होंने मुझे एक पर्चा और 100 रुपये देकर कहा- “देखो कॉपी जंचने को अलीगढ़ जा रही हैं. कुछ निदान कर सकते हो तो मेरी इज्जत और अपना भविष्य बचा लो.”

मैं उत्तरकाशी से सीधे दिल्ली में मौजूद अपने संरक्षक और राजनेता हेमवती नन्दन बहुगुणा से गिड़गिड़ा कर कहा, किसी को फोन कर दीजिए. लेकिन वह साफ नट गए. कहा- “आखिर नैतिकता भी कोई चीज़ होती है.” लेकिन उन्होंने इतना अवश्य किया कि एक खासी रकम मेरी जेब मे ठूंस दी, और कहा खुद झेल लो.

एक हाथ से अपने नोटों से भरा खीसा दबाए जब मैं अलीगढ़ उतरा तो दुपहर हो चुकी थी. रिक्शा वाला मुझे सीधे अच्छे होटल ले गया, जिसकी दर तब 400 रुपये थी. मैंने वेटर से इंग्लिश का एक पव्वा मंगवाया, शाही भोजन किया, और तब इंग्लिश पीकर मैनेजर से अंग्रेज़ी में पूछा- “व्हेर इज मिस्टर जी डी नीरज. द फेमस कवि ऐंड गीत लेखक.”

वह हंसा और बोला- “नीचे उतरिये. कोई भी रिक्शा वाला 4 रुपये लेकर नीरजजी के घर छोड़ देगा.”

क्वार्टर पीकर मुझमें आत्मविश्वास आ गया. क्योंकि मैं 15 साल की उम्र से सुदूर नगर-नगर अकेला फिरता था. कई नदियों में बहने से बचा, कई कामुक बुड्ढों की कामुकता से बाल-बाल बचा, और जेबकतरों से ज़ेब बचाई. मुझे यकीन था कि करुणा के सम्राट नीरज मुझ पर अवश्य करुणा करेंगे. और उन्होंने ऐसा ही किया. नीरज के साथ मेरा यह चित्र तभी का है.

रिक्शा वाले ने जब मुझे नीरज की हवेली के गेट पर छोड़ा, तो वह बनियान और तहमद पहने खोमचे वाले से चाट पत्ता बनवा रहे थे. मैं भले ही उनसे पहले कभी मिला न था , पर देखते ही पहचान लिया. मैं उनके चरणों मे ऐसा लुंठित हुआ कि उनके उठाने पर ही उठा.

जब मैंने बताया कि मैं सिर्फ उन्हीं से मिलने सुदूर जनपद उत्तरकाशी से आया हूं, तो उन्होंने मुझे अंक में भर लिया. मेरा मुंह सूंघ कर बोले- चाय तो तुम अभी पियोगे नहीं. चाट ही खा लो. मेरे लिए भी एक पत्ता बनवाकर वह मुझे ग्रीवा पकड़ भीतर ले चले.

बरामदे में जब हम अगल बगल बेंत के मुड्ढों पर बैठे, तब मैंने उन्हें अपने झोले से निकालकर अपनी कविता की कॉपी थमा दी. पन्ने पलटते वह एक जगह ठहरे और पढ़ कर वाह-वाह कर उठे. मेरी उस ग़ज़ल का एक मिसरा था-

“किसी पहाड़ के झरने में घोल दूं आतिश
मैं तिश्नगी के लिए एक घूंट आब लिखूं.”

वह बार-बार उस मिसरे को दोहराने लगे. तब मैं समझ गया कि मेरा दांव सही पड़ गया है. मैंने सफाई दी- “चूंकि आपके सामने सामान्यतः मेरी आने की हिम्मत न थी, इस लिए हिम्मत बढ़ाने को थोड़ी सी लगा ली.

वह बोले- “यह तो तुम्हें मैंने पूछा ही नहीं, न कोई एतराज किया.” मेरी समझ मे आ गया कि नीरज छद्म नैतिकतावादी नहीं हैं, और जब मैं धोखाधड़ी से अपने नम्बर बढ़ाने का प्रस्ताव रखूंगा, तो वह बुरा नहीं मानेंगे. उन्होंने सूचित किया कि 10 मिनट बाद मुझे बैंक चलना है. तुम भी साथ चलोगे. मैंने इस बीच उनकी कार धुल दी. जब हम उस पुरानी, खुली, छोटी और रंगीन कार में बैठ बैंक को चले, मानो रथ चला, परस्पर बात चली, समदम की टेढ़ी घात चली.”

उन्होंने पूछा, और क्या-क्या पढ़ते-लिखते हो? तब मैंने बताया, “लिखता तो हूं, पर पढ़ता नहीं. इसीलिए मेरी यह दुर्गति हुई है.” मैंने साफ-साफ अपना मकसद बता दिया. नीरज के चेहरे पर कोई शिकन न आई. उन्होंने कहा, “तुम जैसे मेधावी लड़के के लिए कॉलेज की डिग्री कोई मायने नहीं रखती. तुम्हे अच्छे नम्बर दिलाये जाएंगे.”

शाम को वह मुझे संग एक गोष्ठी में ले गए, जहां लक्षित प्रोफेसर को वह पहले ही बुला चुके थे. प्रोफेसर ने अर्धचन्द्र उनकी अभ्यर्थना की. उस गोष्ठी में रविन्द्र भ्रमर भी उपस्थित थे, जो हिंदी के एक प्रतिष्ठित गीतकार थे. वह भी नीरज से दब रहे थे. जब अंत मे नीरज का नम्बर आया तो उन्होंने कहा, आज मुझे एक नायाब हीरा मिला है. आज मैं इसी की एक ग़ज़ल सुनाऊंगा.

यह कह उन्होंने मेरी पूरी ग़ज़ल सुना दी, जो उन्होंने दिन में मेरी कॉपी में देखी थी. मैं उनकी स्मृति मेधा पर दंग रह गया. एक नौसिखुए की, एक बार पढ़ी चीज़ उन्होंने कंठस्थ कर ली. जाहिर है कि ऐसा वह मेरा रुतबा बढ़ाने को कह रहे थे, ताकि लक्षित प्रोफेसर मेरे पक्ष में धोखधड़ी करने में कोई आनाकानी न कर.

उन्होंने प्रोफेसर को बोला, लड़के को साथ ले जाओ. इसी के सामने इसकी कॉपी पर नम्बर धरकर इसे वापस मेरे घर छोड़ देना. यंग आचार्य ने जब बंडलों से मेरी कॉपी निकाली, तो उनकी आंखें फ़टी रह गयी. कॉपी पर सिर्फ तीन पेज रंगे थे, और वह भी सवालों से इतर जवाब थे. उसने बांह से अपना पसीना पोंछ मेरी कॉपी पर 100 में से 62 नम्बर लिखे और मुझे नीरजजी के घर छोड़ आया.

शाम को जब हम पीने बैठे तो देखा कि नीरज तीन पैग से ज़्यादा नहीं लेते. जबकि उनके बारे में एक शराबी की धारणा थी. मैंने उन्हें सस्वर गढ़वाली लोकगीत और कुछ उनके गीत सुनाए. वह सिगरेट और बीड़ी दोनों पीते थे, धकाधक. उनकी बीड़ी का बंडल खुल कर उनके कुर्ते की जेब के धागों में फंस गया, और वह झुंझला उठे. मैं सुरूर में आ ही गया था.

मैंने कहा- कभी-कभी छोटों के अनुभव भी कामयाब होते हैं. सिगरेट का पैकेट हमेशा आगे से खोलना चाहिए, और बीड़ी का बंडल पीछे से. पीछे से खोलने पर बंडल अंत तक टाइट रहता है, जबकि आगे से खोलने पर दो बीड़ियों के निकलने पर ही लूज़ हो जाता है. तब बंडल अलग और बीड़ी अलग. ऐसे में पुराने में मज़ा खत्म हो जाता है, और नया देखना पड़ता हैं. उन्होंने मेरे एक धौल जमाई और कहा, “तुम सीधे दिखते हो, पर असल में हो बड़े बदमाश और खिलाड़ी आदमी.”

((ये लेखक के निजी विचार हैं )

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2 Comments

  1. विश्वविद्यालयी शिक्षा में उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन के इस स्तर को सार्वजनिक करना, वो भी आदरणीय नीरज जी की स्मृति के सहारे !!! ये बात आधुनिक शिक्षा जगत के खोखलेपन को सही ढंग से उजागर करती है . पाठकों की नयनों के राजीव जी सफल हुए गन्दगी को सपाट ढंग से बयान करने पर ,, वह हर प्रकार के पाठकों धन्यवाद के पात्र हैं . साथ ही साथ समाचारों से हटकर, नीरसता तोड़ने के लिए , कभी – कभी ऐसी छपाई के लिए UKNATIONNEWS.COM पोर्टल को भी धन्यवाद .

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