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ऐसी महान विलक्षण विभूतियाँ जो जन्म ही लेती हैं अल्पायु में शहादत के लिए : नमन श्री देव सुमनजी

२५ जुलाई को हर वर्ष उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश के कोने कोने में, खासकर जहाँ उत्तराखंड के लोग अच्छी तादाद में रहते हैं , टेहरी गढ़वाल के महान क्रांतिकारी , स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , वीर शहीद श्रीदेव सुमन की पुण्य तिथि को श्रीदेव बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं और उनके आदर्शों सिद्धांतों और बहादुरी को स्मरण करते हुए उनपर चलने की प्रतिज्ञा लेते हैं .

महान क्रांतिकारी जो महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के आदर्शों और अहिंसा के सिद्धांतों और स्वराज प्राप्ति लक्ष्यों से अत्यंत प्रभावित थे , श्रीदेव सुमन ने मात्र २८ वर्ष की अल्पायु में तदेन टेहरी राजशाही के क्रूरतम शासन और साम्राज्यशाही ब्रिटिश हुकुमरानों के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाया , जो टेहरी गढ़वाल के राजा को रास न आया और इस क्रांतिकारी योद्धा को इतिहास के क्रुरतम अध्याय के तहत , ३५ किलोग्राम वज़न की बेड़ियों से बांधकर , उन्हें पीसे कांच के टुकड़ों और कंकरों भरे खाने को जबरन खिलाया गया , उन्हें यातनाएं दी गयी , फलस्वरूप वीर श्रीदेव सुमन ८४ दिनों तक भूके रहे और मात्र २८ वर्ष की उम्र में शहीद हो गए.

यूँ तो स्वराज्य प्राप्ति के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी , भगत सिंह, राजगुरु , और अन्य क्रांतिकारी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अनशन में बैठे , एक नहीं अनेकों बार . लेकिन क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के 112 दिन के अनशन के बाद पूरी दुनिया में शहीद श्रीदेव सुमन की शहादत आज़ादी के ७५ साल बाद और सुमनजी के शहादत के ८४ साल बाद पूरी शिद्दत से याद करते हैं.

महान क्रांतिकारी योद्धा और स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन की ८४ दिन की टेहरी जेल के भीतर की क्रूरतम भूक हड़ताल दुनिया की वह पहली संघर्ष की कहानी है जो न सिर्फ सबके रोंगटे खड़े कर देती है बल्कि पहली ऐतिहासिक घटना है जब एक क्रांतिकारी युवक मात्र २८ वर्ष की अल्प आयु में निरंकुश राजशाही से सीधी टक्कर लेते हुए , ३५ किलो लोहे की भारी भरकर बेड़ियों से बंधे हुए , ८४ दिन की भूख हड़ताल के चलते तिल तिल मौत को गले लगाता है, लेकिन राजशाही व ब्रिटिश हुकूमत के सामने झुकता नहीं है .

अभी तक दुनिया में ऐसे दो ही वाकये हैं जब भगत सिंह ने पाकिस्तान की मियांवाला जेल में ११२ दिन की भूक हड़ताल की और गांधीजी ने कई भूक हड़तालों में २१ दिन की सबसे बड़ा अनशन किया. अलबत्ता आयरलैंड में जन्मे क्रन्तिकारी मेक्सविनि ने ७० दिन की जेल में भूक हड़ताल के बाद जान दे दी थी. ये घटना १९८१ की है और मेक्सविनि तब २७ वर्ष के थे जब वे दिवंगत हुए नॉर्थेर्न आयरलैंड की जेल में.

श्रीदेव सुमन का सम्पूर्ण जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा , मात्र २८ वर्ष की उम्र में मौत को गले लगाने से पहले उनके जीवन के अधिकतम वर्ष अध्ययन , अध्यापन और तदेन टेहरी राजशाही से संघर्ष और स्वराज्य प्राप्ति के आंदोलन में गुजरे .

अपने परिवार को वे समय नहीं दे पाए, मानो उनका जन्म मातृभूमि टेहरी गढ़वाल , वहां की भोली भाली जनता को राजशाही से मुक्ति दिलाने और देश की आज़ादी के लिए हुआ हो.

सही अर्थों में श्रीदेव सुमन का जीवन काँटों भरा रहा और उनका एक मात्र ध्येय था, टेहरी गढ़वाल की भोली भली जनता को राजशाही के क्रूर शिकंजे से मुक्ति दिलाना और स्वराज प्राप्ति के यज्ञ में स्वयं की आहुति देना.

सुमन जी का जनम 25 May 1916 को टिहरी के अति पिछड़े गाॅव जौल (चम्बा) में हुआ था। उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। पंडित हरिराम बड़ोनी और श्रीमती तारा देवी के घर जिस बालक ने जनम लिया तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी टिहरी की राजशाही से मुक्ति दिलाने वाले महापुरूष ने जन्म ले लिया है। जन्म लिये सुमन को तीन वर्ष भी नहीं हुए थे कि पिता पं हरिराम बड़ोनी स्वर्ग सिधार गये।

गढ़वाल देश का एक ऐसा क्षेत्र था जहाँ हर दृष्टिकोण से अभाव, संकटों, दुख, दर्द, गरीबी, के भंडार के साथ अशिक्षा, जल, चिकित्सा, तथा अनाज का अभाव ही अभाव था।

प्राथमिक शिक्षा चम्बा के बाद फिर टिहरी से मिडिल की परीक्षा पास की। कुछ दिन अध्यापक का कार्य किया। बाद में उस समय की रत्न भूषण, प्रभाकर, विशारद, साहित्य रत्न की परीक्षाओं में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से सम्मानीय स्थान प्राप्त किया। इसी बीच सुमन जी ने देवनागरी विद्यालय की स्थापना तथा सन 1938 में ‘गढ सेवा संघ‘ गढ़़वाल की दिल्ली में की। जनता की तत्कालीन परिस्थितियों और राजशाही की निरंकुशता का श्रीदेव सुमन पर गहरा प्रभाव पड़ता जा रहा था जिस कारण अनेक स्थानों की यात्रा की देश के महान पुरूषों विशेषकर श्रीनगर के अधिवेशन में पं जवाहर लाल नेहरू तो वर्धा में महात्मा गाँधी जी से मिलने गये, तथा कालेकर जैसे महापुरूषों का सान्निध्य प्राप्त हुआ और उनके सामने गढ़वाल की जनता की समस्याओं और राजशाही की तानाशाही को रखा। अत्यंत गरीबी , संघर्षमय जीवन , टिहरी की जनता के प्रति जवाब देहि , तादेन राजशाही से सीधे लोहा लेने की हिमाकत और छात्रों और युवाओं में स्वराज्य की भावना भरते भरते उनका रुझान साहित्य, चिंतन और लेखन के प्रति भी गंभीर होता चला गया. फलस्वरूप श्रीदेव सुमन ने इन संघर्षों के दौर में एक पुस्तक जिसका नाम हिंदी पत्र बोध रखा , तथा एक काव्य संग्रह सुमन सौरव का लेखन किया .

१९३७ में वे शिमला गए जहाँ उन्होंने बतौर कार्यालय अध्यक्ष और सम्मलेन की स्वागत समिति का पूरा कार्यभार बाखूबी निभाया. १९३८ में वे विवाह सूत्र में बांध गए. उनकी पत्नी का नाम था विनय लख्मी. विवाह के पश्चात उनके स्वराज्य आंदोलनों से मुताल्लिक दौरे जारी रहे. इसी बीच वे शिमला , लुधिया बनारस और कई प्रदेशों में गए जहाँ उन्होंने आज़ादी की जनसभाओं और कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं से टेहरी राजशाही के क्रूर शासन और जनता के उत्पीड़न आदि की शिकायतें रखीं . जब टिहरी के राजा और वहां के प्रसाशन को इसकी भनक लगी तो राजशाही ने न सिर्फ उनके अनेक सामाजिक संगठनों और संघर्षों पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया बल्कि छात्रों , युवाओं और श्रीदेव सुमन के संघर्ष के साथियों का उत्पीड़न भी शुरू कर दिया.

नतीज़तन श्रीदेव सुमन को अपने तमाम कार्यक्रम रद्द कर टेहरी वापस लौटना पड़ा. ये वर्ष था १९४० का. जैसे ही वे टिहरी लौटे राजशाही के कारिंदों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. वे सन सितम्बर 1942 देहरादून जेल में बंद कर दिये गये। फिर आगरा जेल भेज दिये गये, लौटकर टिहरी वापस आये। उस समय तक टिहरी में राजशाही के विरूद्ध छात्र आन्दोलन भी पनपने लगा था। इससे पूर्व दो बार राज्य से उनका निष्कासन हुआ 30 दिसम्बर 1943 को फिर 21 फरवरी को जेल भेज दिये गये. जेल में उन्हें बेतहाशा यातनाएं दी गयी . उनपर डंडों, लाठियों और लोहे की सलाखों से पीटा गया . उन पर दबाव बनाया गया की वे अपना राजद्रोह का जुर्म कुबूल कर लें और राजा के सामने घुटने टेक दें, उनसे माफ़ी मांग लें . लेकिन क्रांतिवीर श्रीदेव सुमन नहीं झुके .

उन्हें जबरन पीसे हुए शीशे और कंकर युक्त भोजन दिया गया जिसे खाने से श्रीदेव सुमन ने मना कर दिया. उन्हें कई दिनों तक ३५ किलोग्राम वज़न की बेड़ियों में बाँधा गया और पीने के पानी से वंचित रखा गया. उनकी गिरफ्तारी और उनपर ढहाए जुल्म की दास्ताँ सुनकर टिहरी की जानता बुरी तरह बिफर पड़ी और भरी संख्या में लोग जेल के बाहर एकत्रित होने लगे. पूरा टिहरी एक छावनी बन गया. जनता के बढ़ते आक्रोश को देखते हुए जब राजा को श्रीदेव सुमन की ८४ दिन की भूक हड़ताल के बाद हुई मौत की खबर मिली तो वे बोखला गए और आनन् फानन में, इस डर से कि आक्रोशित जनता को ये खबर न मिल जाए, आधी रात को उनकी लाश को भागीरथी नदी के हवाले कर दिया गया.

गढ़वाल,उत्तराखंड ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली , नागेंद्र सकलानी , श्रीदेव सुमन जैसे अनेकों क्रांतिवीरों को जन्म दिया जिन्होंने राष्ट्र की एकता,अखंडता और आज़ादी के लिए अपनी वेशकीमती बहादुरी और शहादत से मौजूदा और आने वाली पीडियों के लिए राष्ट्र के प्रति प्रबद्धता का विशेष सन्देश दिया है . हम उनके अमिट बलिदानों के प्रति अपना शीश झुकाकर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं .

वीर क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन की सन१९४४ की ये शहादत दुनिया की सबसे ज्यादा दिनों के संघर्षों और भूक हड़ताल का इतिहास है जो उत्तराखंड और देश में जनविरोधी क्रूरतम टिहरी राजशाही और ब्रिटिष साम्राज्यशाली हुकूमत से सीधा लोहा लेकर घोर उत्पीड़न सहते हुए मात्र २८ वर्ष की अल्पस्यु में जेलों की क्रूरतम उत्पीड़न झेलते हुए ८४ दिन के अनशन के बाद शहीद हो गए. ये दुनिया का एक अद्वितीय उदहारण है जो उत्तराखंड के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज़ है.
Sunil Negi

उत्तराँचल पत्रिका के लिए विशेष

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