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India

एसकेएम ने बढ़ती बेरोजगारी, भूमि और आजीविका के संसाधनों से विस्थापन के लिए कॉरपोरेट पक्षीय नीतियों को जिम्मेदार ठहराया

– बढ़ती बेरोजगारी, भूमि और आजीविका के संसाधनों से विस्थापन के लिए कॉरपोरेट पक्षीय नीतियों को जिम्मेदार ठहराया

– सी 2+50% के एमएसपी पर सभी फसलों की सरकारी खरीद, दालों सहित प्रति व्यक्ति 14.5 किलोग्राम तक पीडीएस वितरण में वृद्धि, जीने लायक न्यूनतम मजदूरी की गारंटी, मनरेगा आवंटन में वृद्धि की मांग करने का अह्वान किया ।

वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स, जीएचआई) 2023 ने भारत को 125 में से 111वें स्थान पर लाकर मौजूदा सरकार के थोथे नारे ‘सब का साथ, सबका विकास’ को एक बार फिर जग-जाहिर कर दिया है। नव-उदारवादी, कॉर्पोरेट पक्षीय नीतियों के तहत भूख और गरीबी तेजी से बढ़ रही है, जो आय असमानता के साथ-साथ धन के केंद्रीकरण को भी बढ़ावा देती है ऐसा मानना है, संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) का I

यहाँ जारी एस के एम् की एक प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक आज 1% भारतीयों के पास राष्ट्रीय आय का 40% है जबकि निचले 50% लोगों के पास केवल 3% संपत्ति है। कॉर्पोरेट भारी मुनाफा कमा रहे  हैं जबकि मजदूरों, किसानों को गंभीर गरीबी का सामना करना पड़ रहा है।

वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई) वैश्विक भूख को मापता है और उस पर नज़र रखता है तथा भारत के 28.7 स्कोर को “गंभीर” के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जितना अधिक स्कोर होगा, पोषण संबंधी सुरक्षा उतनी कम होगी। जीएचआई चार संकेतकों पर आधारित है, जिनमें से प्रत्येक को कम पोषण और बाल मृत्यु दर के लिए एक-तिहाई वेटेज दिया जाता है और प्रत्येक को छठा महत्व बच्चों के बौनेपन और भोजन की तीव्र कमी से शरीर मास घटना – वेस्टिंग के लिए दिया जाता है। बच्चों के आंकड़ो का उपयोग समाज का मूल्यांकन करने के लिए सबसे संवेदनशील उपाय है क्योंकि परिवार पहले बच्चों को खाना खिलाते हैं और बच्चे भोजन की स्थिति में बदलाव पर तेजी से प्रतिक्रिया देते हैं।

विज्ञप्ति में कहा गया कि मौजूदा शासन के दौरान अल्पपोषण के सबसे खराब आंकड़े देखे गए हैं, जहां 2014 से 16 के बीच सूचकांक 14 से बढ़कर 2020-22 में 16.6 हो गया और बाल शरीर मास घटना – वेस्टिंग में गिरावट 18 से बढ़ कर 18.7 हो गई। भारत में अल्पपोषण की समस्या इस से भी देखी जा सकती है कि 15 से 49 वर्ष की आयु की 58.1% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं। भारत में बच्चों का शरीर मास घटना – वेस्टिंग की दर 18.7 है जो दुनिया में सबसे ज़्यादा है, उप सहारा अफ़्रीका से भी ज़्यादा। मोदी सरकार इस ‘उपलब्धि’ के मामले में भी नंबर 1 पर है कहना है संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) का ।

एसकेएम विज्ञप्ति के मुताबिक उनके बड़े-बड़े दावों की तरह, भाजपा सरकार के तहत, भूख की स्थिति “निरंतर” गंभीर हो रही है, बावजूद इसके भारत 5वीं सबसे बड़ी और 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बन गया है। 2014 में भारत 76 देशों में 55वें स्थान पर था, 2000 में यह 107 देशों में 94वें स्थान पर, 2021 में 116 देशों में से 101वें स्थान पर और 2022 में 121 देशों में से 107वें स्थान पर था और अब 125 में देशों में से 111वें स्थान पर रहा। केवल अफगानिस्तान 114वें स्थान पर है जबकि अन्य सभी पड़ोसी देश पाकिस्तान 102वें स्थान पर, बांग्लादेश 81वें स्थान पर, नेपाल 69वें स्थान पर और श्रीलंका 60वें स्थान पर है।

जहां सरकार ने जीएचआई को त्रुटिपूर्ण बताते हुए इसे खारिज कर दिया, वहीं महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा कि सूचकांक “गंभीर कार्यप्रणाली संबंधी मुद्दों से ग्रस्त है और दुर्भावनापूर्ण इरादे को दर्शाता है”। यह डेटा एक सापेक्ष अनुक्रमण है और पूर्ण भूख/भुखमरी का अनुमान लगाने का दावा नहीं करता है। आखिर इसमें भारत के खिलाफ ही क्या दुर्भावना हो सकती है? इसे स्पष्ट करने की जहमत नहीं उठाई गई।

विज्ञप्ति में कहा गया : हालाँकि, सरकार के पास एनएफएचएस का अपना डेटा है। इससे पता चलता है कि 2020 में 16.3% भारतीय भूख से पीड़ित थे, 2017, 2018 और 2019 में यह आंकड़ा 13.2, 13.3 और 14.6 था। यह मोदी शासन के तहत भूख प्रतिशत में लगातार वृद्धि को दर्शाता है। सरकार ने सामाजिक और वैज्ञानिक अभ्यास के प्रति विश्वास के बिना, पूरी आबादी की स्थिति को प्रतिबिंबित करने के लिए बच्चों के डेटा का उपयोग करने के मानदंडों पर भी बेहूदा तरीके से सवाल उठाया है। उसने दावा किया गया है कि सरकार के पोषण ट्रैकर से पता चलता है कि केवल 7.2% बच्चों में ही शरीर मास घटना – वेस्टिंग से प्रभावित हैं, यानी वे इतने भूखे हैं कि उनका शरीर कमजोर हो रहा है। यह निश्चित रूप से ‘विश्व गुरु’ के लिए अनुकूल नहीं है और केवल जनविरोधी खाद्य वितरण प्रणाली की नीति को नकारने के उद्देश्य को कहा गया है।

2015-16 में एनएचएफएस के चौथे दौर के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019-20 में पांचवें दौर में बच्चों में शरीर मास घटना – वेस्टिंग की चौंकाने वाली वृद्धि हुई है। यह 7.5% से बढ़कर 7.7% हो गई है। यह जिम्मेदार शासन के लिए एक खतरे का संकेत होना चाहिए था। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि दो राज्य, जिनके बारे में दावा किया जाता है कि वे अपनी आर्थिक नीति में सबसे आगे हैं, महाराष्ट्र और गुजरात, दोनों में बच्चों में शरीर मास घटना – वेस्टिंग की दर 10% से अधिक है और भारत में कम से कम 17 राज्यों में बच्चों में कुपोषण का स्तर अस्वीकार्य रूप से उच्च है। यूपी में भी चौथे से पांचवें राउंड तक बच्चों में शरीर मास घटना – वेस्टिंग की दर 6% से बढ़कर 7.7% हो गई। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि इस अवधि के दौरान 22 राज्यों में महिलाओं में एनीमिया में वृद्धि हुई है और सभी वर्गों के लोगों में एनीमिया की वृद्धि हुई है, ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की तुलना में दोगुनी दर देखी गई। यह गंभीर प्रोटीन और आयरन की कमी को दर्शाता है।

इस रहस्योद्घाटन के साथ यह सरकार के लिए स्वाभाविक ही था, हालांकि एक बेहद गलत कदम, कि उसने अपने स्वयं के निराशाजनक रिकॉर्ड को देखने के बजाय, 1 अगस्त, 2023 को आईआईपीएस (इंटरनेशनल स्कूल ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज) के निदेशक प्रोफेसर पी जेम्स को निलंबित कर दिया। इस संगठन ने ही एनएफएचएस डेटा को एकत्र व सारणीबद्ध किया है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि निलंबन “परिस्थितियों में भौतिक परिवर्तन” के कारण था, पर स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि “कुछ संकेतकों पर डेटा की विश्वसनीयता पर संदेह व्यक्त किया था, लेकिन प्रोफेसर जेम्स निष्कर्षों पर कायम रहे”। जीएचआई 2023 से भारत के गरीबों की दुर्दशा पूरी तरह उजागर हो गई है।

जबकि कॉरपोरेट द्वारा अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में भारी मुनाफाखोरी हो रही है और इसकी कीमत अब मजदूरों, किसानों व आम लोगों के बुनियादी वर्गों के स्वास्थ्य द्वारा चुकाई जा रही है। किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ खेत मजदूरों सहित सभी श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से वंचित करने के कारण उत्पादक वर्गों की आय और क्रय शक्ति को निचोड़ा जा रहा है। बेरोज़गारी बढ़ रही है, ख़ासकर युवाओं में। इसके साथ ही मनरेगा बजट को आधा घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है और मुफ्त राशन के आंशिक खात्मे के साथ खाद्य सब्सिडी में 90,000 करोड़ रुपये की कटौती की गई है।

आजीविका के संसाधनों, कृषि-भूमि, नदी घाटियों और जंगलों से जबरन वहा के वासियों को विस्थापित कर इन्हें कॉर्पोरेट को सौंपा जा रहा है और बड़े पैमाने पर ग्रामीण क्षेत्र से शहरों की और प्रवास के साथ किसानों का कंगाल होना, भूख की इस वृद्धि के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। सार्वजनिक क्षेत्रों का बड़े पैमाने पर निजीकरण, कार्यबल का ठेकाकरण, स्थाई नौकरी और न्यूनतम वेतन से इनकार संकट को और अधिक जटिल बना रहा है।

एसकेएम ने किसानों और आम लोगों से आह्वान किया है कि वे कॉर्पोरेट पक्षीय नीतियों को पलटने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करें और लागत के डेढ़ गुना पर एमएसपी,  600 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी के साथ 200 दिन का काम सुनिश्चित करने के लिए मनरेगा के लिए आवंटन में वृद्धि और पीडीएस सुरक्षा का विस्तार करवाने के लिए आगे आएं।


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