एक वरिष्ठ पत्रकार हबीब अख्तर की जुबानी१९७५ की इमरजेंसी के अनुभव, फ़र्क़ तब की इमरजेंसी और अब के हालातों में
नौजवान आपातकाल का विरोधी था इसलिए हमको गिरफ्तार नहीं किया गया और ना ही कॉलेज से किसी भी तरह का नोटिस मिला। जबकि हम सब ऐसा काम कर रहे थे जिसमें गिरफ्तारी होना जेल जाना सुनिश्चित था। हम आपातकाल के विरोध में थे।
मैं तुर्कमान गेट फाटक तेलियान का रहने वाला हूं । इसलिए हमने तुर्कमान गेट क्षेत्र में बुलडोजर चलाये जाने का, पुलिस दमन का, गोली चलाने का डटकर विरोध किया । हमने पुलिस को गोली से अपने लोगों को मरते हुए देखने का दर्द था । हमने भी और हमारे पिता ने भी उस आपातकाल में बुलडोजर चलाने वाले गोली चलाने वाले पुलिस कर्मियों पर पथराव किए और कुछ लोक पुलिस का विरोध करते बाल बाल बचे और कुछ शहीद हो गए। इसके बाद हमारे इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया और जीवन में मैंने पहली बार इतनी बड़ी एकता हिंदू मुसलमानों के बीच देखी। अजमेरी गेट से दिल्ली गेट और दरियागंज तक के सभी लोग एकजुट हो गए और सब ने मिलकर पुलिस को खदेड़ने की कोशिश की थी। यहां तक की कर्फ्यू के दौरान जिन इलाकों में पुलिस पर पथराव हुआ था उस इलाके में कर्फ्यू लगया गया । मैं कहूंगा आज के दौर में हिंदू इलाकों से हिंदू भाई लोग राहत सामग्री इकट्ठा करके मुस्लिम बहुल इलाकों में आते थे। जिसमें दूध मक्खन अंडे अनाज फल सब्जियां सब शामिल हुआ करती थी। वह एकता सरकार को मंजूर नहीं थी। इसलिए उस समय लंबे समय तक कुछ इलाकों में कर्फ्यू लगा कर कुछ में छोट देकर लोगों को बांटने की कोशिश भी की गई।
आपातकाल लगने की शाम को हम रामलीला मैदान में जय प्रकाश नारायण की सभा को सुन रहे थे और उसी रात देश में आपातकाल की घोषणा हुई और रातों-रात अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जेल भेज दिया गया। और हम यह सब देख रहे थे। सुन रहे थे ।और हमको यह बुरा लग रहा था कि इस तरह की सजा! खैर इसके बाद हमारा हाई सेकेंडरी का रिजल्ट आया उसके बाद हम कॉलेज में दाखिल हुए. साथ हम कॉलेज गए लेकिन वहां का दम घोटूं माहौल कड़ा अनुशासन एक दूसरे पर नजर निगरानी रखना हमको नहीं सुहाया. हमने सोचा था कि खुले आसमान के नीचे और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ हम कॉलेज में विचरण करेंगे, पढ़ाई करेंगे लेकिन वहां का माहौल दम घोटूं मिला. इसलिए हम लोग इस आपातकाल के विरोध में हर तरह से सक्रिय रहे. बस इतना बच बचाकर कि हमें कोई देख ना ले और हमें गिरफ्तार न किया जाए प्रिंसिपल से बच के रहें कि वह रस्टिकेट ना कर दे।
वॉल राइटिंग करते थे .गुप्त ढंग से पर्ची बांटते थे कॉलेज में। कॉलेज की क्लासेस लगने से पहले हम साइक्लोस्टाइल किए गए पर्चों को क्लास में छोड़ देते थे या बंद दरवाजे से अंदर सरका देते थे। भले ही क्लास चल रही हो और वहां से भाग जाते थे छुप जाते थे।
आपातकाल जब हटा तब हमने कुछ मित्रों से पूछा कि आपातकाल के दौरान आपके क्लासेज में जो पर्चे आते थे क्या आप पढ़ते थे? छूटते ही मित्र ने कहा, हां हम उन्हे पढ़ते थे लेकिन हमें यह भी मालूम है कि वह पर्चे आप और आप लोग ही डाला करते थे। खुशी हुई किसी ने मुखबिरी नहीं की।
आपातकाल के दौरान कॉलेज और विश्वविद्यालय में चुनी हुई यूनियन की परंपरा खत्म हो गई और नॉमिनेटेड कन्वीनर बनाए जाने लगे। यह वह दौर था जब कांग्रेसी कार्यकर्ताओं लीडरों का कॉलेज में और विश्वविद्यालय में दबदबा हुआ करता था।
लेकिन एक बात थी कि कॉलेज में डिबेटिंग सोसायटी सक्रिय थी और डिबेटिंग सोसायटी में सचिव पद का चयन आशु वाद विवाद प्रतियोगिता के जरिए होता था । सौभाग्य से मैं उस समय वाद विवाद प्रतियोगिता जीतने के कारण डिबेटिंग सोसायटी का सचिव बन गया । और क्योंकि सामाजिक कार्य में हम सक्रिय रहा करते थे इसलिए एनएसएस में भी सचिव पद पर चयन हो गया । उस दौर में हमने बहुत से सामाजिक कार्य भी किए जैसे भूली भटियारी का महल की साफ-सफाई और जीर्णोद्धार का काम हम लोगों ने किया। अब दो जिम्मेदारियां हम पर थीं।जिन्हें हम आपातकाल के दौरान निभा रहे थे। और गुप्त ढंग से अपनी पर्ची बाजी सरकार के विरुद्ध पोस्टर बाजी सरकार के विरोध में वॉल राइटिंग न केवल कॉलेज में बल्कि विश्वविद्यालय की दीवारों पर किया करते थे। जबरदस्त सर्दी के मौसम में भी रात रात भर जाग कर हम यह वॉल राइटिंग किया करते थे।
बावजूद इसके कांग्रेसियों को इसका पता नहीं चला। उनमें से कुछ चाहते थे कि कॉलेज के अंदर जो यूनियन है मैं उस यूनियन का कन्वीनर बन जाऊं और कॉलेज की यूनियन चलाऊं । इस बात के गवाह और संयोजक पद के प्रस्तावक अभी भी मौजूद हैं। उसी दौर में मशहूर पत्रकार पंकज बोहरा मेरे कॉलेज यूनियन के कन्वीनर बनाए गए थे। आपातकाल हटते के बाद हमने चुनाव जीता मेरे सहपाठी अध्यक्ष और महाचिव बने। मुझे कन्वीनर बनाने का प्रस्ताव रखने वाले व्यक्ति निगम पार्षद रह चुके हैं। उनकी बहन भी पुरानी दिल्ली से निगम पार्षद रह चुकी है। यह बात बताना इसलिए भी जरूरी है कि किसी को यह ना लगे कि वक्त गुजरने के बाद कोई कुछ भी कहे ?उसे लोग सच मान लें। मैं जो कह रहा हूं वह शत प्रतिशत सच है। मुझे कन्वीनर बनाया जा रहा था आपातकाल के दौरान कॉलेज यूनियन का लेकिन मैंने वह स्वीकार नहीं किया क्योंकि मैं आपातकाल का विरोधी था।
यह भी कहना चाहता हूं कि आपातकाल के बाद जो जनता पार्टी बनी हमने उसका पुरजोर समर्थन किया और अपने क्षेत्र में पूरी कोशिश की कि कांग्रेस का प्रत्याशी हारे और हमारे क्षेत्र से कांग्रेस का प्रत्याशी सुभद्रा जोशी हारी, सिकंदर बख्त हमारे यहां चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र के सांसद बने।
हमारे पापा दिवंगत सैयद रियाजुद्दीन तुर्कमान गेट डिमोलिशन के दौरान पुलिस से टकराव का नेतृत्व करने वाले लोगों में थे और उन्होंने बहुत अच्छे-से घेरा बंदी की और पुलिस को मजबूरन पीछे हटना पड़ा और कुछ समय बाद आगे की कार्रवाई को यानी डिमोलिशन को रोकना पड़ा । हमारा घर एक गली भर दूर था जो विरोध के चलते बच गया । हमारे साथ साथ गली के इस पार के सभी मकान सुरक्षित रह गए और आज भी सुरक्षित हैं।
एक और दिलचस्प बात, लोकसभा के चुनाव हुए तब सभी नौजवान कांग्रेस के विरोध में खड़े थे । उन्होंने जमकर विरोध में प्रचार किया मतदान संपन्न होने के बाद हमने अपने पिता से पूछा आपने किस को वोट दिया ?उन्होंने हाथ का पंजा ऊपर उठाते हुए इशारा किया कि मैंने इनको वोट दिया . तब मुझे बहुत हैरत हुई कि ऐसा उन्होंने क्यों किया? मुझे अब लगता है कि मौजूदा स्थिति देश में जैसी है ,लोकतांत्रिक अधिकार चोरी छुपे चोरी कर लिए गए और देश जिस बदतर हालत में जा रहा है, एक दूसरे से वैमनस्य बढ़ रहा है बढ़ाया जा रहा है सांप्रदायिकता का नंगा नाच हो रहा है इस सरकार का विरोध हो रहा है, यह बड़ी विचित्र स्थिति है। इससे बेहतर तो उस आपातकाल की वह स्थितियां हैं। अब तो जरा जरा सी बात पर बुलडोजर चलाया जा रहा है, अपना को पराया बताया जा रहा शिक्षा संस्थानों को दुश्मन माना जा रहा है, ईडी के छापे पड़ रहे हैं, नोटिस भेजा जा रहा है ,नेताओं को ब्लैकमेल किया जा रहा है, सरकार बदलने के लिए विधायक खरीदे बेचे जा रहे हैं, इससे तो बेहतर शायद पहले की स्थिति थी। देश में शांति थी। अनुशासन था । और सांप्रदायिकता न थी. सब एक साथ खड़े होते थे। और सब अपना भी समझते थे भारत को, लेकिन अब कुछ लोग ही भारत को अपना देश मानने लगे हैं यह विचित्र है, गंभीर है और असहनीय है.
जय हिंद